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वह लड़की जो बदल रही है दिल्ली की महिला यौनकर्मियों और उनके बच्चों की ज़िंदगी!

आज से 9 साल पहले यानी सन 2012 में गीतांजलि ने “कठ-कथा” नाम की एक संस्था या एनजीओ की शुरुआत की थी जिसका लक्ष्य जी.बी.रोड को आहिस्ता-आहिस्ता एक क्लास रूम कम्यूनिटी सेंटर और एक ऐसी जगह का रूप देना था जहां ये महिलाएं ख़ुद को महफूज़ महसूस कर सकें।

By Ruhee ParvezEdited By: Published: Mon, 08 Mar 2021 10:17 AM (IST)Updated: Wed, 02 Jun 2021 01:24 PM (IST)
वह लड़की जो बदल रही है दिल्ली की महिला यौनकर्मियों और उनके बच्चों की ज़िंदगी!
"महिलाएं सिर्फ एक दिन ही नहीं, बल्कि हर दिन प्यार, एहमियत और सम्मान पाने की हक़दार हैं"

रूही परवेज़, नई दिल्ली। जी.बी.रोड देश की राजधानी दिल्ली का सबसे बड़ा रेड लाइट इलाक़ा है। यहां के ज़्यादातर चेहरों के पीछे दर्द और तकलीफ़ से भरी अनगिनत अनसुनी कहानियां छिपी हैं। जीबी रोड के 77 कोठों में आज भी चार हज़ार से ज़्यादा महिलाएं और डेढ़ हज़ार से ज़्यादा बच्चियां रह रही हैं। जिनमें से ज़्यादातर को ज़बरदस्ती यहां लाया गया है। किसी को अपहरण करके लाया गया है। बहुत-सी ऐसी हैं जिन्हें या तो छोटी उम्र में बेच दिया गया था या फिर ग़ैरकानूनी तरीक़े से यहां पहुंचा दिया गया है, लेकिन इन महिला यौनकर्मियों को गीतांजलि बब्बर के रूप में एक दोस्त मिली है। गीतांजलि इन महिलाओं को दीदी कहकर बुलाती है। कोठे में रह रही इन महिलाओं को प्यार-मोहब्बत के ज़रिए सशक्त बनाना ही गीतांजलि का मिशन है।

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आज से 9 साल पहले, यानी सन 2012 में गीतांजली ने “कठ-कथा” नाम की एक संस्था या एनजीओ की शुरुआत की थी, जिसका लक्ष्य जी.बी.रोड को आहिस्ता-आहिस्ता एक क्लास रूम, कम्यूनिटी सेंटर और एक ऐसी जगह का रूप देना था, जहां ये महिलाएं ख़ुद को महफूज़ महसूस कर सकें। साथ ही उनके बच्चों को पढ़ने-लिखने और विभिन्न कलाएं सीखने के अवसर मिलें और वह भविष्य में गर्व से अपने पांवों पर खड़े हो सकें।  

“कठ-कथा” के ज़रिए गीतांजलि इन “दीदियों” को न सिर्फ प्यार भरा सहारा दे रही हैं, बल्कि उन्हें पढ़ने लिखने का, अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के लिए सिलाई, बुनाई, खाना पकाने के हुनर सीखने के मौक़े भी दे रही हैं। साथ ही उन्हें उनके अधिकारों की बुनियादी जानकारी दे रही हैं यानी कुल मिलाकर उन्हें, उनका आत्मसम्मान वापस दिलवाने में उनकी  मदद कर रही हैं। गीतांजलि बब्बर के साथ हुई बातचीत के मुख्य अंश।

यह बताएं कि “कठ-कथा” की शुरुआत कैसे हुई, यह विचार कहां से आया?

गीतांजलि: मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिग्री लेने के बाद डेवलेप्मेंट कम्यूनीकेशन में एम.ए. किया। मेरे इस सफ़र की शुरुआत तब हुई जब मैं नैशनल एड्स कंट्रोल संगठन (NACO) के साथ जुड़ी। वहां मुझे जो काम सौंपा गया था उसमें गर्भ-निरोधक और परिवार नियोजन से संबंधित विषयों पर सर्वे करने की ज़िम्मेदारी शामिल थी, जिसमें वैश्यालयों की महिलाएं भी थीं। इस सर्वे के दौरान मुझे एहसास हुआ कि इन महिलाओं से निजी स्तर पर बातचीत करने के लिए उन्हें एक सपोर्ट सिस्टम की ज़रूरत होगी। फिर मैंने ऐसा ही किया। इन दीदियों से दोस्ती की, उन्हें प्यार दिया, उन्हें एहसास दिलाया कि मैं पूरी तरह उनके साथ हूं और उनकी तकलीफ़ों को ख़ूब अच्छी तरह समझती हूं। उनसे बात करके मुझे समझ में आ गया था कि ज़िंदगी उनके साथ कितनी बेरहमी से पेश आई है। वे इन कोठों में फंस गई हैं, उनके सपनों को कुचल दिया गया है और दूसरों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए, उनसे कठपुतली की तरह काम करवाया गया है। तब मुझे मेरा मक़सद समझ में आ गया था। मुझे इन “कठपुतलियों” की डोरी काटनी थी, ताकि ये दीदियां अपनी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जी सकें।

“कठ-कथा” के लक्ष्य क्या क्या हैं यानी आपकी संस्था क्या करना चाहती है?

गीतांजलि: “कठ-कथा” एक ऐसी संस्था है जो जी.बी. रोड पर रहने वाली महिला यौनकर्मियों और उनके परिवारों के साथ काम करती है। हमारा लक्ष्य है कि इन दीदियों में, उनके अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा करें। साथ ही अभियानों और बातचीत के माध्यम से समाज में उनके लिए जगह पैदा करें। “कठ-कथा” आज इन दीदियों के साथ खड़ी है, लेकिन कोई भी संस्था जीवन भर उनका साथ नहीं दे सकती। इसलिए हम इन्हें उनके पांवों पर खड़ा करना चाहते हैं, ताकि वे अपनी आगे की ज़िंदगी सिर उठाकर जी सकें और अपने बच्चों को इस नर्क से बाहर निकाल सकें।

यहां 30 साल की महिलाओं को बूढ़ा माना जाता है। इतनी कम उम्र में उनका काम ख़त्म हो जाता है। इसलिए वो पैसे कमाने के लिए ख़ुद दलाली का काम शुरू कर देती हैं ताकि उन्हें कमिशन मिल सके। ये सब, खुद का और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए किया जाता है। ये एक ऐसा ख़तरनाक जाल है, जिससे वो कभी बाहर निकल ही नहीं सकतीं। हम इसी जाल को काटना चाहते हैं ताकि वे दलाली न करें बल्कि समाज में अन्य लोगों के साथ मिलकर कोई दूसरा काम करें और इज़्ज़त की ज़िंदगी गुज़ार सकें।

सभी दीदियों के लिए हमारी योजना एक जैसी नहीं है, मतलब ये कि हम किसी पर कुछ थोपते नहीं हैं। जिसकी जो रुचि है उसे वही सिखाते हैं, जिसकी पढ़ने लिखने में रूची है उसे पढ़ाई का अवसर देते हैं। जो सिलाई सीखना चाहती हैं, उनके लिए सिलाई की कक्षाएं होती हैं। इसके अलावा हम वहां के बच्चों की पढ़ाई का भी ख्याल रखते हैं। जी.बी. रोड में कोई स्कूल नहीं है, इसलिए वहां के बच्चे कभी स्कूल नहीं गए। इसलिए हम उन्हें 3-4 साल पढ़ाते हैं और जब उनमें आत्मविश्वास पैदा हो जाता है तब उनका दाख़िला स्कूल में करवाते हैं। 

ज़ाहिर है यह काम आसान तो नहीं था..किस किस तरह की दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता आपको?

गीतांजलि : शुरुआत में मुझे कई लोगों ने यह काम न करने की सलाह दी उनका कहना था क्योंकि मैं लड़की हूं इसलिए जी.बी.रोड जैसी जगह जाकर काम करना मेरे लिए ठीक नहीं होगा। इसके बाद जब मैंने जी.बी. रोड जाकर काम करना शुरू किया, तो वहां भी महिलाएं मुझ पर विश्वास नहीं करती थीं। इसमें उनकी कोई ग़ल्ती भी नहीं थी,उन्हें मुझ पर क्यों विश्वास करना चाहिए था? उस वक़्त मैं सिर्फ़ 22-23 साल की लड़की थी, जिसके पास न तो देने के लिए पैसे थे और न ही किसी तरह का प्रोग्राम था। बस वह लड़की उनसे कह रही थी,  “दीदी में आपके लिए कुछ करूंगी, हम सब मिलकर आपकी बेहतरी के लिए कुछ करते हैं।" लेकिन लोग ऐसे ही विश्वास नहीं कर लेते, वो कैसे मान लें कि आप जो कह रहे हैं, वह सच कह रहे हैं। उनके दिल में अपने लिए विश्वास बनाना और जी.बी. रोड के बाहर अपनी विश्वसनीयता साबित करना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। आज 9 साल बाद भी ये एक चुनौती ही है। आज एनजीओ पर लोग विश्वास नहीं करते, लेकिन “कठ-कथा” को लोग मानते हैं। उनका विश्वास है कि हमारा इरादा सही है। वहीं, फ़ील्ड पर काम करते हुए भी कई तरह की चुनौतियों से गुज़रना पडा, जी.बी.रोड के लोगों ने डराया, औरतों ने डराया, दलालों ने धमकियां दीं, वह लोग हमें कोठों के अंदर नहीं जाने देते थे। शुरुआत में मुझे ये बात नहीं समझ आती थी कि कोठे में रह रहे बच्चों से कैसे डील किया जाए, वे जिस मानसिक्ता से गुज़रे हैं, उनसे कैसे बात की जाए। हम अपने वॉलेंटियर्स से भी यही कहते थे कि अब जब आप यहां आ गए हैं, तो आपको यहां सिर्फ़ काम ही नहीं करना होगा बल्कि “कठ-कथा” को जीना होगा। एक ऐसी बस्ती जहां इतना दर्द है, हिंसा है, शराब , उदासी, निराशा है, वहां रोज़ जाना और अपने जोश को बनाए रखना किसी के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती हो सकती थी।  

 

इतनी परेशानियों के बीच वो एक चीज़ क्या थी जिसने आपका हौसला नहीं टूटने दिया ?

गीतांजलि : सबसे बड़ी चीज़ थी, मेरा अपने आप से रिश्ता, मेरा ख़ुद से वादा, ज़िम्मेदारी का एहसास  कि चाहे कुछ हो जाए, मुझे जी.बी.रोड को बदलना है। मेरे अपने पास इसके अलावा कोई और चारा नहीं था। मैंने अपने मन में तय कर लिया था कि अब मुझे ताउम्र जी.बी.रोड के लिए ही काम करना है। आज भी जब कोई परेशानी सामने आती है, कुछ ऐसी चीज़ जिसे देखकर मैं अंदर से डर जाती हूं, तो अपने मेंटर्स से बात करती हूं। इतने सालों में प्रैक्टिस भी की है कि कैसे दोबारा अपने लक्ष्य पर फ़ोकस करना चाहिए। मेरे साथ कई ऐसे लोग भी हैं, जिनसे मैं बात कर सकती हूं, जो मेरी बात सुनने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसी ही स्थिति टीम के बाक़ी लोगों के लिए भी है। हम सिर्फ़ काम ही करते हैं,सिर्फ़ बातें नहीं करते। हमारी टीम के आपसी रिश्ते काफ़ी गहरे हैं। हम विश्वास हैं कि हमारा लक्ष्य पूरे हो जाएगा।  लेकिन हम यह भी जानते हैं कि हम सबका रिश्ता जितना मज़बूत होगा, हम उतना ही अच्छा काम कर सकेंगे।

“कठ-कथा” का काम करने का तरीक़ा क्या है?

गीतांजलि : हमारा सबसे पहला मक़सद होता है कि कोठे के अंदर जाकर, उनके साथ उन महिलाओं के साथ एक ख़ास रिश्ता बनाया जाए। हम ऐसा रिश्ता बनाएं कि वे सुक्षित महसूस करे सकें। वे अपने दुख, परेशानियां और अपनी बातें हम से साझा कर सकें। उनके पास ऐसा कोई नहीं होता जिससे वह अपने दिल सी बात कह सकें। इसलिए हम एक ऐसा शख़्स बनना चाहते हैं, जिससे वे अपनी हर बात साझा कर सकें। वहां महिलाएं ग़ैरकानूनी तरीके से लाई जाती हैं, वे वहां अकेली आती हैं, सभी लोग उन्हें एक सामान की तरह देखते हैं। यहां तक कि वो ख़ुद भी अपने आपको समान ही समझती हैं। हम इसी धारणा को तोड़ना चाहते हैं, हम चाहते कि वो दीदियां खुद को इंसान की तरह देखें, एक महिला की तरह देखें। उनको समझ में आए कि प्यार क्या होता है। हम अपना काम रिश्ता बनाने के साथ शुरू करते हैं। फिर इन महिलाओं और उनके बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं, कि वे हमारे सेंटर में आएं। वहां बच्चों को पढ़ाते हैं, और महिलाओं को अलग-अलग तरह के काम सिखाते हैं। कई महिलाएं कोठों को छोड़कर हमारे साथ काम करती हैं, कई महिलाओं में इतना आत्मविश्वास पैदा गया है कि अब वे अपना काम करना चाहती हैं, अलग रहना चाहती हैं। ऐसी महिलाओं को हम तंख्वाह देने के साथ घर का किराया भी देते हैं। ऐसे ही हमारे साथ जुड़े कई बच्चे भी काफ़ी आगे बढ़ गए हैं, अब वे दलाल नहीं बन रहे। अच्छी नौकरियां कर रहे हैं, और कोठों में रह रहे दूसरे बच्चों की मदद भी करते हैं ताकि उनका भविष्य भी सुधर सके। ये एक सर्कल की तरह है, हमने कुछ बच्चों और महिलाओं की मदद की अब वही महिलाएं और बच्चे दूसरे 10 लोगों की मदद करेंगे। हमें पूरा विश्वास है कि एक दिन इसी तरह हम कोठों को दुनिया से ख़त्म कर सकेंगे।

क्या आप समाज को कोई संदेश देना चाहेंगी?

गीतांजलि : मैं यही कहना चाहूंगी कि महिलाओं को साल में सिर्फ़ एक दिन एहमियत देने से काम नहीं चलेगा, वे हर दिन प्यार, एहमियत और सम्मान पाने की हक़दार हैं। मुझे खुशी भी है कि हम कम से कम एक दिन तो महिलाओं का मनाते हैं।  लेकिन सच यह है कि महिलाओं से, उनकी सफलताओं के, उनकी निराशाओं के, उनके दुख और तकलीफ़ों के बारे में रोज़ बात करने की ज़रूरत है। सिर्फ़ एक ही दिन नहीं बल्कि जब हम हर दिन को महिलाओं का दिन मानने लगेंगे, समाज बदलाव तभी आ सकेगा। 


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