Doctors' Day 2022: रोगी और चिकित्सक के बीच दरकने न पाए विश्वास की दीवार
लखनऊ केजीएमयू के रेस्पिेटरी मेडिसिन के विभागाध्यक्ष डा. सूर्यकान्त ने बताया कि चिकित्सक को धरती का भगवान कहा जाता है लेकिन अब जरूरी हो गया है कि रोगी और चिकित्सक के बीच बनी विश्वसनीयता की दीवार मजबूती से खड़ी रहे...
कानपुर,लालजी बाजपेयी। भारतीय चिकित्सक डा. बी.सी. राय के जन्म एवं निर्वाण दिवस, (1 जुलाई) को 'चिकित्सक दिवस' के रूप मे मनाते हैं। डा. बी. सी. राय, प्रख्यात चिकित्सक, स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ तथा समाजसेवी के रूप में याद किए जाते हैं। वे मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के अध्यक्ष भी रहे तथा राजनीतिज्ञ के रूप में कलकत्ता के मेयर, विधायक व पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री (1948 से 1962) का दायित्व भी निभाया। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने नियमित रोगियों की सेवा की। उन्हें चार फरवरी 1961 को भारत रत्न की उपाधि प्रदान की गयी।
बदनाम न हो चिकित्सकीय सेवा: एक समय था जब मरीज व उसके परिजन चिकित्सक को भगवान का दर्जा देते थे। मरीज हों या उनके तीमारदार, सब यही मानते थे कि चिकित्सक धरती का भगवान है, क्योंकि जिस रोग की पीड़ा से मरीज जूझता है, उसका निदान चिकित्सक के पास ही होता है। हालांकि बीते कुछ वर्षों में यह विश्वास थोड़ा डगमाया है। अक्सर चिकित्सकों पर लापरवाही के आरोप लगते हैं, तो वहीं मरीज के स्वजनों द्वारा अधिक पैसा लेने या अन्य कारणों की बात कहकर अस्पताल में तोडफ़ोड़, चिकित्सकों व कर्मचारियों के साथ दुव्र्यहार करने के मामले भी आते हैं।
चिकित्सकीय पेशे के लिए यह बेहद दुखद है। ऐसा नहीं है कि इसके लिए किसी एक को दोषी माना जाए। समय के साथ कहीं न कहीं चिकित्सा सेवा भी अब सेवा नहीं रही, बल्कि प्रोफेशनल सर्विसेज में तब्दील हो गई है और व्यावसायिकता हावी होती जा रही है। पहले चुनिंदा चिकित्सक दूर-दूर तक अपने नाम और कौशल की वजह से पहचाने जाते थे। अब चिकित्सकीय सेवा का नहीं, स्पेशलाइजेशन और सुपर स्पेशलाइजेशन का दौर है। इसीलिए समाज, चिकित्सकों को ईश्वर के रूप में नहीं देखता, बल्कि लोगों को लगता है कि ज्यादातर चिकित्सक इलाज के दौरान धन के दोहन में लगे रहते हैं।
ऐसे में संदेह का चश्मा हमेशा ही मरीज के स्वजनों की आंखों पर रहता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि हर चिकित्सक ऐसा करता है। इसके लिए काफी हद तक मरीज के स्वजन भी जिम्मेदार होते हैं। वे मरीज की बिगड़ी स्थिति में उपचार के लिए हर तरह के समझौते करने को तैयार रहते हैं। अस्पताल से अच्छी सुविधाओं की उम्मीद भी करते हैं, लेकिन बात जब भुगतान करने की आती है तो कहीं न कहीं मानसिकता बदल जाती है। चिकित्सकों पर तरह-तरह के दबाव बनाए जाते हैं और हंगामा किया जाता है। आम लोगों को यह सच स्वीकारना होगा कि मरीज का उपचार चिकित्सक करता है, लेकिन उसके जीवन की डोर भगवान के हाथ होती है और चिकित्सक भी तो इंसान ही है। चिकित्सक कभी नहीं चाहता है कि उसका मरीज स्वस्थ होकर घर न लौटे।
बढ़ी चिकित्सा की गुणवत्ता: निजीकरण और व्यवसायीकरण के दौर में पूंजी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है। इसके फायदे कम हुए हैं, नुकसान ज्यादा हैं। पूंजी बढऩे से तकनीक और आधारभूत ढांचे में क्रांतिकारी सुधार हुए हैं। गांवों और कस्बों में पेड़ के नीचे खाट और बदहाल अस्पतालों में इलाज के दौर से अब चिकित्सा सेवा सेवेन स्टार होटलनुमा अस्पतालों तक आ पहुंची है। इससे जहां एक ओर इलाज की गुणवत्ता बढ़ी है तो वहीं दूसरी ओर खर्चे भी बढ़े हैं। इन बेतहासा बढ़े खर्चों के अर्थशास्त्र ने भी चिकित्सक व मरीजों के संबंधों की मानसिकता बदली है। जब मरीज की हालत गंभीर हो तो धैर्य और सहनशीलता की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। लेकिन अब मरीजों और चिकित्सकों के बीच स्थापित मर्यादा और सद्व्यवहार की लक्ष्मण रेखा आसानी से ध्वस्त हो जाती है, जो चिकित्सकीय सेवा के लिए किसी कलंक से कम नहीं है।
शायद यह भी वजह है: दस-दस साल तक चिकित्सा शास्त्र के हर गूढ़ और गहन तथ्यों को समझने-बूझने में लगे चिकित्सकों को मरीजों से उचित संवाद करने के लिए बिल्कुल भी प्रशिक्षित नहीं किया जाता है। एक कारण यह भी है, जो चिकित्सक व रोगी के रिश्तों को प्रभावित करता है। 2018 की नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रति 11,082 जनसंख्या पर एक एलोपैथिक चिकित्सक है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक (1,000 जनसंख्या पर एक चिकित्सक) से 10 गुना कम है। काम के बोझ से जुड़ा तनाव इस पेशे का हिस्सा बन गया है। एक अन्य कारण जो चिकित्सक रोगी के संबंधों को बिगाड़ रहा है, वह है समाज में बढ़ती उग्रता। आज रोगी के स्वजनों को लगता है कि सिफारिश कराकर या दबाव बनाकर रोगी का अच्छा उपचार करवाया जा सकता है। जैसा कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में वे आए दिन करते रहते हैं।
किसी रोगी की यदि उपचार के दौरान मृत्यु हो जाए तो तुरंत आरोप लगता है कि चिकित्सक की लापरवाही से मरीज की मृत्यु हो गई। सच्चाई यह है कि कोई भी चिकित्सक क्यों चाहेगा कि उसके मरीज की मृत्यु हो जाए या वह ठीक न हो। प्रत्येक चिकित्सक अपने ज्ञान व जानकारी से रोगी को ठीक करने की कोशिश करता है, लेकिन जीवन या मृत्यु चिकित्सक के वश में नहीं अपितु ईश्वर के हाथ में है। इस बात का ध्यान समाज को सदैव रखना चाहिए। इसलिए मरीज के स्वजनों को अपने रवैये में सकारात्मक परिवर्तन लाना होगा।
कायम रहे रिश्ता: भारतीय चिकित्सा शास्त्र के महान मनीषी चरक ने क्या खूब कहा था कि मरीज चिकित्सक को चिकित्सा सेवा या परामर्श के बदले धन दे सकता है, धन न हो तो कोई उपहार दे सकता है। ये भी न हो सके तो वह उसके कौशल का प्रचार कर उसके उपकार से निवृत्त हो सकता है। अगर कोई मरीज ऐसा करने में भी अक्षम हो तो वह ईश्वर से उस चिकित्सक के कल्याण की प्रार्थना तो कर ही सकता है। इस भाव और मानसिकता का मूल चिकित्सक और रोगी दोनों को समझना होगा, क्योंकि उनका आपसी रिश्ता और सम्मान की भावना इस पुनीत और महान चिकित्सा व्यवस्था की नींव है। इस व्यवस्था पर करोड़ों मरीजों की सेहत और जिंदगी टिकी है। इसलिए चिकित्सक और रोगी के स्वजनों को इस रिश्ते की गरिमा का हमेशा खयाल रखना होगा।
लखनऊ केजीएमयू के रेस्पिेटरी मेडिसिन के विभागाध्यक्ष डा. सूर्यकान्त