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Dussehra 2019: बस्तर में पूरे 75 दिनों तक मनाया जाता है दशहरा, जहां राम नहीं देवी की होती है पूजा

दशहरा की तैयारी हर तरफ है। देश के लगभग हर जगह सिर्फ दस दिनों तक चलने वाला यह उत्सव आदिवासी जनसंख्या ऐतिहासिक भौगोलिक और सांस्कृति के लिए मशहूर बस्तर में मनाया जाता है 75 दिन।

By Priyanka SinghEdited By: Published: Sun, 06 Oct 2019 01:13 PM (IST)Updated: Mon, 07 Oct 2019 09:22 AM (IST)
Dussehra 2019: बस्तर में पूरे 75 दिनों तक मनाया जाता है दशहरा, जहां राम नहीं देवी की होती है पूजा
Dussehra 2019: बस्तर में पूरे 75 दिनों तक मनाया जाता है दशहरा, जहां राम नहीं देवी की होती है पूजा

छत्तीसगढ़ के दक्षिणी भाग में स्थित बस्तर जिला अपनी ऐतिहासिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण बहुत ही खास है। बस्तर अपनी आदिवासी जनसंख्या तथा उनके सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवहार के लिए जाना जाता है। आज भी बस्तर में हल्बा, भतरा, मुरिया, माडि़या, धुरवा, दोरला आदि जनजातियां रहती हैं जो वास्तव में वनवासी संस्कृति का पोषण करती हैं। यूं तो यह क्षेत्र अपनी आदिवासी सांस्कृतिक आयोजनों के लिए प्रसिद्ध है लेकिन इसकी एक महत्वपूर्ण पहचान यहां मनाया जाने वाला दशहरा है। बस्तर क्षेत्र में दशहरा लगभग 75 दिनों तक मनाया जाता है जिसमें आखिरी के पंद्रह दिन अत्यंत विशिष्ट होते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां का दशहरा राम-रावण कथा से संबंधित न होकर मातृशक्ति से जुड़ा हुआ है। 

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बस्तर का दशहरा 

ये इसलिए भी खास है क्योंकि काकतीय राज परिवार की इष्ट देवी तथा बस्तर क्षेत्र के लोक जीवन की अधिष्ठात्री दंतेश्र्वरी देवी के प्रति श्रद्धा भक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति इसी पर्व के माध्यम से की जाती है। 15 शताब्दी में बस्तर में काकतीय का शासन था। सच तो यह है कि बस्तर का दशहरा समग्र रूप से पौराणिक, ऐतिहासिक, स्थानीय वनवासी परंपराओं, तंत्र साधना इत्यादि का मिश्रण नजर आता है।

सहभागिता राजा-प्रजा की

मान्यता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में बस्तर के काकतीय नरेश पुरूषोत्तम देव ने एक बार बस्तर से जगन्नाथपुरी तक पैदल यात्रा की। इस यात्रा में उनके साथ स्थानीय आदिवासी भी गए। जगन्नाथपुरी मंदिर पहुंचने पर राजा पुरुषोत्तम देव ने मंदिर को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं एवं आभूषण भेंट किए। मंदिर में राजा को 'रथपति' घोषित कर दिया गया। रथपति की उपाधि से अलंकृत होकर राजा ने यात्रा से वापसी के पश्चात बस्तर में दशहरे के दौरान रथ चलाने की प्रथा शुरू की। तब से अब तक लगभग छ: सदियां गुजर चुकी हैं किंतु बस्तर का दशहरा उसी उत्साह, ऊर्जा, धार्मिकता और मां दंतेश्र्वरी देवी के प्रति श्रद्धा भाव से मनाया जाता है। स्थानीय निवासियों की सहभागिता के साथ-साथ यहां के राजघरानों की उपस्थिति भी इस आयोजन को और आभामय बनाती है। बस्तर के दशहरे का मुख्य आकर्षण रथ यात्रा होती है।

रथ का महत्व

अतीत में बारह पहियों वाला एक विशालकाय रथ चलाया जाता था। जिसे बाद में दो भागों में बांट दिया गया। विशाल रथ को रैनी रथ कहा जाता है जबकि छोटे रथ को फूल रथ। प्रत्येक दशहरे पर नया रथ तैयार किया जाता है। रथ बनाने का कार्य स्थानीय वनवासियों द्वारा किया जाता है। रथ के अलग-अलग भागों यथा, अछाड़, पारा, मोंगर मोही, खंभे, मचान, छावनी आदि का निर्माण करने के लिए अलग-अलग दल बंट जाते हैं। लकडियां लाने में, रथ-निर्माण में, रस्सियां बनाने में, रथों को सुसज्जित करने, सीढ़ी लगाने तथा रथ खींचने में स्थानीय सहभागिता देखते ही बनती है। बस्तर का दशहरा इस हद तक सामुदायिक सहभागिता का प्रतीक है कि इस अंचल के प्रत्येक ग्राम तथा व्यक्ति की सहभागिता इस आयोजन में होती है।

परंपराएं हैं कई

पूरे 75 दिन तक चलने वाले बस्तर के दशहरे की शुरुआत 'पाठजात्रा' से होती है। पाठजात्रा अनुष्ठान के अंतर्गत स्थानीय निवासियों द्वारा जंगल से लकडि़यां एकत्रित की जाती हैं जिसका उपयोग विशालकाय रथ बनाने में उपयोग होता है। पाठ जात्रा के पश्चात आश्विन शुक्ल पक्ष त्रयोदशी के दिन जगदलपुर स्थित सीरासार में स्तंभारोहण की प्रथा पूरी की जाती है जिसे डेरिया कहा जाता है। दरअसल यह प्रथा बस्तर के जन-जीवन में जंगल और लकड़ी के महत्व को रेखांकित करती है। दशहरे के पंद्रह दिन पूर्व इसकी औपचारिक शुरुआत 'काछिन गादी' अर्थात 'काछिन देवी को गद्दी देना' कार्यक्रम से होती है। प्रतीक स्वरूप मिरगान जाति की किसी अविवाहित कन्या को बेल वृक्ष की कांटेदार टहनियों की गद्दी पर बैठाकर झुलाया जाता है। इसके पश्चात देवी की पूजा-अर्जना कर दशहरा मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है। इस आयोजन के बाद जोगी बिठाई, रथ परिक्रमा, निशा जात्रा, मावली परघाव, भीतर रैनी, बाहर रैनी, मुरिया दरबार, ओहाड़ी आदि परंपराओं का क्रमानुसार आयोजन किया जाता है। काछिनगादी से शुरू होकर इस आयोजन की समाप्ति ओहाड़ी के साथ होती है।

लोक संस्कृति का आकर्षण

सामुदायिक उल्लास, उत्साह, सहभागिता, समन्वय, उत्सुकता का यह मिश्रण इस आयोजन को नई ऊंचाइयां प्रदान करता है। दुर्गाष्टमी के दिन निशा-जात्रा कार्यक्रम होता है। यह मुख्यत. तांत्रिक रस्म है। अश्विन शुक्ल नवमी को संध्या के समय सीरासार में साधनारत बैठे जोगी को समारोहपूर्वक उठाया जाता है। इसी रात्रि मावली-परघाव (मावली देवी का सत्कार) होता है, जिसके तहत दंतेवाड़ा से दंतेश्र्वरी की डोली में श्रद्धा पूर्वक लाई गई मावली-मूर्ति की अगवानी की जाती है। आश्विन शुक्ल द्वादशी को निर्विघ्न दशहरा संपन्न होने की खुशी में शाम को सिरहासार में ग्रामीण तथा शहरी मुखियों की आम सभा लगती है, जिसे मुरिया-दरबार कहा जाता है। इस दरबार में पहले राजा-प्रजा के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता था किंतु वर्तमान में राजनैतिक प्रमुखों तथा स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा दरबार में प्रतिभाग किया जाता है। स्थानीय लोकगीत-संगीत, पारंपरिक वाद्य यंत्र इस आयोजन को और भी आकर्षक बना देते हैं।

पवन कुमार

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं तथा वर्तमान में उत्तर प्रदेश में कार्यरत हैं)


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