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काबिलियत की कसौटी पर खरी उतरी इसरो के वैज्ञानिकों की टीम की महिला सदस्य

बिंदास हैं , बेबाक हैं आज की औरतें, खुदी को खुद बुलंदियों पर पहुंचा रही हैं। इसी चहकती- चमकती दुनिया की कुछ चुनिंदा मिसालें बदलाव का जादू सिखा रही हैं...

By Srishti VermaEdited By: Published: Sat, 04 Mar 2017 02:16 PM (IST)Updated: Wed, 08 Mar 2017 11:24 AM (IST)
काबिलियत की कसौटी पर खरी उतरी इसरो के वैज्ञानिकों की टीम की महिला सदस्य
काबिलियत की कसौटी पर खरी उतरी इसरो के वैज्ञानिकों की टीम की महिला सदस्य

बिंदास हैं , बेबाक हैं आज की औरतें, खुदी को खुद बुलंदियों पर पहुंचा रही हैं। इसी चहकती- चमकती दुनिया की कुछ चुनिंदा मिसालें बदलाव का जादू सिखा रही हैं... तोड़ दो नींद अपनी पर सपने देखना मत छोड़ना, अपने अनुभव से बता रही हैं।

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विज्ञान में काम करते हैं जांचे- परखे नियम। उसी प्रकार काबिलियत की कसौटी स्त्री- पुरुष का भेद नहीं देखती। सफलता की कहानियां लिखी जाती हैं लक्ष्य के प्रति जुनून और अथक परिश्रम से। ये साबित किया है हाल ही में पीएसएलवी के जरिए एक साथ 104 सैटेलाइट्स के सफल लांच का कीर्तिमान रचने वाली इसरो के वैज्ञानिकों की टीम की महिला सदस्यों ने। खास बात यह है कि घर- परिवार की जिम्मेदारियों और अपने फैशन में तालमेल बिठाते हुए उन्होंने ये उपलब्धि हासिल की है।

महिला वैज्ञानिकों की आदर्श
अनुराधा टीके, आंध्र प्रदेश
इसरो सैटेलाइट सेंटर में कार्यरत सबसे वरिष्ठ महिला वैज्ञानिक हैं अनुराधा टीके। इसरो के हालिया मिशन के बाद उन्होंने कहा था, मंगल अभियान एक बड़ी कामयाबी थी, पर वह अतीत है। हमारे आस पूरा अंतरिक्ष पड़ा हुआ है, जिसकी खोज हम कर सकते हैं। जब 1982 में मैंने इसरो जॉएन किया था तब मेरे बैच में पांच-छह महिला इंजीनियर्स ने साथ में जॉएन किया था, पर आज इसरो के करीब 16 हजार कर्मचारियों में महिला इंजीनियर्स की तादाद 10-15 फीसदी है। यह बात उत्साहजनक है, पर अभी भी यह आंकड़ा 50 फीसदी से कम है। इसकी मूल वजह है कि महिलाओं की परवरिश इस तरह होती है कि उन्हें लगता है कि उनकी पहली प्राथमिकता घर है। अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को अदा करते हुए मैंने इसरो में 34 साल का लंबा सफर तय किया। घर और प्रोफेशनल लाइफ में मेरा तालमेल परफेक्ट रहा। रॉकेट साइंस सिर्फ मेरा कॅरियर नहीं, बल्कि पैशन था। जब ऑफिस में काम होता तो पूरे पैशन के साथ में उसे पूरा करने में जुट जाती, वहीं जब घर पर मेरी जरूरत होती तो पूरे समर्पण से मैं पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाती।

मेरे पति और सास-ससुर ने भी इसरो मेरा पूरा साथ दिया।’ अनुराधा इस बात से इंकार करती हैं कि महिलाओं और साइंस का कोई मेल नहीं है। वह कहती हैं, ‘ मुझे वे विषय अच्छे नहीं लगते थे, जिसे ज्यादा याद करना पड़े। साइंस लॉजिक बेस्ड है। इसलिए मेरा झुकाव उसकी ओर हुआ।’ इसरो के संदर्भ में अनुराधा कहती हैं, ‘जेंडर डिफरेंस की बात यहां बेमानी है। इसरो में नियुक्ति और प्रमोशन इस बात पर निर्भर करता है कि हमें कितनी नॉलेज है और हम कितना योगदान सुनिश्चित करते हैं। रॉकेट साइंटिस्ट बनने की चाहत रखने वाली महिलाओं को मैं सुझाव दूंगी कि फैमिली एंड कॅरियर में परफेक्ट मैनेजमेंट बिठाएं।’ बतौर जियोसैट प्रोग्राम डायरेक्टर, इसरो सैटेलाइट सेंटर में अनुराधा की जिम्मेदारी जियो सिंक्रो नस सैटेलाइट पर कार्य करना है। इन्हें सूर्य की परिधि में एक विशिष्ट शैली में रखना होता है। दूरसंचार और डाटा लिंक के संबंध में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नौ साल की छोटी उम्र में उन्हें नील ऑर्मस्ट्रांग के सपने आते थे। मातृभाषा कन्नड़ में उन्होंने कविता के जरिए नील को अपनी कल्पना को साकार भी किया।

दुनिया भौंचक्की रह गई
ललितांबिका वी.आर., त्रिवेंद्रम
हाल ही में पीएसएलवी राकेट के जरिए 104 सैटेलाइट्स के सफल प्रक्षेपण के चुनौतीपूर्ण कार्य को उनकी टीम ने मिलकर अंजाम दिया। उनकी इस उपलब्धि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। यह काम बेहद चुनौतीपूर्ण था। एक लां ग व्हीकल (पीएसएलवी) से 104 सैटेलाइट को एकसाथ लांच करते समय उन्हें इस बात का भी ख्याल रखना था कि वे आपस में टकराएं नहीं। इसके लिए धरती से करीब 506 किमी की ऊंचाई पर पहुंचकर पीएसएलवी से सभी सेटेलाइट्स को अलग-अलग समय, एंगल और वेग से अलग किया जाना तय किया गया। इसके लिए कंप्यूटर पर अनेक बार संभावित खतरों व मौसमी परिस्थितियों को परखा गया, ताकि गलती होने की कोई गुंजाइश न रहे। ललितांबिका कहती हैं कि इसरो के साथ काम करने में असीम संतुष्टि मिलती है, क्योंकि यहां सभी नए विचारों का स्वागत किया जाता है। जूनियर भी अपने आइडियाज और कंसर्न शेयर कर सकते हैं। हर मिशन की सफलता टीमवर्क का नतीजा होती है। इसमें किसी का अहम आडे़ नहीं आता।’

हर चुनौती के लिए तैयार
कीर्ति फौजदार, ̧मध्यप्रदेश
बीटेक करने के बाद जॉब के लिए प्रयास किया। जॉब मिली पर उसकी ज्वाइनिंग डेट के बीच पिता के किसी दोस्त ने इसरो में आवेदन करने की सलाह दी। कीर्ति ने आवेदन दिया, पर आश्वस्त नहीं थीं, क्योंकि अपेक्षाकृत उनके कम अंक थे, पर आज कीर्ति इसरो में उस टीम का हिस्सा हैं, जो सैटेलाइट और अन्य मिशन को मॉनीटर करती है। कीर्ति के मुताबिक, ‘अभी यहां लंबी दूरी तय करनी है।’ उनके पिता आर सी जैन के मुताबिक ‘वह खुद को चैलेंज देती रहती हैं। दसवीं तक हिंदी माध्यम से पढ़ीं, पर जब अहसास हुआ कि अंग्रेजी माध्यम से वह ज्यादा बेहतर लक्ष्य प्राप्त कर सकती है तो हमारे मना करने के बाद भी अंग्रेजी माध्यम अपनाया और आगे की पढ़ाई अंग्रेजी में की। कीर्ति तीन बहनों में सबसे बड़ी हैं, पर अब वह न केवल अपनी दोनों छोटी बहनों की प्रेरणा हैं, बल्कि उन सभी लड़कियों की आदर्श भी हैं, जो बड़े लक्ष्य पाने की जिद रखती हैं।’

शर्त है काबिल बनो
सीता एस. चेन्नई
इसरो में प्रोग्राम डायरेक्टर के रूप में कार्यरत सीता एस कहती हैं, ‘ मुझे उपकरणों से खेलना पसंद है, इसलिए मैंने इसरो में चैलेंजिंग कॅरियर को चुना। यहां आपको विभिन्न चुनौतीपूर्ण प्रोजेक्ट के विभिन्न कार्यक्षेत्र जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, विभिन्न मिशन के लिए सॉफ्टवेयर डिजाइन करने का मौका मिलता है, उसके लिए बस शर्त एक ही है कि आपमें काबिलियत होनी चाहिए।’ आईआईटी बेंगलुरू से इलेक्ट्रॉनिक्स में मास्टर करने के बाद उन्होंने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से एस्ट्रोनॉमी में पीएचडी किया है। वह कहती हैं, ‘हम सब अलग-अलग तरह के उपग्रहों के लिए पेलोड बनाते हैं। यह काम जितना रोमांचक है उतना ही चुनौतीपूर्ण भी। आपको बहुत परफेक्ट आंकड़े जुटाने होते हैं जो बहुत मुश्किल काम है, पर मैं इसे खुशी से करती हूं।’ सीता और उनकी टीम के सामने अब चंद्रमा से संबंधित महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट हैं- चंद्रयान 2 ( चांद पर भारत का दूसरा मिशन) और आदित्य (चंद्रमा का अध्ययन करने वाला सैटेलाइट) ।

आसमान से ऊंचे सपने
रितु करिधल, लखनऊ
चांद का आकार क्यों घटता-बढ़ता रहता है। उसमें काले धब्बे क्यों होते हैं? ऐसे सवालों से खेलने वाली रितु करिधल को अखबारों से अंतरिक्ष विज्ञान के बारे में जानकारी जुटाने का शौक था। पीजी करने के बाद उन्होंने इसरो में जॉब के लिए आवेदन दिया और उनकी वैज्ञानिक बनने के लिए बचपन से की गई मेहनत रंग लाई। बतौर डिप्टी ऑपरेशंस डायरेक्टर ( मार्स ऑरबिटर मिशन) रितु ने भारत के मार्स मिशन में अहम भूमिका निभाई। उन्हें मंगलयान के मशीनी मस्तिष्क को इस प्रकार डिजाइन करना था कि कोई खराबी आने पर वह स्वत: उसे ठीक कर सके। लखनऊ में जन्मी व वहीं पली-बढ़ीं रितु अपनी कामयाबी को घर से लेकर कार्यस्थल तक टीम प्रयास का फल मानती हैं। वह कहती हैं, मैं दो बच्चों की मां हूं। मार्स मिशन को सफल बनाना चुनौती थी। मुझे याद है मार्स मिशन के अंतिम दस मीह का वह अथक परिश्रम। मैं बच्चों को स्कूल से मिला होमवर्क करवाती और फिर आधी रात से ही अपने काम पर जुट जाती थी। काम को लेकर हमारी टीम में इतना जुनून था कि हम दिन और रात भी भूल गए थे। अंतत: मेहनत सफल हुई। उन कठिन व चुनौतीपूर्ण पलों में पति और परिवार ने मुझे संबंल दिया।’ अक्सर यह कहा जाता है ‘ मेंस आर फ्रॉम मार्स ऐंड वुमन आर फ्रॉम वीनस’, लेकिन भारत के मार्स मिशन की सफलता के बाद अब बहुत से लोग भारत की महिला वैज्ञानिकों के संदर्भ में यह कहने लगे हैं कि वुमन आर फ्रॉम मार्स। रितु कहती हैं, ‘आई एम फ्रॉम अर्थ। मैं एक भारतीय महिला हूं, जिसे बेहतरीन मौका मिला है। देश के लिए हमें अभी बहुत कुछ करना है जिससे हमारे काम का लाभ अंतिम आदमी तक मिल सके।’

उपग्रह होते हैं हमारे बच्चे
मीनल रोहित, अहमदाबाद
इलेक्ट्रॉनिक्स ऐंड कम्युनिकेशंस में बीटेक करने के बाद 1999 में इसरो में दाखिल होने के बाद मीनल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। टीवी पर उपग्रहों को उड़ान भरते देखना उन्हें बचपन से ही रोमांचित करता था। डेंटल कॉलेज में दाखिला मिलने में मात्र एक नंबर से वे चूक गईं थी और आज इसरो उनका ठिकाना है। वे उपग्रहों को छोटा बच्चा समझती हैं जिन्हें सही सलामत पहुंचाया जाना जरूरी है। उनके सामने चांद पर भारत के दूसरे मिशन चंद्रयान 2 के कुछ इंस्ट्रूमेट्स तैयार करने की चुनौती है। इसके साथ ही वह एक अन्य सैटेलाइट को रिप्लेस करने वाले इनसैट 3डीएस सैटेलाइट का मेट्रोलॉजिकल पेलोड तैयार करने में जुटी हैं। वह कहती हैं, ‘इसरो में काम करने का अनुभव नायाब है। सबसे अधिक सुखद है यहां पर होने वाली उत्साहपूर्ण चर्चाएं और टीम के हर सदस्य का एक-दूसरे के प्रति सहयोगपूर्ण रवैया।’
नंदिनी हरिनाथ, एन. वलारमती, मोमिता दास, टेसी थॉमस, प्रमोदा हेगड़े... आसमां को चीरते नाम और भी हैं, पर संकल्प एक ही, ‘आगे बढ़ो और दुनिया बदलो!

इंडियन अकेडमी ऑफ साइंसेज ऑफ नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी की 2010 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, विज्ञान में शोधरत 14 प्रतिशत से अधिक महिलाओं ने शादी नहीं की है। वही जो पुरुष अविवाहित हैं उनकी संख्या 2.5 है। यह तस्वीर बताती है कि महिलाएं कितने समझौतों और समाज में परंपरागत रवैयों को झेलते हुए टॉप पदों पर पहुंचती हैं।

-संगिनी फीचर

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