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किताबघर और मयूरपंख की अगली कड़ी में पढि़ए कथक और लोकधर्मी नाट्य रूपों पर आधारित किताबों की समीक्षा

कई मंदिरों शहरों और रियासतों के ब्यौरों को खंगालते हुए जो दिलचस्प स्थापनाएं सामने आई हैं वह शायद बिना इन जगहों से गुजरे हुए संभव नहीं थी। हर निबंध अपनी विशिष्ट दृष्टि में इन विधाओं को एक नए धरातल पर उन्मीलित करता है जिसकी अर्थध्वनि समवेत रूप में लोकधर्मी है।

By JagranEdited By: Aarti TiwariPublished: Sat, 24 Sep 2022 04:53 PM (IST)Updated: Sat, 24 Sep 2022 04:53 PM (IST)
किताबघर और मयूरपंख की अगली कड़ी में पढि़ए कथक और लोकधर्मी नाट्य रूपों पर आधारित किताबों की समीक्षा
‘कथक लोक: मंदिर, परंपरा और इतिहास’ व ‘लोकनाट्य की विरासत: नाचा, माच, नौटंकी’

किताबघर

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यतीन्द्र मिश्र।

यात्राओं में जुड़ता जाता कथिकों का गांव

कथक नृत्यांगना शोभना नारायण और कला-संस्कृति के लेखन में संलग्न गीतिका कलहा ने संयुक्त रूप से कथक नृत्य पर आधारित ‘कथक लोक: मंदिर, परंपरा और इतिहास’ जैसा सुरुचिपूर्ण ग्रंथ तैयार किया है। किताब की प्रामाणिकता इसी अर्थ में देखी जा सकती है कि पांच साल के गंभीर अध्ययन और उत्तर भारत में हजारों किलोमीटर की यात्रा करते हुए लेखिकाद्वय ने गांव-गांव जाकर कथक लोक के अभ्युदय का इतिहास बांचा है। इस प्रयास में मंदिरों में कथक के आने की घटना समेत वे तमाम बिंदु उकेरे गए हैं, जिन्हें अक्सर नृत्य पर लिखने वाले कला-समीक्षक नजरअंदाज करते हैं। शोभना नारायण इस बात के अभिलेखन के लिए संकल्पबद्ध रहीं कि कथक की ज्यामिति, उसकी संरचना और लोक से शास्त्रीयता के आंगन में आने की चुनौती कितनी रोमांचक रही है। शोध आधारित इस पुस्तक में कथक के पारंपरिक रसपूर्ण विश्लेषण की उपस्थिति से अलग, गहन बौद्धिकता के समवाय में इसका लेखन विस्तृत हुआ है। घरानों में जाकर समृद्ध होने वाली यह नृत्यकला किस तरह लोक और शास्त्र का अंतरालाप बनाती है, शोभना नारायण और गीतिका कलहा उसे छोटे-छोटे विमर्शों में ढूंढ़ने की कोशिश करती हैं। कोई भी कृति, विचार और एक नियत स्थापना को लेकर अपने कथ्य का निर्धारण करती है। यह युक्ति साहित्य से लेकर साहित्येतर विषयों पर आसानी से लागू होती रही है। बावजूद इसके, इस किताब में यह फर्क देख पाना कठिन है कि विषय की गंभीरता को लेखिकाओं ने उसके सहज प्रवाह में बढ़ने से रोका हो। अधिकतर ऐसे मौकों पर जब वे किसी सूत्र की थाह पाती हैं, तो उससे संबंधित दूसरा सिरा जोड़ने के लिए उनकी यात्रा नई दिशाओं की ओर प्रस्थान करने लगती है। इस तरह यात्राओं के माध्यम से कही जाने वाली कथक इतिहास की यह सांस्कृतिकी, रोचक और मजेदार बन जाती है। हम कह सकते हैं कि एक विशेष नृत्य विधा के इतिहास में उतरते हुए लेखिकाओं ने हर वह द्वार खटखटाने का प्रयास किया है, जो किसी अन्य लेखक के लिए शायद बहुत जरूरी न रहा हो, मगर इन्हीं राहों और संकरी गलियों से गुजरकर वे ऐसा कुछ नायाब ढूंढ़ लाई हैं, जो इस विषय के प्रवर्तन के लिए विमर्शकारी बन पड़ा है।

कथक की बुनियाद, शताब्दियों से धर्म और संस्कृति के प्रचार व संरक्षण में इसकी उपयोगिता, मंदिरों से लेकर राजदरबारों तक की मनोहारी यात्रा तथा गुरु घरानों और गांवों में बसने वाले कथिकों के पुरवों में इस विधा का जीवित रहना इस तर्क को आधार देता है कि एक परिमार्जित कला के शिखर तक पहुंचने की यात्रा में कितनी देशज उपलब्धियों का दाय मौजूद रहता है। पुस्तक का आरंभ ही इस प्रश्न से होता है- ‘क्या आप कथक गांव घूमने जा रहे हैं?’ तब यह बात स्वत: चरितार्थ होने लगती है कि लेखिकाएं सिर्फ इसके व्याकरण को लेकर शृंगार और लास्य, भक्ति और समर्पण, ततकार और गत-निकास तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वे उन सरकारी दस्तावेजों और धूल से भरी फाइलों को टटोलने में भी दिलचस्पी रखती हैं, जिसमें कथक ग्रामों, मजरों, मौजों के ब्यौरे न जाने कब से दर्ज होकर पीले पड़ चुके हैं। एक तरह का क्रानिकलर बनाते हुए शोभना नारायण और गीतिका कलहा इस बात को सुनिश्चित कर लेना चाहती हैं कि तथ्यों और तिथियों में उनकी शोध का आधार प्रामाणिक और सच्चाई के एकदम निकट मौजूद दिखाई पड़े। इस बात को महत्वपूर्ण सूचना के तौर पर लेना चाहिए कि लेखिकाएं कथक का इतिहास संजोते हुए लेखकों, संन्यासियों, कथावाचकों और धार्मिक पुरोहितों के भी साक्षात्कार करती हैं, जिनके पास इस कला से संबंधित कोई प्रमाण, कहानी, दस्तावेज या लोक-विश्वास में सुनी गई जनश्रुति मौजूद रही है।

किताब इसी अर्थ में मार्गदर्शी है कि वह सतह पर भ्रमण नहीं करती, बल्कि कथक को जीने वाले लोगों के बीच रमण करती है। कई दफा वे ऐसे साधारण लोगों के भी पास जाकर बैठती हैं, जिन्होंने कथक को भले खुद के लिए अंगीकार नहीं किया, मगर उसे समझने की ऐसी दृष्टि रखते रहे, जिसने पूरी योजना को नव्यता प्रदान कर दी। ऐसे में कथक गांवों के भू-अभिलेखों, नर्तकों के हस्तलिखित वंशवृक्षों, कथिकों के पारंपरिक प्रदर्शन और नवाचार समेत मंदिरों में कथक करने वालों की उन सूचियों को भी ध्यान में लिया गया है, जो कभी अपने पूर्वजों की परंपरा संभाले वहां नृत्यरत थे, मगर अब वह परंपरा छीज चुकी है। सैकड़ों मंदिरों, कई शहरों और ढेरों रियासतों के ब्यौरों को खंगालते हुए जो दिलचस्प स्थापनाएं इस किताब का हासिल बनी हैं, वह शायद बिना इन जगहों से गुजरे हुए संभव नहीं थी। किताब में अनुलग्नक के तौर पर जनगणना के आधार पर भी कथक गांवों के वर्गीकरण, कथिकों की वंश-परंपरा के दस्तावेज, मंदिरों में नृत्य सेवा के लिए प्रस्तुत कलाकारों का लेखा-जोखा, सभी कुछ गहरे परिश्रम की ओर इशारा करता है। इसमें कलाकारों के श्रेणियों का नामकरण भी अलग से ध्यान देने योग्य है, जिसके तहत हम ‘रहसधारी’, ‘बहुरूपिया’, ‘डोमनी’, ‘नटनी’, ‘भगत’, ‘भांड’ और ‘जलसेवाली’ को याद करते हैं। एक बेहतरीन समाजशास्त्रीय अध्ययन की किताब, जिसकी जमीन में कथक का लयपूर्ण ततकार गूंजता है।

‘कथक लोक: मंदिर, परंपरा और इतिहास’

शोभना नारायण और गीतिका कलहा

अनुवाद: एम. सत्यमूर्ति

नृत्य/इतिहास

पहला संस्करण, 2022

शुभी पब्लिकेशंस, गुरुग्राम

मूल्य: 895 रुपए

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मयूरपंख

यतीन्द्र मिश्र।

लोकधर्मी नाट्य रूपों का अभिलेखीकरण

लोकनाट्य परंपरा पर संगीत विदुषी शशिप्रभा तिवारी की ‘लोकनाट्य की विरासत: नाचा, माच, नौटंकी’ अपने कथ्य, कलेवर और प्रस्तुति में अनूठी है। तीन खंडों में विभक्त इस आयोजन में 31 सुललित निबंध संयोजित हैं, जो कई परतों में मौजूद नाचा, माच और नौटंकी को व्याख्यायित करते हैं। हर निबंध अपनी विशिष्ट दृष्टि में इन विधाओं को एक नए धरातल पर उन्मीलित करता है, जिसकी अर्थध्वनि समवेत रूप में लोकधर्मी है।

नवाचार, पारंपरिक अभ्यास, विरासत में चली आई रुढ़ियां, कलाओं में जीवन स्पंदन की मनोहारी छवियां तथा लय, ताल व संगीत पर विधागत विशिष्टता का अपूर्व बोध- समग्रता में बहुस्तरीय और मर्मस्पर्शी ढंग से अपनी बात कहता है। यह प्रयास लोक समुदाय की उन प्रवृत्तियों को भी रेखांकित करता है, जिसमें सामूहिक चेतना और आडंबरहीन कला-अभिप्राय एक-दूसरे के पूरक बनकर सुंदर की सृष्टि करते हैं। निबंधों में मौजूद स्थापनाएं व्यावहारिक ढंग से इस तर्क के समर्थन में खड़ी हैं कि एक कला का क्षणभंगुर अस्तित्व उसकी सर्जना और अभिव्यक्ति को अप्रतिहत रखते हुए दीर्घकालिक बना रहता है।

‘लोकनाट्य की विरासत: नाचा, माच, नौटंकी’

शशिप्रभा तिवारी

कला/इतिहास

पहला संस्करण, 2022

रेमाधव आर्ट, गाजियाबाद

मूल्य: 1,100 रुपए


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