कहानी: अकेली
आजकल के जहीन देश में रहना चाहते ही कहां है। मां-बाप का कर्तव्य बस इतना रह गया है कि उन्हें पढ़ा-लिखाकर विदेश में अच्छी नौकरी के लायक बना दें। क्या छोटू इन सबसे अलग है?
तीन रातों से सोई नहीं है सुलभा। कितने मेल, कॉल, व्हाट्सएप्प मेसेज, आई. एम.ओ, स्काईप सब कर चुकी है पर उसका कोई रिप्लाई नहीं। पूरे टाइम टी.वी. के सामने बैचेन सी बैठी खबरें देखती रही थी। कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं घटी! कितना रोका था उसने छोटू को ऑस्ट्रेलिया नौकरी के लिए जाने से लेकिन इस बार उसकी बिलकुल भी नहीं चली थी। बड़े बेटे स्मित ने कहा था 'ऑफ कोर्स बहुत सेक्रिफाइज किया है आपने बच्चों के लिए मम्मी! लेकिन अब बच्चे बड़े हो गए हैं। उन्हें अपने निर्णय खुद लेने दो।' पति सुशांत भी बेहद खुश थे छोटू की आस्ट्रेलिया में नौकरी लगने से।
'हमें तुम पर गर्व है बेटा!' उन्होंने छोटू की पीठ ठोकते हुए कहा था। वो बस घुटती रही थी भीतर ही भीतर। कोई नहीं जानता कि छोटू के पहली बार विदेश वो भी नौकरी के लिए जाने से कितने दिन पहले से वो रात में करवट लिए रोती रहती थी। भले ही बाइस का हो गया हो लेकिन छोटू बहुत मासूम है। आजकल के दंद-फंद- लाकियां बिलकुल नहीं जानता। हर काम अब भी मम्मी से ही पूछकर करता है। अब किससे पूछेगा वहां इतनी दूर? बेचारा भूखा भी रहेगा तो किसी से कुछ नहीं कहेगा। इसीलिए तो उसकी ज्यादा फिक्र रहती है। बड़ा बेटा स्मित तो फिर भी दो साल दिल्ली के हॉस्टल में रहा तो कुछ चंट चालाक हो गया लेकिन छोटू वो तो जब से पैदा हुआ है मां को छोड़ा ही नहीं
उसने और न ही सुलभा ने बेटे को। खाने-पीने में तो अब भी बेहद चूजी है। गिनी-चुनी चीजें तो बनानी पड़ती हैं उसके लिए तब खाता है। वहां कौन उसकी पसंद का खाना बनाता होगा कितने फोन लगाए लेकिन उठा ही नहीं रहा। अब क्या करे वो? किससे कहे? अपना देश होता तो अभी तुरंत ऑनलाइन रिजर्वेशन करवाकर चली जाती
लेकिन विदेश में वीजा, टिकट..सौ झंझट।
कितनी तो खबरें सुनते रहते हैं आजकल। पिछले महीने ही तो ऑस्ट्रेलिया में दो भारतीय छात्रों को सरे बाजार गोलियों से भून दिया गया था। उसके पहले भी बेटे के पास ऑस्ट्रेलिया गए एक बुजुर्ग को मॉर्निंग वॉक करते समय गोली से उड़ा दिया था। सुलभा सोचकर ही सिहर गई। आजकल के बच्चे अपने देश में रहना चाहते ही कहां हैं? मां-बाप का कर्तव्य तो बस इतना रह गया है कि वो पढ़-लिखकर विदेश में अच्छी नौकरी पा सकें लेकिन छोटू तो सबसे अलग है। कितना प्रेम करता है वो अपनी मां को। मम्मी के बिना रह ही नहीं सकता। सुलभा ने सिरहाने रखे
मोबाइल पर टाइम देखा। रात के तीन बजकर पंद्रह मिनट हुए थे। वो उठी और फ्रिज से बोतल लेकर पानी पिया। फिर ड्रॉइंग रूम में आकर टीवी ऑन कर दिया। कुछ देर न्यूज देखी। उसमे भी मन नहीं लगा। सुलभा ने टी.वी. ऑफ किया और लाइट बंदकर बेडरूम में आकर पलंग पर लेट गई और आंखें मींच लीं। सोने के लिए नहीं, सोचने के लिए ...।
पति सुशांत जब से रिटायर हुए हैं शहरों में रहना ही नहीं चाहते। उन्हें तो बस अपने गांव 'रहली' के उस पुश्तैनी घर और संयुक्त परिवार में अच्छा लगता है। कोई प्रोफेसर और इतना बड़ा लेखक नौकरी से कार्यमुक्ति के बाद अपनी अच्छी-भली घर गृहस्थी त्यागकर यूं गांव में रहने का निर्णय ले लेता है क्या? और तो और अब वहां जाकर तो उन्होंने पहनावा भी वही गंवई कर लिया है। बड़े शान से धोती-बंडी पहने मुंह में नीम की दतौन दबाए खेत में खड़े होकर फोटो खिंचवाते हैं। वो तो सुलभा को भी वहीं बुलाते हैं। कहते हैं 'छोड़ो-छाड़ो अब नौकरी। तुम भी यहीं आ
जाओ। ज्यादा कुछ कहो तो प्रवचन देने लगते हैं। तुम आर्ट ऑफ लिविंग' में जाती हो, योगा करती हो, वॉक पर जाती हो, कितना ख्याल रखती हो अपनी फिटनेस का। एक बार यहां गांव के सुकून में आकर तो देखो। ताजा हवा, ताजा साग-भाजी, सीधा-सादा जीवन ... किसी चीज की हाय-हाय नहीं। एकदम शांति। शहरों में क्या रखा है सिर्फ भीमकाय डरावनी इमारतें, धूल और भीड़ के अलावा।' सुलभा को पति की ये समझाइशें कतई नापसंद रहीं।' 'तो आप रहिये न वहां। गोबर-सानी की बदबू, ढोर डांगर, कच्चे आंगन वाले मकान, बेपढ़ लोग! मैं तो यहीं रहूंगी और रिटायरमेंट के बाद फंड के पैसे से यहीं इंदौर में कोई द्ब्रलैट खरीद लूंगी। छोटू को भी यहीं बुला लूंगी। सुशांत बेपरवाह और मस्तमौला हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। कहते हैं, रहो तुम्हें जहां रहना है।'
रिश्तेदार, परिचित, पड़ोसी, स्कूल स्टाफ सब सुलभा के नसीब को सराहते हैं। 'बेटे हों तो ऐसे। अरे सुलभा जी ने परवरिश भी तो उनकी कितनी अच्छी की है। पति का स्थानांतरण होता रहता था। अपने घर-परिवार से कितनी दूर नौकरी के लिए पड़ी रहीं। बच्चों को बढिय़ा स्कूल कॉलेजों में पढ़ाई करवाई। अपनी तमाम ख्वाहिशें बच्चों की
परवरिश पर न्योछावर ही कर दी उन्होंने।' लोगों की इन बातों से सुलभा को भी राहत मिलती थी लेकिन अब वो क्या करे जब जिन बच्चों को उसने बीस-बाइस सालों तक छाती से चिपकाए रखा अब नौकरी के लिए दूर-बहुत दूर चले गए हैं। अब तो बस ये इंटरनेट या फिर मोबाइल जैसे उपकरण ही उनसे बातचीत और हालचाल जानने का एकमात्र जरिया रह गए हैं। स्मित तो बिलकुल पापा पर गया है।
मनमौजी और जिद्दी।...लेकिन मेरा छोटू! दिन तो नौकरी और घर की भागमभाग में जैसे-तैसे गुजर जाता है। अकेली रात बहुत तकलीफदेह होती है वो भी तब जब उसमें किसी लाइलाज फिक्र ने सेंध लगा दी हो। पूरी रात उसी तकलीफ से मुठभेड़ करते बीतती है। खिड़की के झीने परदे पर सुबह की रेशमी किरणें आकर बैठ गई थीं। वो भी उठ बैठी।
बाहर सब्जीवाला आया था। सुलभा सब्जी ले रही थी कि तभी मेड पुष्पा ने आकर बताया, 'मैडम जी आपका फोन बज रहा है।' सुलभा सब छोड़-छाड़कर घर के भीतर भागी और कमरे में पहुंची तब तक फोन बंद हो चुका था। फोन छोटू का था। उसके बाद उसने खूब कोशिश की फोन लगाने की लेकिन बिजी बताता रहा। उसे खुद पर कोद्ब्रत हुई। कुछ देर में छोटू का एक मैसेज आया। 'मम्मी वीडियो चैट के लिए आई.एम.ओ. पर आ जाइए।' सुलभा की तो खुशी का ठिकाना न रहा। उसे महसूस हुआ जैसे पिछले तीन दिन नहीं तीन जन्मों के दु:ख एक ही लम्हे में ढह गए। अब वो छोटू को पहले तो खूब डाटेगी कि फोन क्यों नहीं उठाते? फिर प्यार से कारण और हालचाल पूछेगी।
इन्हीं सवालों की लहरों पर उतराते हुए उसने आई.एम.ओ. खोला। सामने छोटू का चेहरा देख खुशी से उसकी आंखें भींग गईं।' कितना दुबला सा हो गया है छोटू! उसने मन ही मन कहा। अचानक एक लड़की उसे छोटू की बगल में बैठी दिखी।
-'मम्मी ये आयशा है। इसके पापा दिल्ली में ही रहते हैं और ये मेरी कंपनी में मेरे साथ काम करती है। वैसे ये ऑस्ट्रेलिया में मेरी सीनियर है लोकल गार्डियन भी है ' छोटू ने हंसते हुए कहा 'नमस्ते आंटी,' आयशा ने मुस्कराते हुए कहा।
'नमस्ते बेटा।' सुलभा की आंखों में थोड़ी बैचेनी थी।
'कैसी हैं मम्मी?' छोटू ने पूछा।
'अरे बेटा मैं तो ठीक हूं। तुम बताओ कैसा चल रहा है तुम्हारा काम? यहां इंदौर कब आ रहे हो? कितने दिनों से परेशान हो रहे हैं कोई खबर ही नहीं मिल रही तुम्हारी?' 'हां जानता था मम्मी कि आप परेशान हो रही होंगी लेकिन मैं बहुत बिजी था। नई जॉब है न! शुरू-शुरू में आपकी मुझे बहुत याद आती थी। यहां सब अजनबियों के बीच बहुत अकेलापन लगता था।' 'अरे? तुम शेयरिंग में क्यों नहीं रहते? कोई दोस्त भी मिल जाएगा बात करने को और डर भी नहीं लगेगा।'
'हां पहले मैं सबलेट में ही रहता था। वो एक बॉयज हॉस्टल था लेकिन वहां फ्रीडम नहीं थी। टाइम पर नाश्ता वगैरह, फिर हॉस्टल पहुंचना। सो आयशा ने ही मुझे अपने एक अंकल का द्ब्रलैट किराए पर दिला दिया। ये कहती है रात में डरते हो तो डरो। जिस चीज से डर लगता है वही करना चाहिए वर्ना डर हमें ताजिंदगी डराता ही रहेगा।'
आयशा उसकी बात सुनकर हौले-हौले मुस्कुरा रही थी। 'जी आंटी, इसे अकेले आनेजा ने में भी दहशत सी होती थी। मैं इसे अकेले ही जाने को कहती हूं। ट्राम, मेट्रो, बस या टेक्सी में सब जगह। और एक गुड न्यूज, ये सब खाने लगा
है। हम दोनों जब घर में खाना कुक करते हैं तो मैं वही चीजें बनाती या होटल से मंगाती थी जो इसे अच्छी नहीं लगतीं। एक-दो दिन भूखा भी रहा लेकिन ...' भूखा सुनकर सुलभा का दिल हलक में आ गया जैसे। मुश्किल से काबू करती हुई बोली 'ऐसा नहीं करते बच्चे।' छोटू और आयशा हंसने लगे। 'अच्छा सुनो..न तो मैं अब आपको फोन कर पाऊंगा और न ही आप मुझे करना। प्रोबेशन पीरियड खत्म होने के बाद मैं कुछ दिन के लिए इंदौर आऊंगा। आप अपना ख्याल रखना। मेरी चिंता के लिए आयशा है यहां, सो बेफिक्र रहिए। अच्छा मम्मी, अब हमें कहीं जाना है, बाय।'
'बाय आंटी!' आयशा ने भी मुस्कराते और हाथ हिलाते हुए कहा। जब तक सुलभा आशीर्वाद के लिए हाथ उठाती अचानक दोनों उस चौकोर फ्रेम से गायब हो गए। सुलभा खामोश बैठी थी। सोच रही थी अब वो शाम को क्या करेगी?'
(चर्चित कथाकार। सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित, बडोदरा में निवास)
वंदना शुक्ल