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सिर्फ अमीरों के घरों में पाया जाता था यह खास मसाला, यूरोप के लिए था रहस्यमय

हम जिन मसालों का इस्तेमाल करते हैं उसी में एक चमत्कारी मसाला है दालचीनी जो एक खास पेड़ के छाल से बनती है। इसका पाउडर और तेल भी खासा काम आता है। औषधी के रूप में भी ये है लाभकारी।

By Priyanka SinghEdited By: Published: Fri, 31 May 2019 04:11 PM (IST)Updated: Fri, 31 May 2019 04:11 PM (IST)
सिर्फ अमीरों के घरों में पाया जाता था यह खास मसाला, यूरोप के लिए था रहस्यमय
सिर्फ अमीरों के घरों में पाया जाता था यह खास मसाला, यूरोप के लिए था रहस्यमय

एक जमाना था कि दालचीनी यूरोप के लिए सबसे रहस्यमयी मसाला था। अरब सौदागर जब उन्हें लेकर यूरोप के तमाम देशों में पहुंचते थे तो दालचीनी के स्त्रोत के बारे में ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ते थे कि लगता था कि दालचीनी मसाला कम और रहस्य ज्यादा था। उस जमाने में दालचीनी अगर रईसों के वैभव का प्रतीक बन गई तो कुछ लड़ाइयों की भी गवाह बनी।

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दालचीनी का मानव से रिश्ता

हजारों सालों से रहा है। 2000 ईसा पूर्व में इसके मिस्त्र में इस्तेमाल का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि यह दालचीनी चीन में होती थी और मिस्त्र जाती थी। तब इसका इस्तेमाल लेपन के काम में सुंगध के लिए होता था। यहां तक कि इसके बारे में बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट में आवश्यक तेल के रूप में हुआ है। माना जाता है कि दालचीनी की पैदावार प्राचीन समय में केवल दक्षिण भारत और श्रीलंका में होता था। यहीं से अरब सौदागर इसे भर-भरकर यूरोप लेकर जाते थे। यह भी कहा जाता है कि जब रोमन सम्राट नीरो की दूसरी बीवी पोपाए सबीना का 65 ईस्वीं में देहांत हुआ तो उसने अंतिम संस्कार में अधिकतम दालचीनी जलाया।

दालचीनी रखने का मतलब रईस होना 

अरब सौदागर यूरोप तक दालचीनी ले जाने के लिए जिस रास्ते का इस्तेमाल करते थे, उसमें वह सीमित मात्रा में इसे लेकर जा सकते थे, इसके चलते यह न केवल यूरोप में बहुत महंगी बिकती थी, बल्कि स्टेटस सिंबल भी बन गई। जब कोई मध्यवर्ग का शख्स तरक्की करके ऊपर के स्तर पर पहुंचता था, वहां वह अपने स्टेटस का प्रदर्शन करने के लिए दालचीनी जरूर खरीदता था। उस समय दालचीनी का इस्तेमाल खास लोगों द्वारा होता था। यह जाड़े के दिनों में मीट के प्रिजर्वेटिव के रूप में होता था। यूरोप में हालांकि इसका इस्तेमाल अच्छा खासा होने लगा था।

दालचीनी से जुड़ी रोमांचक कहानी 

अरब सौदागर दालचीनी को लेकर ऐसी कहानियां गढते थे कि किसी को पता ही नहीं लगे कि वास्तव में वह इसे कहां से लेकर गए थे। इसी को लेकर एक कहानी का जिक्र ग्रीक इतिहासकर हेरडोटस ने ईसा से पांच सौ साल पहले किया। अरब सौदागर कहते थे कि ऊंचे पहाड़ों पर रहने वाले कुछ असाधारण पक्षी इसे अपने घोंसले में लाते हैं। ये पर्वतों पर इतनी ऊंचाई पर होते हैं कि वहां पर पहुंचना मुश्किल होता है, इसलिए लोग नीचे बैल का मीट रख देते हैं, जब पक्षी इसे लेकर अपने घोंसले में पहुंचते हैं, तो मीट के वजन से घोंसला टूटकर नीचे आ गिरता है, तब इन दालचीनी की लकडि़यों को बटोर लेते हैं। कुछ कहानियां ऐसी होती हैं कि यह एक ऐसे जंगल में पाए जाते हैं, जहां सांप इसकी रखवाली करते हैं। ये सब कहानियां 16वीं सदी तक चलती रहीं यानी अरब सौदागर इनके स्त्रोत की छिपाने में तब तक सफल रहे, लेकिन इसके बाद जब यूरोप के जहाजियों का बेड़ा भारत और श्रीलंका की ओर पहुंचा, तो यह राज सबको पता लग गया कि दालचीनी दरअसल कहां होती है। क्रिस्टोफर कोलंबस जिस उद्देश्य से भारत आना चाहता था, उसमें एक वजह दालचीनी और कालीमिर्च भी थी।

1518 में पुर्तगाली व्यापारियों ने खोज निकाला कि दालचीनी का प्रमुख श्रीलंका है। उन्होंने इस द्वीप के बड़े इलाकों पर कब्जा कर लिया, जहां दालचीनी के पेड़ बहुतायत में होते थे। इसके बाद दालचीनी के व्यापार में एकाधिकार के लिए डच व्यापारियों ने अपनी सेना के साथ वहां पहुंचकर पुर्तगालियों को उखाड़ फेंका। अब इस जगह पर उनका कब्जा हो गया। करीब 400 सालों तक श्रीलंका अपने खास मसालों के चलते यूरोपीय व्यापारियों के कब्जे में रहा। 1784 में डच व्यापारियों को अंग्रेजों ने भगाया। हालांकि दोनों के बीच कई युद्ध चले, लेकिन यह भी हुआ कि दालचीनी वर्ष 1800 के बाद उतनी मंहगी नहीं रह गई, क्योंकि उसके पौधों को दूसरे देशों में उगाने की कोशिश हुई और उसमें सफलता भी मिली।

दालचीनी में वैराइटी

आजकल दो तरह की दालचीनी बाजारों में बिकती है। एक वह जो श्रीलंका और दक्षिण भारत में होती और दूसरी शेसिया दालचीनी, जिसे इंडोनेशिया में उगाया, जिसकी गंध और फ्लेवर ज्यादा दमदार है। हम जो दालचीनी इस्तेमाल करते हैं, वह आमतौर पर सस्ती होती है, लेकिन श्रीलंका जिस दालचीनी का उत्पादन करता है, वह कहीं ज्यादा मीठी और लोकप्रिय है, इसे कॉफी या चाकलेट की तरह हॉट ड्रिंक में डालकर पिया जाता है।

कैसे होती है

दालचीनी एक छोटा सदाबहार पेड़ है, जो कि 10–15 मी. (32.8–49.2 फीट) ऊंचा होता है। इसकी छाल मसाले की तरह प्रयोग होती है। इसमें एक अलग ही खुशबू होती है। इसके पेड़ को सिन्नेमोमम जाइलैनिकम ब्राइन या कैशिया बार्क भी कहते हैं। यह पेड़ और इसकी प्रजातियां श्रीलंका, भारत, पूर्वी द्वीप तथा चीन इत्यादि देशों में होती हैं। यह पेड़ बीज और कलम से उगाए जा सकते हैं। छाल उतारने के लिए इसकी डालियां तने से काटी जाती हैं, जो दो साल बाद फिर उग आती हैं। इन डालियों से उनकी छाल उतारी जाती है। फिर इन्हें सुखाया औऱ साफ किया जाता है। फिर उन्हें हाथों से पतली नलियां की तरह लपेटकर बांध दिया जाता है। अब ये बाजार में बेचे जाने के लिए तैयार हो जाती हैं। दालचीनी का सुगंधित तेल भी आर्थिक महत्व का है। इसके पत्ते का भी मसालों में उपयोग होता है, इसे तेज पत्ता कहा जाता है। दालचीनी गोलाकार, मुलायम और भुरे लाल रंग का होता है।

क्या हैं फायदे

1. पाचन में सुधार लाने के लिए इसका अलग तरीकों से उपयोग किया जाता है। दालचीनी से जी मचलना, उल्टी और जुलाब रुकते हैं। कब्ज और गैस की समस्या कम करने के लिए दालचीनी के पत्तों का चूर्ण और काढा बना कर लिया जाता है।

2. चुटकी भर दालचीनी पाउडर पानी में उबालकर, उसमें चुटकी भर काली मिर्च पाउडर और शहद डालकर लेने से सर्दी-जुकाम, गले की सुजन एवं मलेरिया कम हो जाता है।

3. स्त्री रोगों में इसका उपयोग होता है। प्रसव के बाद एक महीने तक दालचीनी का टुकड़ा चबाने से गर्भ धारण को टाला जा सकता है। दालचीनी से माता के स्तन का दूध बढ़ता है।

4. दालचीनी के पत्ते और छाल के उपयोग से केक, मिठाई और खाने का स्वाद बढ़ाया जाता है। दालचीनी का तेल इत्र, मिठाई और पेय में उपयोग किया जाता है।

5. मुंह की दुर्गंध और दांत की दवा में दालचीनी का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा भी कई कामों में इसका उपयोग होता है इसे खासा चमत्कारी माना जाता रहा है।

संजय श्रीवास्तव 

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