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युवा प्रतिभा: स्मृति और यथार्थ की जुगलबंदी

हाल ही में युवा कथाकार अमित ओहलाण का आधार प्रकाशन पंचकूला से आया पहला ही उपन्यास 'मेरा यार मरजिया' इस बात की मिसाल है।

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 03 Apr 2017 03:26 PM (IST)Updated: Mon, 03 Apr 2017 03:41 PM (IST)
युवा प्रतिभा: स्मृति और यथार्थ की जुगलबंदी
युवा प्रतिभा: स्मृति और यथार्थ की जुगलबंदी

हरियाणा के बारे में हमारी गलतफहमी है कि वहां साहित्य की आबोहवा कम बहती है। लोग प्राय: खेतिहर और उद्यमी होते हैं। वे सेना व पुलिस की नौकरियों में जाना पसंद करते हैं। पर इधर साहित्य में युवाओं का आगमन हो रहा है और बहुत मजबूततरीके से। हाल ही में युवा कथाकार अमित ओहलाण का आधार प्रकाशन पंचकूला से आया पहला ही उपन्यास 'मेरा यार मरजिया' इस बात की मिसाल है। उपन्यास आते ही चर्चा में है कि यह हरियाणा के स्थानीयता और हरियाणवी मनोदशा का सूक्ष्म अंकन है जिसमें पहली बार स्त्री की दुरावस्था का चित्रण किया गया है। बच्चियों की पैदा होते ही हत्या और उनकी घटती संख्या जैसे मानवीय, दार्शनिक और सामाजिक पक्षों को एक साथ गूंथकर अखबारी यथार्थ से सायास बचते हुए कला-अभिव्यक्ति के रूप में इस कथा को गढ़ा गया है।

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-'क्या कहना चाहा है आपने इस उपन्यास के बहाने?' पूछने पर अमित कहते हैं कि, ''मेरा यार मरजिया' मूलत: एक दु:स्वप्न को मर-मरकर जिए जाने की वृहद गाथा है। एक बच्चा अपने बचपने में एक हत्या की गई बच्ची की लाश देखता है और यह दृश्य उसकी पुतलियों में सदा के लिए जम जाता है। वह जैसे-जैसे बड़ा होता है, कल्पनाओं में उस लड़की को भी बड़ा करता जाता है। वह एक रूह के रूप में उसके साथ रहती है, जब यही नायक आगे प्रेम और स्त्री को प्राप्त करने में असफल रहता है तो वह स्मृतियों में जाकर उस प्रेमिका को ढूंढ़ता है जो कहीं नहीं है। बाद में एक खरीदी हुई गरीब स्त्री में नायक उस स्मृति को यथार्थ में पाने की कोशिश करता है। तमाम आरोह-अवरोहों के बाद अंतत: पूर्वाग्रहों से ग्रस्त संकुचित समाज इस विकल्प को भी छिन्न-भिन्न कर देता है जिसकी परिणति रक्तिम त्रास में जाकर होती है।'

कथा की शैली आत्मपरक है जिसमें खुद चरित्र ही नैरेटर है जो कथाधार के रूप में एक कीकर को उस श्रोता के रूप में पेश करता है जिसके नीचे उसने वह लाश देखी थी और जो दृश्य उसके जीवनभर का त्रास बन गया।

हरियाणा के रोहतक जिले के गांव नयाबांस में एक ठेठ किसान परिवार में 21 अक्टूबर 1985 को जन्मे अमित का बचपन नानी के पास पांची जाटान गांव में बीता और वहीं आरंभिक शिक्षा हुई। उसके बाद सोनीपत से ग्रेजुएट और जामिया से पत्रकारिता और रचनात्मक लेखन में पोस्ट ग्रेजुएशन का कोर्स किया। अमित का जीवन फसलों, पशुओं, परिंदों के सान्निध्य से जुड़ा रहा है। लोकजीवन और बचपन के यथार्थ और भविष्य के स्वप्न उनके लेखन के प्रेरक तत्व रहे हैं। विश्व सिनेमा के साथ-साथ साहित्य के पठन-पाठन से उनका गहरा लगाव है। 

यह कहने पर कि इस उपन्यास की किस्सागोई की चाल बहुत धीमी है जैसे खंड-खंड दृश्यों के कोलाज हों, अमित बताते हैं शायद इसलिए कि मुख्य किरदार की मानसिक हालत उसे बार-बार स्मृतियों की तरफ ले जाती है। हाल ही में विश्व पुस्तक मेले में आए इस उपन्यास पर पाठकों की प्रतिक्रिया के बारे में वे बताते हैं, ' प्रतिक्रिया अच्छी है। खुशी हुई जब पाठकों ने नॉवेल स्ट्रक्चर की सराहना की।'

किस्सागोई के उच्चादर्शों का अनुगमन अमित को रास नहीं आता। वे कहते हैं, 'मैं बंधी-बंधाई परिपाटियों और आदर्शों का मुरीद नहीं हूं। फिर भी सरंचना के प्रयोग, यथार्थपरक अनुभव और कल्पना के मिश्रण से कुछ बेहतर रचा जा सकता है।' तथापि वे स्वीकार करते हैं कि उनके प्रेरक वे तमाम लेखक हैं जिन्हें पढ़कर सोचने और खोजने की भूख जागती है। जैसे निर्मल वर्मा, प्रेमचंद, गोर्की, क्नुत हामसुन, ओरहान पामुक, मार्खेज, कालिदास, दुनियाभर की फिल्में, फोटोग्राफी आदि सब कुछ।

-'क्या इस उपन्यास की कथावस्तु में आपके अपने देखे-भोगे हुए यथार्थ की हिस्सेदारी है?'

अमित कहते हैं, 'यथार्थ में हिस्सेदारी यूं है कि मैंने उन किरदारों को करीब से देखा है। हां, बचपन की कुछ छवियां मेरी हैं। कल्पना का सहारा लेकर मैंने करीबी किरदारों को और करीब से जानने की कोशिश की है।' कहना न होगा कि आज के युवा किस्सागोई में न केवल कथ्य के स्तर पर बल्कि उपन्यास के संरचनात्मक ढांचे के स्तर पर अनेक प्रयोग कर रहे हैं। कीकर से शुरू कर फिर कीकर के गायब होते जाने के वृत्तांत को बुनते हुए कैसा रूपक निर्मित किया है आपने? अमित कहते हैं, 'कीकर हरियाणा में एक महत्वपूर्ण पेड़ है जो प्रतीक की तरह है लेकिन विकास की आंधी में यह गायब सा हो गया है। मुझे हमेशा से इस पेड़ में हमारे ठेठ देसी जीवन का अक्स दिखता रहा है। वह उस खोई देसी जीवन की तस्वीर है जिसे विकास के बेहूदा नियमों से काट दिया गया है।' अमित औपन्यासिकता के इलाके में उस कथावैज्ञानिक की तरह हैं जिसका ध्यान परंपरा से चले आ रहे कथाविधान को बदलने पर है। इन दिनों वे एक और उपन्यास पर काम कर रहे हैं जिसका विषय उत्तरी क्षेत्र की सामाजिक स्मृतियां हैं।

डॉ.ओम निश्चल

जी-1/506ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली

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