लाइलाज नहीं है प्री-एक्लेमप्सिया प्रॉब्लम, एक्सपर्ट से जानें इससे जुड़े जरूरी सवालों के जवाब
गर्भावस्था के 20 सप्ताह पूरे होने के बाद कुछ स्त्रियों का ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है और यूरिन से अधिक मात्रा में प्रोटीन का डिस्चार्ज होने लगता है। इसे प्री-एक्लेमप्सिया कहा जाता है।
प्री-एक्लेमप्सिया को लेकर स्त्रियों के मन में कई तरह के सवाल होते हैं। अगर सही समय पर ध्यान न दिया जाए तो प्रेग्नेंसी के दौरान यह समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है। आइए जानते हैं कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब एक्सपर्ट के साथ।
किस शारीरिक दशा को प्री-एक्लेमप्सिया कहा जाता है?
आमतौर पर गर्भावस्था के 20 सप्ताह पूरे होने के बाद कुछ स्त्रियों का ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है और यूरिन से अधिक मात्रा में प्रोटीन का डिस्चार्ज होने लगता है। ऐसी शारीरिक दशा को प्री-एक्लेमप्सिया कहा जाता है। इसे दो भागों में बांटा जाता है-
1. माइल्ड प्री-एक्लेमप्सिया: अगर गर्भवती स्त्री का सिस्टोलिक ब्लडप्रेशर 140 या उससे अधिक और डायस्टोलिक 90 या उससे अधिक हो तो यह माना जाएगा कि उसे माइल्ड प्री-एक्लेमप्सिया है।
2. इंटेंस प्री-एक्लेमप्सिया: अगर किसी स्त्री का सिस्टोलिक ब्लडप्रेशर 160 या उससे अधिक और डायस्टोलिक 110 या उससे अधिक है तो ऐसा माना जाएगा कि यह इंटेंस प्री-एक्लेमप्सिया है।
क्या प्रेग्नेंसी के दौरान ब्लडप्रेशर बढऩे के कारण सभी स्त्रियों को ऐसी समस्या होती है?
नहीं, ऐसा नहीं है। विश्व में लगभग 10 प्रतिशत स्त्रियों को गर्भावस्था में उच्च रक्तचाप का सामना करना पड़ता है। इनमें से तीन से पांच प्रतिशत मामले प्री-एक्लेमप्सिया के होते हैं। एक शोध के अनुसार, भारत में 7.8 प्रतिशत स्त्रियों में हाई ब्लडप्रेशर के मामले दजऱ् किए गए हैं, जिनमें 5.4 प्रतिशत प्री-एक्लेमप्सिया के थे।
किसी गर्भवती स्त्री की सेहत पर इसका क्या असर पड़ता है?
गर्भवती स्त्री की किडनी और लिवर पर इसका बुरा असर पड़ता है। इससे ये दोनों अंग क्षतिग्रस्त हो सकते हैं। गर्भस्थ भ्रूण के विकास में भी रुकावट आती है। ऐसी स्थिति में प्री-मैच्योर डिलीवरी की आशंका बढ़ जाती है, जिससे जन्म लेने वाला शिशु बहुत कमज़ोर होता है। कई मामलों में सीज़ेरियन डिलीवरी कराने की भी ज़रूरत पड़ सकती है। अगर सही समय पर उपचार न किया जाए तो ऐसी स्थिति मां और गर्भस्थ शिशु दोनों के लिए जानलेवा साबित हो सकती है।
क्या प्रसव के बाद भी ऐसी समस्या हो सकती है?
आमतौर पर ऐसा नहीं होता लेकिन अपवाद स्वरूप कुछ स्त्रियों में प्रसव के बाद भी इसके लक्षण नज़र आते हैं लेकिन उपचार के बाद यह समस्या दूर हो जाती है।
इसके प्रमुख लक्षणों के बारे में बताएं।
प्रेग्नेंसी में हाथ-पैरों में मामूली सूजन स्वाभाविक है लेकिन जब इसके साथ चेहरे पर भी अधिक सूजन दिखाई दे तो यह प्री-एक्लेमप्सिया का लक्षण हो सकता है। इसी तरह बहुत ज्य़ादा नॉजि़या और वोमिटिंग होना भी इसी समस्या का संकेत है। लगातार सिर और पेट में हल्का दर्द, धुंधली दृष्टि और सांस लेने में तकलीफ आदि इसके प्रमुख लक्षण हैं।
किन कारणों से गर्भावस्था के दौरान ऐसी समस्या होती है?
आनुवंशिकता के कारण कुछ स्त्रियों को ऐसी समस्या होती है। इसके अलावा, प्रेग्नेंसी से पहले हाई ब्लडप्रेशर, किडनी संबंधी समस्या, डायबिटीज़, ओबेसिटी, यूटीआई, माइग्रेन, ऑर्थराइटिस, पीसीओडी या नर्वस सिस्टम से जुड़ी कोई भी बीमारी होने पर गर्भावस्था में प्री-एक्लेम्पसिया की समस्या हो सकती है।
इस समस्या से बचाव के लिए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।
शादी के बाद पारिवारिक जीवन की शुरुआत से पहले ही नियमित एक्सरसाइज़ और संतुलित खानपान अपनाते हुए ओबेसिटी से बचना ज़रूरी है। अगर शरीर में कैल्शियम की मात्रा कम हो तो सप्लीमेंट लेने की भी सलाह दी जाती है। इसके अलावा, अगर स्त्री को पहले से ही डायबिटीज़, हाई ब्लडप्रेशर और माइग्रेन हो तो कंसीव करने से पहले दवाओं द्वारा ऐसी समस्याओं को नियंत्रित करना ज़रूरी होता है।
इसकी जांच के लिए क्या तरीके अपनाए जाते हैं?
प्रेग्नेंसी की शुरुआत से ही नियमित रूप से ब्लडप्रेशर की जांच ज़रूरी है। अगर किसी स्त्री का रक्तचाप 140/90 से अधिक हो तो तुरंत डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए क्योंकि यह प्री-एक्लेमप्सिया का लक्षण हो सकता है। इसी तरह से प्रग्नेंसी 20 सप्ताह बीत जाने के बाद यूरिन की जांच ज़रूर करवानी चाहिए। अगर रिपोर्ट में प्रोटीन की मात्रा निर्धारित सीमा से अधिक हो तो यह लक्षण भी प्री-एक्लेमप्सिया की ओर संकेत करता है। ब्लड टेस्ट के बाद अगर प्लेटलेट काउंट कम हो जाए तो भी स्त्री को ऐसी समस्या हो सकती है। अगर अन्य लक्षणों की पुष्टि होने के बाद अल्ट्रासाउंड द्वारा गर्भस्थ शिशु के विकास की भी जांच की जाती है, ज़रूरत पडने पर शिशु के विकास के लिए इंजेक्शन द्वारा कुछ दवाएं भी दी जाती हैं।
इसका उपचार कैसे किया जाता है?
माइल्ड प्री-एक्लेमप्सिया होने पर गर्भवती स्त्री को सीमित मात्रा में नमक का सेवन करने के साथ आराम की सलाह दी जाती है। दवाओं की मदद से उसके बढ़ते ब्लडप्रेशर को नियंत्रित किया जाता है। निरंतर डॉक्टर की निगरानी के लिए उसे हॉस्पिटल में भर्ती भी कराया जा सकता है, ताकि डिलीवरी सुरक्षित तरीके से कराई जा सके।
(डॉ अल्का कृपलानी से बातचीत पर आधारित)