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एक से डेढ़ साल में 3 भेड़ों की ऊन से तैयार होता है एक पश्मीना शॉल, जानें इससे जुड़ी ऐसी ही कुछ बातें

शॉल न सिर्फ तन को सर्दी से बचाती है बल्कि शानोशौकत की भी पहचान होती है और इनमें सबसे खास होती है पश्मीना शॉल। जानेंगे आज इससे जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें।

By Priyanka SinghEdited By: Published: Wed, 11 Dec 2019 08:27 AM (IST)Updated: Wed, 11 Dec 2019 08:27 AM (IST)
एक से डेढ़ साल में 3 भेड़ों की ऊन से तैयार होता है एक पश्मीना शॉल, जानें इससे जुड़ी ऐसी ही कुछ बातें
एक से डेढ़ साल में 3 भेड़ों की ऊन से तैयार होता है एक पश्मीना शॉल, जानें इससे जुड़ी ऐसी ही कुछ बातें

शॉल ओढ़ाना, पहनाना, भेंट करना आदि किसी का सम्मान या आदर करने का प्रतीक रहा है। इनमें सबसे शानदार मानी जाती है पश्मीना शॉल। इसके इतिहास के बारें में तो कोई पक्का सबूत नहीं मिलता लेकिन कहा जाता है कि सम्राट अशोक के शासन के बाद से कश्मीर को दुनिया में सबसे खास पश्मीना शॉल बनाने के लिए जाना जाने लगा था। पश्मीना फारसी शब्द पश्म से लिया गया है जिसका मतलब है एक रीतिबद्ध तरीके से ऊन की बुनाई। यह भी कहा जाता है कि शॉल के निर्माण का इतिहास तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से है।

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दिलाए याद वादियों की

आराम और सुंदरता का प्रतीक पश्मीना शॉल की दीवानगी इटली, दुबई और रशिया में भी बहुत है। काम जितना महीन होगा कीमत उतनी ज्यादा। कहा तो यहां तक जाता है कि पश्मीना का धागा मनुष्य के बाल से छह गुना पतला होता है। बात अगर इसकी गुणवत्ता की करें तो पश्मीना 40 से 45 साल आपके साथ रहती है, यही वजह है कि इसका लेबल शॉल के साथ बुना जाता है। 20वीं सदी के 9वें दशक में जब फैशन उद्योग में पश्मीना की मांग बढ़ने लगी तो इसकी कीमतों में खूब उछाल आई। पश्मीना शॉल के बारे में एक खास बात यह भी है कि इसकी स्मरणकारी कलाकृति कश्मीर की खूबसूरत वादियों की याद दिलाती है। उत्तराखंड में नेपाल से सटे कई गांव भी हथकरघा से पश्मीना शॉल बनाते हैं लेकिन यहां के हथकरघा कारीगरों में एक निराशा भी है कि उन्हें उनके बनाएं सामानों का उचित मेहनताना नहीं मिलता।

अंदाज निराले अदायगी के

शॉल की खास बात यह है कि ड्रेसिंग की नई स्टाइल के शॉल जैसे ट्रेडिशनल परिधान को युवा पीढ़ी में भी पसंदीदा बना दिया। क्लच हैंडगियर जैसी एक्सेसरीज की मदद से शॉल ड्रेसिंग को और फैशनेबल बनाया जाने लगा है। लांग स्कर्ट, इवनिंग गाउन, जैकेट जैसे आउटफिट्स के साथ शॉल को नए-नए तरीके से डाला जाने लगा है।


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