आंसू या हंसी दोनों असली
महान फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी का जन्म कोलकाता में 30 सितंबर 1922 को हुआ था। हम उनके जन्मशती वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। यह समय है कि उनकी फिल्मों को फिर से देखें और नई पीढ़ी को देखने के लिए प्रेरित करें। । विनोद अनुपम का आलेख...
पता नहीं, सच या झूठ, लेकिन कहा जाता था हृषिकेश मुखर्जी अपनी फिल्मों के ट्रायल शो में महिलाओं को अवश्य आमंत्रित करते थे, खासकर स्टूडियो के कामगारों के परिवार की महिलाओं को। उनकी निगाह महिलाओं के आंसुओं पर रहती थी। यदि फिल्म देखते हुए उनके आंसू निकल गए तो वे संतुष्ट हो जाते थे। वास्तव में बात सिर्फ महिलाओं की नहीं, ऐसा शायद ही कोई थोड़ी भी संवेदना रखने वाल व्यक्ति हो जिसकी आंखें 'आनंदÓ और 'मिलीÓ जैसी फिल्म देखते हुए गीली न हुई हो, यही क्यों हृषि दा का यह कमाल ही था कि 'बावर्चीÓ जैसी सुखांत फिल्म के साथ भी वे आंखें गीली कर देते थे।
संवेदना के साथ गढ़ी हंसने-मुस्कराने की कहानियां
सच तो यही है कि हृषिकेश मुखर्जी की 42 फिल्मों में से अधिकांश ने हमें रुलाया है, बावजूद हमने वे फिल्में बार-बार देखी। बार-बार रोए, बार-बार देखी। उस दौर के शायद ही कोई दर्शक इस बात से इन्कार करना चाहें कि हृषि दा की फिल्मों ने हमारी संवेदना को तरल बनाए रखने में अहम भूमिका अदा की। हम यदि थोड़े भले इंसान हैं, थोड़े अधिक ईमानदार हैं, थोड़े अधिक संवेदनशील हैं, तो इसलिए कि कहीं न कहीं हमने हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में देखी हैं। 'सत्यकामÓ तो हमने बचपन में देखी थी, लेकिन ईमानदारी की जो शिक्षा अवचेतन में घर कर गई, उसका प्रभाव कभी धूमिल नहीं हो सका।
लेकिन यही हृषि दा जब 'चुपके चुपकेÓ और 'गोलमालÓ के साथ आए तो उनके दर्शकों के ठहाके नहीं रुके। यह हास्य कृत्रिम नहीं था। उन्हें पता था मध्यवर्ग यदि अपने दुखों के साथ जी रहा है तो इसलिए कि वह हंसना जानता है।उन्होंने हमारे जीवन से हास्य के पल ढूंढ़़ निकाले।उन्हें हास्य के लिए कभी किसी की कमजोरी को लक्ष्य करने की जरूरत नहीं पड़ी। उन्हें पता था कि मध्यवर्ग जिस समाज में सांसे ले रहा उसकी विद्रूपताएं ही उसे हंसाने के लिए पर्याप्त हैं।
परिवार की ताकत की सिनेमाई अभिव्यकि्त
हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों की सबसे बड़ी ताकत परिवार था। 1960 में आयी अनुराधा से लेकर अंतिम फिल्म झूठ बोले कौआ काटे तक परिवार एक पात्र की तरह उनकी हर फिल्म में उपस्थित रहा है। परिवार मतलब बुजुर्ग, युवा, महिलाएं, बच्चे। परिवार मतलब रिश्ते, मित्र, पड़ोसी यहां तक कि पेड़ पौधे भी। खास यह कि हृषि दा के परिवार में द्वंद्व दिखता था, दुश्मनी नहीं, परिवार में रहने वाले किसी व्यक्ति के बहुत बुरे हो जाने को वे शायद कभी परिकल्पित ही नहीं कर पाए।
हृषिकेश मुखर्जी मध्यवर्गीय परिवार से आए थे, मध्यवर्ग को वे जानते थे, आश्चर्य नहीं कि जिंदगी भर उन्होंने मध्यवर्ग की ही कहानियां कहीं। किसी भी क्रांतिकारिता के दबाव में उन्होंने कभी भी अपने विषय नहीं बदले। मजदूर ,किसान, शोषण, हत्या उनकी कहानियों में कभी स्थान नहीं बना सके। शायद छद्म उन्हें स्वीकार नहीं था, ना जीवन में, ना सिनेमा में। वे मध्यवर्ग से ही कहानियां लाते, फिर उसे उसी सहजता से प्रस्तुत करते। उन्होंने अपनी फिल्मों से इस भ्रम को साफ किया कि जीवन में सब कुछ अर्थ ही निर्धारित करता है।
बिमल राय का मिला साथ
हृषिकेश मुखर्जी मूलत: विज्ञान के विद्यार्थी थे। अपनी पढाई पूरी कर उन्होंने कालेज में विज्ञान पढ़ाने की शुरुआत भी कर दी थी, लेकिन उस दौर के सबसे बडे स्टूडियो न्यू थिएटर्स से उन्हें काम का आफर आया तो वे मना नहीं कर सके। यहीं इन्होंने एडिटिंग सीखी। फिर विमल राय के बुलावे पर मुंबई चले गए। विमल राय उस समय 'दो बीघा जमीनÓ बना रहे थे। पटकथा और संपादन की जवाबदेही हृषिकेश मुखर्जी को सौंपी गई और फिर इतिहास बनने की शुरुआत हो गई। हृषि दा का हाथ लगते ही फिल्म खास होने लगी,चाहे वह 'देवदासÓ हो,या 'मधुमतीÓ, लेकिन हृषि दा को तो अपनी कहानी, अपनी शैली में कहनी थी।
बतौर फिल्मकार पहली फिल्म को मिला राष्ट्रीय पुरस्कार
1957 में स्वतंत्र निर्देशक के रूप में इनकी पहली फिल्म आयी, 'मुसाफिरÓ,मुख्य भूमिका दिलीप कुमार ने निभाई थी। अपनी प्रस्तुति के नएपन के कारण फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया, हालांकि दर्शकों के लिए फिल्म की बिखरी कहानी को समेटना थोड़ा मुश्किल रहा, लेकिन इस फिल्म के पीछे निर्देशक की सिद्धहस्तता छिपी नहीं रह सकी। अगली ही फिल्म में राजकपूर इनके साथ काम करने तैयार हो गए,और 'अनाड़ीÓ जैसी क्लासिक फिल्म हिंदी सिनेमा को मिली। अमीर नायिका गरीब नायक के प्रेम की शाश्वत कथा को हृषि दा जिस सहजता से लेकर आए,दर्शकों ने भी सराहा और फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित भी हुई। वास्तव में हृषि दा की भारतीय समाज की संवेदना पर जो पकड थी,वह अनूठा था, उनके अपने पात्रों की डिटेलिंग देख आज भी आश्चर्य होता है। 'अनाडीÓ में मिसेज डीसा के लिए ललिता पवार का चयन वही कर सकते थे, क्या आश्चर्य कि हिंदी सिनेमा के लिए वह एक कालजयी चरित्र बन गया।
सितारों को जमीं पर उतार दिल में बिठाने का हुनर
हृषिकेश मुखर्जी बिमल राय के स्कूल से आए थे, बंगाल में ही नहीं भारतीय सिनेमा में सत्यजीत रे की धूम थी, लेकिन उन्होंने अपनी अलग राह पकड़ी, कहानी के स्तर पर भी और प्रस्तुति के स्तर पर भी। आज जब हिंदी सिनेमा कहानी के लिए बिसूरते दिखाई देती है, हृषि दा थोड़े ज्यादा ही याद आते है कितनी सारी कहानियां उन्होंने हमारे आम जीवन से उठायी थीं। 'मुसाफिरÓ से लेकर अनुराधा, अनुपमा, आशीर्वाद, सत्यकाम, गुड्डी, अभिमान और फिर चुपके चुपके, गोलमाल, खूबसूरत तक उन्होंने कभी अपनी फिल्म को मध्य-निम्न मध्यवर्ग से बाहर निकालने की कोशिश नहीं की। हर फिल्म कुछ नया कहती आयी। आश्चर्य नहीं कि अपने दौर के हर लोकप्रिय कलाकार, जिसे भी उन्होंने चाहा, उनकी फिल्मों में उनकी शर्त पर काम करने तैयार होते रहे और हृषि दा ने उन्हें अपने जीवन का श्रेष्ठ दिया भी। आज 'सत्यकामÓ के बगैर धर्मेन्द्र की चर्चा पूरी नहीं हो सकती। राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के करियर से हृषि दा को निकाल ही नहीं सकते। रेखा की पहचान ही 'खूबसूरतÓ से बनी। वास्तव में हृषि दा सितारों को जमीन पर उतार हमारे दिलों में बिठाने का हुनर जानते थे। हृषिकेश मुखर्जी अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता की घोषणा नहीं करते थे,यह उनके काम में दिखता था। निर्देशन से दूर होने के बाद भी उन्हें भारतीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष,नेशनल फिल्म डेवलेपमेंट कारपोरेशन के अध्यक्ष की जवाबदेही भारत सरकार द्वारा सौंपी गयी, तो उन्होंने पूरी सक्रियता उसे निभाया।