अपने आप में संपूर्ण है नारी
मनोरंजन जगत की शख्सियत नेहा पेंडसे और मोनाली ठाकुर का मानना है कि शहरों में हम चाहें कितना भी आगे बढ़ लें,आजादी पा लें लेकिन असल में सशक्तीकरण अभी होना बाकी है।
नारी तो अपने आप में संपूर्ण है
नलिनी-कमलिनी, कथक नृत्यांगना
महिला दिवस मनाने से फायदा तब होगा, जब हमारी परिस्थितियों में सुधार की कोई गुंजाइश हो। नारी तो अपने आप में संपूर्ण है। जिस तरह से जन्मदिन और शादी की सालगिरह मनाई जाती है उसी तरह से यह भी मनाया जा रहा है। इस दिवस को मनाने की सार्थकता तभी हो सकती है जब एक औरत अपने परिवार व बच्चे को ऐसा बनाए, जो समाज को एक नया रूप दे सके। निर्भया जैसी घटनाओं के लिए औरत ही जिम्मेदार है, क्योंकि वह अपने विचार, लालन- पालन और शिक्षा से अपने बच्चे को आदर्श नागरिक बना सकती है। बचपन से ही बड़ों को बड़ों को सम्मान करना और छोटे को क्षमा की भावना का पाठ जरूर सिखाना चाहिए। कभी भी बच्चे की गलती को सपोर्ट नहीं करना चाहिए। जिस चीज की हमें जरूरत होती है वह प्रकृति हमें दे ही देती है। उसी तरह एक मां ही अपने बच्चों को अपनी परंपराओं की शिक्षा देती है।
खुद लड़नी होगी जंग
नेहा पेंडसे, अभिनेत्री
महिलाओं को जितनी आजादी मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल पा रही है। यह सामाजिक से अधिक निजी दिक्कत है। यह भागने वाली चीज नहीं है। दुर्भाग्य से पीढ़ी दर पीढ़ी औरतों को इतना दबाया गया है कि वह अपने सशक्तिकरण को भूल चूकी हैं। मेरे ख्याल से उन्हें खुद के लिए स्टैंड लेना शुरू करना होगा। यह दिक्कत हर तबके की है। मैंने बड़े घर की भी औरतों को देखा है, जिन्होंने अपने लिए स्टैंड लिया। तब जाकर उन्हें उनका ड्यू मिल सका। लिहाजा मेरा मानना है कि औरतों को यह जंग खुद लड़नी होगी। हां, सामाजिक दिक्कतों के चलते किसी को कब झगड़कर हक मिलता है तो किसी को अधिक, लेकिन यह चीज ही ऐसी है कि झगड़कर ही मिलेगी। मर्दों को तो जब जो हासिल करना होता है, वे लड़-झगड़कर ले लेते हैं। हम औरतें क्यों परिवार की बदनामी का दुपट्टा सदा ओढे़ रहें। मैं ग्लैमर जगत से वास्ता रखती हूं। यहां भी अभी सशक्तिकरण होना बाकी है। यहां का भी कामकाजी माहौल बाकी फील्ड की तरह का ही है। आज को अप्रत्याशित सफलता हासिल करनी है तो औरों के मुकाबले अतिरिक्त काम करना ही होगा।
जगानी होगी अलख
मोनाली ठाकुर, सिंगर
मेरे ख्याल से महिला सशक्तिकरण बड़े शहरों तक सीमित है। कस्बों और गांवों में स्थिति बदतर है। शहर की लड़कियां तो सोच भी नहीं सकतीं कि वहां महिलाएं किन हालात में रहने को मजबूर हैं। हालांकि बड़े शहरों में भी निचला तबका नाइंसाफी और गलीज जिंदगी जीने को मजबूर है। कुछ दिनों पहले मेरे पास एक महिला आई थीं। वह 18 बरसों से अपने परिवार का लालन- पालन कर रही हैं। मैं उन्हें काम दिलवाने की कोशिश कर रही हूं। पति शराबी है। फिर भी वह उसके साथ जी रही हैं। इस लिहाज से लगता है कि हम आज ही सशक्तिकरण के असल दौर में जी रहे हैं। मेरे ख्याल से सशक्तिकरण की अलख जगाने वालों को अब शहरों से इतर गांव-खेड़ों में प्रचंड वेग से लोगों में जागरूकता फैलाने की जरूरत है। महिलाएं अपने हक समझ सकें। वे होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सकें। ऐसा करते हुए अपराध बोध की अनुभूति न हो। वे अपनी मर्जी से जिएं और सुविधा से काम करें। अपनी पसंद के कपड़े पहनें। यह सब करने पर कौन क्या सोचेगा, इसकी परवाह वे छोड़ें। यह सारी चीजें उनके दिमाग में डाले जाने की दरकार है।
-संगिनी फीचर
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