सशक्त स्त्री अस्मिता का आख्यान
लेखिका ने कहानी में इस पर्वतारोहण में आने वाली तकनीकी कठिनाइयों की बारीकी से तो पड़ताल की ही है, साथ ही नव नागा संप्रदाय के साधुओं के रहस्यमयी जीवन की सूक्ष्मताओं को भी उद्घाटित किया है।
किरण सिंह के पहले कहानी संग्रह ‘यीशू की कीलें’ में कुल आठ लंबी कहानियां हैं। पहली कहानी ‘द्रौपदी पीक’ एवरेस्ट विजय करने जा रहे एक ऐसे पर्वतारोही दल की है, जिसमें रसूलपुर की एक रक्कासा की पढ़ी-लिखी पुत्री घुंघरू, धर्मध्वजा को हिमालय की सबसे ऊंची चोटी पर फहराने जा रहे नव-नागा संप्रदाय के पुरुषोत्तम दास और एक पुरुष और एक महिला शेरपा के बुलंदी को छूने की कथा भी है।
लेखिका ने कहानी में इस पर्वतारोहण में आने वाली तकनीकी कठिनाइयों की बारीकी से तो पड़ताल की ही है, साथ ही नव नागा संप्रदाय के साधुओं के रहस्यमयी जीवन की सूक्ष्मताओं को भी उद्घाटित किया है। अविस्मरणीय कहानी है यह।
दूसरी कहानी ‘कथा सत्यवान सावित्री की’ हिंदी साहित्य की अंतर्सतहों में चलने वाले देह शोषण, लफंगई, नंगई और टुच्चई की बेखौफ बयानी है। लोक जीवन में मनगढ़ंत किस्से कैसे किंवदितियों का रूप धारण कर जाते हैं ‘ब्रह्म बाघ का नाच’ कहानी इस सच की हौलनाक दास्तान है-नरसिम्हा में यम उतरे। जिसको छू ले तुरंत मरे।
बच जाए तो मृत्यु टले।’ ‘जो इसे जब पढ़े’ आत्मकथ्यात्मक शिल्प में लिखी गई शायद लेखिका की रचनायात्रा ही है... एक दब्बू गंवई लड़की से दबंग लेखिका बनने की कहानी। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘यीशु की कीलें’ राजनीति में उतारी गई एक ऐसी अनपढ़ अनाथ स्त्री भारती की कहानी है, जो अपनी देह शोषण के एवज में राजनीति में एक भूचाल ला देती है।
इकलौती संतान का मोह कितना प्रबल होता है, क्या हुआ अगर वह किन्नर के रूप मेंजन्मी है, इसी प्रबल मोह की कहानी है, ‘संझा’। रहमान खेड़ा गांव के वैद्यजी अपनी किन्नर संतान को किन्नरों के चंगुल से बचाकर, उसे बेटी की तरह पालने एवं ब्याहने में अपनी सारी शक्ति और ऊर्जा लगा देते हैं। वह आगे चलकर अपने पिता की इस कठिन तपस्या को कैसे सार्थक करती है, कैसे अपने लिए एक सम्मानजनक जीवन अर्जित करती है संझा, इसका बहुत लोमहर्षक आख्यान है, यह बेहतरीन कहानी।
संग्रह की हर कहानी अपने विषय और शिल्प में विलक्षण है। भाषा के धाकड़पन का अपना एक अलग ही आस्वाद है।
पुस्तक: यीशू की कीलें, लेखिका: किरण सिंह
प्रकाशक: आधार प्रकाशन प्रा. लि. पंचकूला (हरियाणा)
मूल्य: तीन सौ रुपए
अमरीक सिंह दीप