धक्के से स्टार्ट हुई फिल्मों की गाड़ी : सैफ अली खान
‘रंगून’ के लिए प्रशंसा बटोर रहे सैफ अली खान अब ‘काला कांडी’ में दिखाएंगे अभिनय के रंग। अपनी जिंदगी और कॅरियर के पन्नों को उन्होंने पलटा अमित कर्ण के सामने...
नाम तैमूर रखने के पीछे इरादा क्या था?
इरादा किसी को ठेस पहुंचाने का तो कतई नहीं था। यह नाम मैं बचपन से सुनता आ रहा हूं। मेरे परिवार में दो लोगों के यही नाम हैं। तब तो किसी को ऐतराज नहीं हुआ था, जब मैंने रखा तो बवाल हो गया? वैसे भी लोग जिस आक्रांता का हवाला दे रहे हैं, उसका नाम ‘तैमूर’ नहीं ‘टिमूर’ है। सो, मैं आश्वस्त हूं कि कुछ गलत नहीं किया है।
आप टिपिकल सितारों की तरह फिक्रमंद नहीं दिखते।
ट्वीटर अकाउंट तक नहीं है आपका। फिल्में आपकी जिंदगी में कितनी जगह रखती हैं?
मायने तो रखती हैं। जब मैं दिल्ली में बड़ा हो रहा था, तब मनोरंजन का यही माध्यम था। अब इसे जॉब की तरह लेता हूं। आसक्त नहीं हूं। ऐसा इसलिए कि पिछले 25 सालों से फिल्में ही सांसों में घुली हुई थीं। अब ख्वाहिश होती है कि दुनिया देखें, अच्छा पढें, खाएं। दूसरों की जिंदगी में क्या हो रहा है, वह जानें। एक जमाना था, जब फिल्मों के बारे में इंटेंस डिबेट चलती रहती थी। अब ऐसा नहीं चाहता। मेरे मां-बाप ने कभी घर आकर कॅरियर की चुनौतियां डिस्कस नहीं कीं। मैं और करीना भी वैसे ही हैं। ऐसा होना बहुत जरूरी है। नहीं तो, एक उम्र के बाद आपसे बातें करने वाला कोई पास नहीं होगा, क्योंकि आपके पास तो सिर्फ अपने कॅरियर की ही बातें हैं। कॅरियर की बातें 30 तक सही हैं। मुझ जैसे 46 वालों को इनसे परहेज करना चाहिए।
अगर जिंदगी के बीते अध्यायों को फिर से पलटने को कहा जाए तो किन सुनहरे पलों पर फख्र होगा?
मुझसे ज्यादा मेरे अब्बा का सफरनामा प्रेरक रहा है। वे बहुत अच्छे स्टूडेंट थे। बड़े अच्छे क्रिकेटर थे। बहुत नेकदिल और दूसरों का भला सोचने वाले थे। जब साठ साल की उम्र में गुजरे तो बहुत इज्जत मिली उन्हें। दूसरी तरफ मैं स्कूल में लेजी बच्चा था। फिल्मों में भी ‘धक्का-स्टार्ट’ शुरुआत हुई थी। 30 पार करने के बाद ‘दिल चाहता है’ से जिंदगी सेटल हुई। आज मैं खुश हूं। जो मैंने निवेश किए, वे अब फल दे रहे हैं। बच्चे बड़े हुए। सोच गहरी हुई। अतीत को लेकर मन में कोई मलाल नहीं है।
सारा और इब्राहिम के साथ किस तरह के रिश्ते हैं? सारा से तो फिल्मों की ही बातें होती होंगी। इब्राहिम ने क्रिकेट में जाने की दिलचस्पी नहीं दिखाई कभी?
जी हां, सारा बड़ी हो चुकी हैं। वे 21-22 की हैं। वे फिल्मों में कदम रख रही हैं तो इन दिनों सिर्फ फिल्मों पर बातें हो रही हैं। नतीजतन, वे जरा नर्वस चल रही हैं। परफॉर्मेंस बेहतर करने को लेकर। सुबह-शाम मुझसे सलाह लेती रहती हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए। मैं उन्हें यही समझा रहा हूं कि वे खुद पर ध्यान केंद्रित करें। एक आर्टिस्ट की तरह सोचें। दूसरे क्या कर रहे हैं, इसकी चिंता छोड़ें। सारा मेरी दोस्त जैसी भी हैं क्योंकि हम दोनों की उम्र का फासला बहुत ज्यादा नहीं है। इब्राहिम इन दिनों इंग्लैंड में हैं। हॉकी और रग्बी उन्हें पसंद है। क्रिकेट में प्रतिस्पर्धा बहुत है। यह ठीक उसी तरह है, जैसे साउथ अमेरिका में फुटबॉल खेलना।
विशाल भारद्वाज के साथ आपकी एक दशक बाद वापसी हुई। इस देरी की कोई खास वजह?
‘रंगून’ तो वे ‘ओमकारा’ के बाद ही मेरे साथ बनाना चाहते थे। मगर उस वक्त बनती तो यह समय से आगे की फिल्म होती। वॉर फिल्म में वीएफएक्स की भी दरकार होती है। तब ऐसी फिल्म बन नहीं पाती। उन्होंने मुझे ‘कमीने’ भी ऑफर की थी, मगर मैं नहीं कर पाया। एक ‘ड्रीम सीक्वेंस’ स्क्रिप्ट थी। वह भी मैंने मना की थी। आगे से मैं उन्हें बिल्कुल मना नहीं करने वाला। उनकी हर फिल्म करूंगा।
‘देल्ही बेली’ वाले अक्षत वर्मा की ‘काला कांडी’ में आपको किस तरह पेश किया गया है?
खुशकिस्मत हूं कि बीते दो साल मेरे लिए बहुत अच्छे नहीं रहे, फिर भी फिल्मकारों का मुझमें यकीन कम नहीं हुआ। इस फिल्म के लिए मैं अक्षत की पहली पसंद था। ‘काला कांडी’ एक अलग किस्म की फिल्म है। मुंबई पर एक टेक है। यह बड़ा अनूठा शहर है। मैं आपसे हिंदी में बातें कर रहा हूं। अपनी मैनेजर से अंग्रेजी में करता हूं। किचेन में कुक व हेल्पर संग नेपाली इस्तेमाल करने लगता हूं। बहरहाल मैं फिल्म में इनवेस्टमेंट बैंकर बना हूं। उसे एक दिन पता चलता है कि वह गंभीर बीमारी से ग्रस्त है। उसकी जिंदगी के महज चंद दिन बचे हैं। वह डिसाइड करता है कि शेष बचे दिन वह एंजॉय करेगा। इसी बीच एक मिडिल क्लास लड़की उसकी जिंदगी में आती है। मुंबई के दो सड़कछाप गुंडे उससे टकराते हैं। फिर जिंदगी मुंबई की गलियों और चौक-चौबारों से होते हुए क्या मोड़ लेती है, यह उस बारे में है।
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