जल्द ही माइक्रोबोयिल मीट से जंगलों को बचाने में मिलेगी मदद
नॉन-वेज की बढ़ती मांग की वजह से जंगल कम होते जा रहे हैं। इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी बढ़ोतरी हो रही है। एक नई रिसर्च के तहत माइक्रोबोयिल मीट जंगलों को बचाने में मदद कर सकता है। वह स्वाद और बनावट में बिल्कुल असली मीट जैसा ही है।
पॉट्सडैम (जर्मनी), एएनआई। वैज्ञानिकों ने नॉन-वेज खाने वाले लोगों के लिए माइक्रोबियल प्रोटीन युक्त मीट बनाया है। इस मीट की खास बात यह है कि इससे 2050 तक जंगलों की कटाई को आधा किया जा सकता है। दरअसल, मांसाहार की बढ़ती मांग से जंगल घट रहे हैं और इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी बढ़ोतरी हो रही है। पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च का यह नया विश्लेषण प्रकाशित हुआ है। इसके तहत, बाजार के लिए जो मांस तैयार किया गया है, वह स्वाद और बनावट में बिल्कुल असली मीट जैसा ही है। लेकिन यह एक बायोटेक उत्पाद है और यह बीफ का बेहतरीन विकल्प हो सकता है। इस बायोटेक मीट से भूमि संसाधन और कृषि का बहुत कम उपयोग होगा और इसे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी कमी आएगी।
पीआइके के एक शोधकर्ता और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक फ्लोरियन हम्पेनोडर ने कहा, खाद्य प्रणाली (फूड सिस्टम) वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का तीसरा सबसे बड़ा कारक है। इसमें जुगाली करने वाले पशुओं का मांस का उत्पादन सबसे बड़ा स्रोत है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिक से अधिक वन मवेशियों को चराने या उसके चारे को उगाने के लिए और पशु कृषि से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण बहुत सारे कार्बन को जमा कर लेते हैं। इसका समाधान मौजूदा जैव प्रौद्योगिकी हो सकता है। कवक से बिल्कुल मांस के बनावट और स्वाद वाले पोषक प्रोटीनयुक्त बायोमास को बनाया जा सकता है, जिसे, वैज्ञानिक माइक्रोबियल प्रोटीन भी कहते हैं।
हम्पेनोडर ने कहा, जुगाली करने वाले मांस का यदि विकल्प मिलता है और उसकी जगह प्रोटीन वाला माइक्रोबोयिल मीट लेता है, तो इससे भविष्य में खाद्य प्रणाली से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी कम किया जा सकता है।
उन्होंने कहा, "अच्छी खबर यह है कि मांसाहार करने वाले लोगों को इस बात से डरने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है कि वे भविष्य में सिर्फ वेजिटेबल ही खा सकेंगे। वे लगातार बर्गर खा सकते हैं और उनके लिए माइक्रोबोयिल मीट बिल्कुल वैसा ही होगा, जैसे अलग-अलग बर्गर पैटी को अलग-अलग तरह से तैयार किया जाता है। यही नहीं, रेड मीट को भी माइक्रोबोयिल प्रोटीन वाले मीट में तब्दील किया जा सकता है।
जर्मनी और स्वीडन के शोधकर्ताओं की टीम ने एकल उत्पादों के स्तर पर पिछले शोधों के विपरीत संपूर्ण खाद्य और कृषि प्रणाली के संदंर्भ में पर्यावरणीय प्रभावों का पता लगाने के लिए एक कम्प्यूटर सिमुलेशन मॉडल में माइक्रोबियल प्रोटीन को शामिल किया है। दुनिया में लगातार बढ़ रही जनसंख्या, भोजन की मांग, आहार पैटर्न, भूमि उपयोग और कृषि में गतिशीलता को देखते हुए ये शोध किए जा रहे हैं। दरअसल, माना जा रहा है कि भविष्य मांसाहार की खपत में वृद्धि जारी रहेगी। इस कारण ज्यादा से ज्यादा जंगल, गैर-वन प्राकृतिक वनस्पति और फसल पर इसका असर पड़ेगा।
हम्पेनोडर ने कहा, हमने पाया कि अगर हम 2050 तक प्रति व्यक्ति जुगाली करने वाले पशुओं के मांस के 20 प्रतिशत को प्रतिस्थापित करते हैं, तो वार्षिक वनों की कटाई और भूमि-उपयोग परिवर्तन से कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जन व्यवसाय-सामान्य परिदृश्य की तुलना में आधा हो जाएगा।
उन्होंने कहा, मवेशियों की कम संख्या न सिर्फ भूमि पर दबाव को कम करती है, बल्कि मवेशियों के पेट से मीथेन उत्सर्जन और उर्वरक फीड या फिर खाद प्रबंधन से नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन को भी कम करती है। इस कारण रेड मीट को अगर हम माइक्रोबोइल प्रोटीन मीट में बदलते हैैं जो यह वर्तमान में बीफ उत्पादक के हानिकारक प्रभावों को कम करने के लिए एक अच्छी शुरुआत होगी। यही नहीं, माइक्रोबियल प्रोटीन को कृषि उत्पादन से अलग किया जा सकता है।
1) इस तरह से बनता है माइक्रोबियल मीट
सह-लेखक और पीआइके के एक शोधकर्ता इसाबेल वेइंडल ने कहा, माइक्रोबियल प्रोटीन मीट बिल्कुल उसी तरह से बनाया जाता है, जैसे बीयर या ब्रेड बनाई जाती है। माइक्रोबीस में शुगर होती है और इसे एक निर्धारित तापमान पर बहुत सारे प्रोटीन युक्त प्रोडेक्ट मिलाकर रखा जाता है। इससे ऐसा लगता है कि जैसे आप वास्तविक प्रोटीन युक्त रेड मीट का स्वाद ले रहे हैं।
2) कब हुई शुरुआत
इस मीट को सदियों पुराने फर्मेन्टेशन के तरीके से बनाया जाता है। इसे 1980 के दशक में विकसित किया गया था। लेकिन अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने 2002 में माइक्रोबियल प्रोटीन मांस को सुरक्षित विकल्प के रूप में हरी झंडी दी।