कविता: कभी आना हमारे गांव रे बंधु!
बची न थोड़ी छांव रे बंधु! कभी आना हमारे गांव रे बंधु
बची न थोड़ी छांव रे बंधु!
कभी आना हमारे गांव रे बंधु
न बैल बचे न गायों के झुंड
सांझ न गरद उड़ाती आती
गलियों के मुंह संकरे-संकने
एक बात पर सौ-सौ नखरें
सबके आसमान में पांव रे बंधु!
कभी आना हमारे गांव रे बंधु!
मोटियारों की भीड़ बहुत हैं
राजनीति के गोत्र बहुत हैं
आठों पहर हैं मुंह में गुटखा
मोबाइल का हाथ में खटका
सब कोरी कांव-कांव रे बंधु!
कभी आना हमारे गांव रे बंधु!
कुएंकूड़ेदान हुए सब
सूखा पड़ा हुआ तालाब
क्षरित हुई खेतों की काया
गहरे नलकूपों की माया
कैसे चलती रेत में नाव रे बंधु!
कभी आना हमारे गांव रे बंधु!
घर में पेट जितने गेंहू बोएं
लहसुन की आभा में खोएं
अलसी धनिया का अब हेरा
उठा खेत से सौरभ-डेरा
इस धरती के गहरे घाव रे बंधु !
कभी आना हमारे गांव रे बंधु!
माटी, बेटी, साहूकार का
हमको कर्ज चुकाकर जाना
खुद की परछाईं से आगे
सूद सीढिय़ांनभ को नापे
बैंक-आगे चले न कोई दांव रे बंधु!
कभी आना हमारे गांव रे बंधु!
(ज्ञानपीठ और साहित्य
अकादमी द्वारा पुरस्कृत युवा कवि)
3ए-26 महावीर नगर तृतीय, कोटा
ओम नागर
क्षणिका
चुप है हवा
जीवन देती।
खामोश हैं फूल
नियामत बिखेरते।
मौन है धरती
मेरा बोझ ढोती।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
धरोहर
कोयलें उदास, मगर फिर-फिर वे गाएंगी
नए-नए चिन्हों से राहें भर जाएंगी
खुलने दो कलियों की ठिठुरी ये मुट्ठियां
माथे पर नई-नई सुबहें मुसकाएंगी
गगन-नयन फिर-फिर होंगे भरे
पात झरे। पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे।
ठाकुर प्रसाद सिंह