हनुमान जन्मोत्सव पर विशेषः ...नहिं कोउ राम चरन अनुरागी
हनुमान जी उन बड़भागियों में गिने जाते हैं जिनके हृदय की प्रीति और सेवा भावना की प्रशंसा बार-बार भगवान श्रीराम अपने श्रीमुख से करते हैं। हनुमान जी वह कार्य करते हैं जो भगवान चाहते हैं और दूर रहकर भी वे वही कार्य करते हैं जो वे संकल्प करते हैं।...
नई दिल्ली, संत मैथिलीशरण। स्वावलंबन न केवल हमारी आवश्यकता है, अपितु हमारा सारा अस्तित्त्व ही स्वावलंबी होने में ही है। ईश्वर के प्रति निष्ठा और भ1ित ही ईश्वर पर विश्वास का प्रमाण है। निष्ठावान व्य1ित दूसरे से कुछ नहीं चाहता है, अपितु जो उसको प्राप्त है, मात्र वह उसी का उपयोग करके शिरोमणि हो जाता है। यही तो हनुमान जी का स्वावलंबन है।
कवनेउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन कि भव भय नासा।। बिनु बिस्वास भगति नहिं, तेहि बिनु द्रवहिं न राम।
राम कृपा बिनु सपनेहु जीव न लह विश्राम।।
चूंकि हनुमान जी में भ1ित का स्वावलंबन था, इसलिए उन्हें रावण के समक्ष युद्ध के बाह्य साधन जुटाने नहीं पड़े, अपितु लंका जलाने और राक्षसों को नष्ट करने के सारे साधन हनुमान जी को लंका में ही मिल गये। हनुमान जी ने रावण की जिस वाटिका के फल खाये थे, उन्हीं वृक्षों की डालियों और तनों से उन्होंने राक्षसों का वध कर दिया। वस्तुत: साधक के जीवन में भगवद्विश्वास ही वह पुरुषार्थ है, जिससे वह संसार की सारी उपलब्धियों को प्राप्त कर सकता है। हनुमान जी में शुद्ध सतोगुण है, अंगद जी में रजोगुण मिश्रित सत्वगुण है और सुग्रीव में तमोगुण, रजोगुण मिला हुआ सतोगुण है। इसलिए क्रमश: सुग्रीव, अंगद और हनुमान जी के स्वरूप में यह साधना का क्रमिक विकास है, जिसमें हनुमान जी सर्वोपरि हैं और अंगद व सुग्रीव के अवलंब हनुमान जी हैं, जबकि हनुमान जी में स्वावलंबन का आधार मात्र केवल एक राम हैं, जो अद्वितीय हैं। हनुमान जी की निष्ठा में द्वितीय का प्रवेश नहीं है। इंद्र का वज्र प्रहार, जिन्होंने अपनी (हनु) ठोड़ी पर ले लिया, ऐसी विनम्रता कि जो प्रहार करने वाले का भी मान रखें, उन्हीं को हनुमान कहते हैं। श्रीराम के किसी कार्य की पूर्णता बिना हनुमान जी के संभव नहीं होती है। कर्म की गुफा में मय दानव के पुत्र मायावी को हराकर अंगद के पिता बालि जीत जाते हैं, जो उनको विजयी होने के उस अभिमान अंधत्त्व की अंधेरी गुफा में ले जाती है, जहां पहुंचकर बालि को भगवान की तुलना में भी अपना बल अधिक लगने लगा। भगवान के शरणागत सुग्रीव को मार देने की भावना के कारण बालि अपने ही अहंकार से स्वयं को नष्ट करने का उपादान बना देता है, पर हनुमान जी ऐसे विनयी हैं कि जो संभव को असंभव और असंभव को संभव कर देने की क्षमता रखते हुए भी कभी कर्माभिमान की गुफा में न घुसकर स्वयंप्रभा की उस कृपा की गुफा में प्रवेश करते हैं, जहां बाहर से तो अंधकार है, पर अंदर केवल प्रकाश ही प्रकाश है। जहां प्रकाश के लिए किसी बाह्य साधन की तनिक आवश्यकता नहीं है। सारे बंदरों के प्राणों की रक्षा करके हनुमान जी भगवान के नाम की मुद्रिका के परम प्रकाश में यात्रा करके परम ज्योति स्वरूप श्रीसीता जी की कृपा प्राप्त करते हैं। रामायण में हनुमान जी ही एक ऐसे परम भ1त हैं, जिनको भगवान बार-बार देखते हैं :
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलकि अति गाता।। भगवान का कृपा कर अपने प्रिय हनु को देखना ही हनुमान जी का स्वावलंबन बन गया, क्योंकि भगवान जिसको एक बार कृपा दृष्टि से निहार लेते हैं, उसके लिए तो सुमेरु पर्वत रजकण की तरह, विष अमृत की तरह और शत्रु मित्र की तरह हो जाता है। संसार रूपी भवसागर उसके लिए मात्र उतना ही रह जाता है, जैसे गाय के खुर से जमीन पर गड्ढा बनता है। इसी कारण तो हनुमान जी समुद्र को पार कर गये, क्योंकि :
गरुण सुमेरु रेनु सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही।।
समुद्र के द्वारा सुमेरु पर्वत के रूप में अनुकूल बाधा, सुरसा, सिंहिका और लंकिनी के रूप में प्रतिकूल बाधाएं हनुमान जी को किंचित मात्र भी हानि नहीं पहुंचा सकीं। साधक कृपा की व्याख्या जब स्वयं करता है, तब वह भगवद्विश्वासी नहीं कहलाता है, अपितु जैसा हो, उसी में कृपा को देखना भ1ित है। हनुमान जी के मन में न जाने कितने संकल्प-विकल्प आये, पर उन्होंने अपनी श1ित और बल को भगवान की कृपा का विकल्प नहीं बनाया, स्वयं के अंदर सारी श1ित होते हुए भी रावण की सभा में बंधकर जाना, राक्षसों का अपमान सहना, श्रीराम के कृपापात्र में ऐसा स्वावलंबन तो अभूतपूर्व ही दिखा। समुद्र के किनारे अंगद ने जब यह कहा कि मैं लंका तक जा तो सकता हूं, पर लौटकर आ पाऊंगा या नहीं, इसमें मुझे संदेह है। भौतिकविज्ञानी अंगद के इस मत को अविवेकपूर्ण मान सकता है, पर हमारी जो आध्यात्मिक सनातन परंपरा है, वह यह है कि यह संसार प्रवृत्ति का दुर्ग है। संसार के दुर्ग में विकास के नाम पर सब घुसते जा रहे हैं, पर लौटकर कोई नहीं आ पा रहा है। इसका तात्पर्य है कि व्य1ित देहाभिमान के इस समुद्र को किसी तरह पार तो कर लेता है, पर लंका में प्रवेश करने के बाद वहां के भौतिक आकर्षणों से कौन बच पाता है :
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप वापीं सोहहीं।।
संसार में न जाने कितने लोग शांति, भ1ित और श1ित स्वरूपा सीता को पाने के लिए सारा घर-बार छोड़कर निकल पड़ते हैं, पर लंका के प्रवृत्ति दुर्ग में जाकर ऐसे फंसते हैं कि पुन: अपने मूल राम में आकर नहीं मिल पाते हैं। वहां तो हनुमान जी जैसा कोई भ1त, अनास1त, साधक ही जाकर सीता जी तक पहुंचकर श्रीराम के उन कार्यों को कर पाता है, जो राम की लीला का अंग बन सकें। मार्ग में समय-समय पर बार-बार हनुमान जी विचार का आश्रय लेते हैं। हनुमान जी महाराज उन बड़भागियों में गिने जाते हैं, जिनके ह्ददय की प्रीति और सेवा भावना की प्रशंसा बार-बार भगवान अपने श्रीमुख से करते हैं। भगवान के आदर्शों की सेवा मुख्य रूप से श्रीभरत करते हैं और भगवान के श्रीविग्रह की निज सेवा श्रीलक्ष्मण करते हैं, पर इतने बड़े सेवकों में भी एक बड़ा अंतर यह है कि लक्ष्मण जी भरत जी का कार्य नहीं कर सकते हैं और भरत जी श्रीलक्ष्मण की भूमिका पूरी नहीं कर सकते हैं। भरत राम के अस्त्र हैं और लक्ष्मण राम के शस्त्र हैं, पर हनुमान जी ऐसे हैं, जो अस्त्र भी हैं और शस्त्र भी। दूर जाकर लक्ष्यभेद करना अस्त्र का कार्य है और पास में रहकर प्रहार करना शस्त्र का कार्य होता है। हनुमान जी भगवान के पास रहकर वह कार्य करते हैं, जो भगवान चाहते हैं और दूर रहकर भी वे वही कार्य करते हैं जो भगवान के संकल्प में पहले आ जाता है। रामराज्य के बाद प्रभु थक कर आम की वाटिका में विश्राम करने चले गये, भरत जी ने अपना पीतांबर बिछा दिया, ताकि प्रभु उस पर लेट जाएं। भरत जी, लक्ष्मण जी तथा शत्रुघ्न जी सब भाई मिलकर प्रभु की सेवा करने लगे। तब हनुमान जी के भावों की व्यापकता सामने आई। जब वे अचानक खड़े होकर भगवान को पंखा झलने लगे, भगवान के द्वारा पूछे जाने पर कि ऐसा क्यों कर रहे हैं, हनुमान जी ने कहा, प्रभु, अभी तक मैंने सबकी एक-एक करके सेवा की, पर आज मैं यह सुअवसर कैसे छोड़ सकता हूं, जब आप अपने संपूर्ण चतुव्र्यूह रूप शंख, चक्र, गदा और पद्म सबके साथ पूर्ण रूप में विराजमान हैं तो आज तो मुझे सब भाइयों की एक साथ सेवा मिली है और पंखे के अलावा और कोई ऐसी सेवा नहीं हो सकती है, जिसमें सबकी सेवा एक साथ हो जाये। तब शंकर जी ने पार्वती जी से कहा कि हनुमान से बढ़कर कोई और भाग्यशाली नहीं हो सकता, जिनकी भावना, विचार, बल, पराक्रम और प्रेम की प्रशंसा स्वयं भगवान करते नहीं अघाते हैं :
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार बार प्रभु निज मुख गाई।।
संत मैथिलीशरण
रामकथा मर्मज्ञ व संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन