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..दिल है हिंदुस्तानी

ज्यां द्रेजे वर्षो पहले बेल्जि्यम से भारत पढ़ने आए थे। इसी दौरान उन्हें हिंदी इतनी भा गई कि भारत की इस राष्ट्रभाषा को उन्होंने अपने सामाजिक अभियान और रोजी-रोटी का जरिया बना लिया। उन्होंने हिंदी के जरिए ही इस देश की जनता व उसकी भावनाओं को करीब से समझा। इसके बाद देश को मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम जैसा नायाब फॉर्मूला दिया। मार्क टुली भारत आए थे बीबीसी संवाददाता बनकर, लेकिन वह और उनकी पत्नी इस देश में हिंदी के साथ ही रच-बस गए। रस्किन बांड, टॉम आल्टर, बैरी जॉन जैसे विदेशी मूल के ऐसे तमाम लोग हैं, जो न सिर्फ भारत में बसे, बल्कि हिंदी को अपनाकर अपनी अलग पहचान भी बनाई है। न केवल उन्हें अलग पहचान मिली, बल्कि हिंदी कहींन कहींउनकी लाइफ का टर्रि्नग प्वाइंट भी बन गई..

By Edited By: Published: Wed, 11 Sep 2013 01:14 AM (IST)Updated: Wed, 11 Sep 2013 12:00 AM (IST)
..दिल है हिंदुस्तानी

भारत अनगिनत भाषाओं का देश है, पीपल्स लिंग्विस्टक सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक यहां 850 से ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं, जबकि पूरे यूरोप में केवल 250 भाषाएं ही बोली जाती हैं। यह हिंदी की मिठास ही है कि अमेरिकी सरकार के ताजा आकडों के मुताबिक अमेरिका में 6.5 लाख लोग अंग्रेजी की बजाय हिंदी बोलना पसंद करते हैं। जाहिर है कि वे यहां से गए भारतीय ही होंगे। भारत को लेकर विदेशियों का आकर्षण और लगाव नया नहीं है। वह काफी पुराना और गहरा है। क्योंकि यहां उन्हें न सिर्फ एक अलग लाइफस्टाइल, बल्कि फेम और फॉच्र्यून भी मिलता है। इसके अलावा, भारत में बसे विदेशी शख्सियतों की कामयाबी हर साल अमेरिका, यूरोप, जापान, चीन जैसे मुल्कों के लोगों को यहां आने और काम करने के लिए इंस्पायर करती है। भारत उन्हें नई अपॉच्र्युनिटीज देता है। प्रोफेशनल्स को फ्रीडम मिलता है, तो रिसर्चर्स को भाषा, संस्कृति जानने के अनेक मौके मिलते हैं। यही कारण है कि इस साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेने वाले विदेशी स्टूडेंट्स में हिंदी को लेकर खासा क्रेज देखा गया। हिंदी उनके लिए एक हॉट फेवरेट लैंग्वेज बन गई है। दिलचस्प ये भी है कि अब चाइनीज स्टूडेंट्स में भी हिंदी पॉपुलर हो रही है।

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इंडिया की पहचान है हिंदी

हिंदी और उर्दू की अनुवादक गिलियन राइट मशहूर ब्रिटिश जर्नलिस्ट मार्क टुली की वाइफ हैं और 1997 से भारत में रह रही हैं। हिंदी और ऊर्दू उनकी लाइफ का टर्निग प्वाइंट था, क्योंकि इसको जानने की इच्छा ने ही इन्हें यहां आने पर मजबूर किया था। एक बार जो आई, तो फिर लौटना नहीं हुआ। वह कहती हैं, जब मैं लंदन यूनिवर्सिटी में पढ रही थी, उसी समय हिंदी की ओर मन रम गया था। इसे समझने की कोशिश करने लगी। फिर लगा कि इसकी बेटर नॉलेज के लिए इंडिया ही बेस्ट ऑप्शन है। मैं इंडिया आ गई। राही मासूम रजा और श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास और भीष्म साहनी की कहानियों का इंग्लिश में ट्रांसलेशन किया। इस काम से हिंदी को समझने में काफी मदद मिली। उनका कहना है कि किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता को अगर ठीक से समझना है तो वहां की लैंग्वेज को सीखना ही होगा। लोगों से कम्युनिकेट करना इसके बिना पॉसिबल ही नहीं है। हिंदी इंडिया की पहचान है। यहां के लगभग आधे लोग इसी लैंग्वेज में कम्युनिकेट करते हैं। बाकी इसे थोडा-बहुत समझ ही लेते हैं। हालांकि बहुत से लोगों को इंग्लिश की भी अच्छी नॉलेज है, लेकिन बिना हिंदी के काम नहीं चलने वाला है। गिलियन के मुताबिक, इंग्लिश की इंपॉटर्ेंस बढ रही है, उसके पीछे बडा रीजन जॉब है, जिसमें इंग्लिश वालों को तरजीह मिल रही है। इंग्लिश इंटरनेशनल लैंग्वेज भी है। बावजूद इसके हिंदी को इग्नोर नहीं किया जा सकता। गिलियन मानती हैं कि हिंदी का फ्यूचर अब भी अच्छा है। हिंदी लैंग्वेज में तेजी से चेंज हो रहा है। अंग्रेजी के जो शब्द सोसायटी स्वीकार कर रही है, उसे हिंदी में उसी रूप में शामिल किया जा रहा है। ऐसे में जब सोसायटी नई चीजों को एक्सेप्ट करेगी, उसे वहां की लैंग्वेज में जगह मिलती जाएगी, तो उस लैंग्वेज का फ्यूचर और भी ब्राइट होता चला जाएगा।

ब्राइट है फ्यूचर

इंडिया की पहचान उसके कल्चर से है, जिसमें यहां की सभी लैंग्वेजेज का मेन रोल है। हिंदी के बिना इंडिया के बारे में सोचना ही बेकार है, क्योंकि यहां के लगभग आधे लोग इसी लैंग्वेज में कम्युनिकेट करते हैं और बाकी के बचे लोग भी इस लैंग्वेज को थोडा-बहुत समझ ही लेते हैं। यहां आकर जिस तरह का वर्क सटिस्फैक्शन, भाषा-साहित्य को समझने, उसे जानने का मौका मिला, वह कभी भी ब्रिटेन में रहकर नहींमिल सकता था। गिलियन का मानना है कि हिंदी का फ्यूचर कभी डार्क नहींहोगा।

दिल से है रिश्ता

शाहरुख खान से लेकर कई जानी-मानी फिल्मी हस्तियों को एक्टिंग के गुर सिखाने वाले बैरी जॉन को किसी इंट्रोडक्शन की जरूरत नहीं है। बेशक इंग्लिश इनकी मातृभाषा रही है, लेकिन हिंदी और भारतीय संस्कृति से लगाव इनके काम में भरपूर नजर आता है। हिंदी सिनेमा और थियेटर को गुरु जॉन ने काफी कुछ दिया है। ये 1969 में एक टीचर की हैसियत से भारत आए थे, लेकिन दिल थियेटर में बसता था तो 1973 में सिद्धार्थ बसु, रोशन सेठ, लिलिट दुबे, मीरा नायर, पंकज कपूर आदि के साथ मिलकर थियेटर एक्शन ग्रुप बनाया। इस ग्रुप ने कई नाटकों का मंचन किया। इसके बाद बैरी दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से जुड गए और बाद में इसके फाउंडिंग डायरेक्टर भी बने। बैरी कहते हैं, इन सालों में सिनेमा और थियेटर में काफी कुछ चेंज आया है। क्योंकि हिंदुस्तान बदल रहा है, इसीलिए यहां की फिल्मों के डायलॉग भी उसी तरह से बदल रहे हैं।

हिंदी भाषा नहीं, संस्कार भी है

डॉ. सेलीना थिलमैन मूल रूप से इटली की हैं, लेकिन उनकी पढाई-लिखाई लंदन में हुई। कैम्ब्रिज यूनिवर्सटी से इन्होंने एमए किया है। ये न सिर्फ अच्छी हिंदी बोलती हैं, बल्कि संस्कृत, बांग्ला और ब्रज भाषा की भी अच्छी नॉलेज है। डॉ. सेलीना कहती हैं, आज की पीढी का अपने कल्चर और भाषा से लगाव कम होता जा रहा है। वह इंग्लिश के पीछे भाग रही है। उसे हिंदी बोलने में शर्म महसूस होती है, जो गलत है। उनका मानना है कि अपनी मातृभाषा को भी हेय नजरिए से नहीं देखना चाहिए। सेलीना की मानें, तो इंडियंस की ये विशेषता है कि वे कई भाषाएं एक साथ बोल सकते हैं। फिर हिंदी को लेकर हीन भावना नहीं होनी चाहिए। वे इस बात से इंकार नहीं करती हैं कि समय के साथ हर भाषा में बदलाव आना चाहिए, हिंदी में भी। जो आया भी है हिंग्लिश के रूप में। लेकिन खुद की पहचान बरकरार रखना भी उतना ही जरूरी है। सेलीना मानती हैं कि आज अच्छी नौकरी के लिए इंग्लिश की दरकार है। इसीलिए इंग्लिश में पढाई पर जोर है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि आप हिंदी को बिसार ही दें। हिंदी सिर्फ भाषा नहीं, एक संस्कार भी है और शिक्षा के साथ संस्कार जरूरी है। इसके अलावा यह भी समझना होगा कि हर चमकती चीज सोना नहीं होती। भारत को सेलीना अपना दूसरा घर मानती हैं, जहां ये 1994 में आईं थीं रिसर्च के मकसद से। और फिर यहीं के रंग में रंग गई। दरअसल, थिलमैन को ब्रज क्षेत्र के मंदिरों के संगीत पर रिसर्च करनी थी। इसके लिए उन्हें एक अच्छे गाइड की भी जरूरत थी, जो उन्हें वाराणसी में मिलीं, प्रोफेसर हेमलता शर्मा। फिर काशी हिंदू यूनिवर्सिटी से ही सेलीना ने पीएचडी की। इसके बाद वे वापस लौटना चाहती थीं, लेकिन जब देखा कि वृंदावन की कलाएं लुप्त हो रही हैं, तो उन्होंने भारत में रहने का फैसला किया। वृंदावन में अपने पति शशांक गोस्वामी (2006 में की शादी) की मदद से ब्रज कला-संस्कृति संस्थान की स्थापना की ताकि क्षेत्र की लुप्त हो रही कलाओं को बचा सकें। इस अभियान में वे नई पीढी को देश की कलाओं के प्रति जागरूक करने की कोशिश भी करती हैं। सेलीना के पेरेंट्स जर्मनी में रहते हैं, लेकिन वे वृंदावन में अपने बच्चों और पति के साथ। भारत में रहते इन्हें एक लंबा अरसा हो चुका है। इस दौरान उन्होंने यहां की संस्कृति में कई तरह के बदलाव देखे हैं। उनका मानना है कि वेस्टर्न कल्चर की नकल बढी है। पहनावे से लेकर सोच में। पहले वृंदावन में लडकियां जींस पहनकर नहीं निकल सकती थीं। आज स्कूल की टीचर भी जींस पहन रही है। वेशभूषा तो बदल गई है, लेकिन मानसिकता नहीं बदली। ऐसे में भारतीय परंपराओं का मान रखना, मर्यादा का ख्याल रखना जरूरी है। सेलीना खुद अपने बच्चों को अच्छे भारतीय संस्कार देना चाहती हैं। कहती हैं, मुझे यहां की संस्कृति ने पहली बार में ही अट्रैक्ट किया था, क्योंकि यहां भी फैमिली और रिलेशन को उसी तरह इंपॉटर्ेंस दी जाती है जैसे कि इटली में।

फ्रेंच ट्रैवलर बना बिजनेसमैन

एलेक्स फ्रांस से हैं। पेरिस में स्कूलिंग और कॉलेज से हॉयर एजुकेशन की, लेकिन ट्रैवल का शौक था, तो दुनिया घूमते रहते थे। इसी क्रम में 1994 में पहली बार भारत आना हुआ। एक ट्रैवलर की नजर से उन्होंने भारत देखा। फिर पढाई पूरी करने के बाद एक फ्रेंच टूर ऑपरेटर के साथ जुडकर काम करने लगे। इस दौरान भी भारत आना-जाना लगा रहा। हिमाचल प्रदेश, लद्दाख, राजस्थान सब जगह खूब घूमना हुआ। एलेक्स ने बताया कि दूसरे के लिए बहुत काम कर चुका था, इसलिए अपनी ट्रैवल एजेंसी स्टार्ट करने की सोची। इस तरह 2005 में शांति ट्रैवल्स नाम से एक एजेंसी दिल्ली में शुरू की। ये एजेंसी टेलर मेड टूर अरेंज करती है, जिसमें क्वॉलिटी का खास ध्यान रखा जाता है। आज पुडुचेरी, कोलंबो और बाली में भी शांति ट्रैवल्स की ब्रांचेज हैं। बिजनेस स्टार्ट करने के लिए इंडिया ही क्यों सेलेक्ट किया? इस पर एलेक्स कहते हैं, इंडियन इकोनॉमी में मुझे हमेशा से भरोसा रहा है। यहां का इकोनॉमिक एनवायरनमेंट एंटरप्रेन्योर फ्रेंडली है। यहां कुछ इंपॉसिबल नहीं। इंडिया एक बडा देश है। यहां अलग-अलग सीजंस हैं, जिनके मुताबिक आप अपना हॉलीडे प्लान कर सकते हैं। इसलिए टूरिज्म के लिहाज से इंडिया का हर सीजन अच्छा होता है। सर्दियों में राजस्थान, गोवा या साउथ इंडिया का ट्रैवल प्लान कर सकते हैं, जबकि गर्मियों में लद्दाख, श्रीनगर जैसे कई ऑप्शंस हैं। यानी बिजनेस के लिहाज से ये एक सही जगह है। एलेक्स को भारत की डाइवर्सिटी भी पसंद है। इसी ने इन्हें यहां रहने पर मजबूर कर दिया। यहां की अलग-अलग भाषा, फूड, कल्चर सब की एक अलग बात है। खासकर साउथ इंडियन डिश तो इनका फेवरेट क्यूजिन है। वहीं, कव्वाली सुनना अच्छा लगता है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि एलेक्स की भारतीय रीति-रिवाज में पूरी आस्था है। इसलिए जब उन्होंने शादी करने का फैसला किया, तो च्वाइस एक भारतीय लडकी ही रही। एलेक्स ने 2010 में टेनजिंग से शादी की और काफी खुश भी हैं।

प्रोफेशनल्स में हिंदी की डिमांड

विदेश से आने वालों को हिंदी सिखाने में जुटी संस्था हिंदी गुरु के चंद्रभूषण पांडेय ने बताया कि ग्लोबलाइजेशन होने के बाद फॉरेन कंपनीज के यहां इंट्रेस्ट लेने से आज भारत आने वाले विदेशी प्रोफेशनल्स की संख्या काफी बढ गई है। इसी के साथ बिजनेस के मकसद से भी काफी लोग डेनमार्क, फिनलैंड, जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देशों से आ रहे हैं। ये सभी भारत को जानने-समझने के लिए हिंदी सीख रहे हैं। इसके अलावा एंबेसीज में काम करने वाले भी हिंदी सीखने में दिलचस्पी ले रहे हैं, जिससे कह सकते हैं कि आज हिंदी बिजनेस की भाषा भी बन गई है। हिंदी गुरु के यहां भी हर महीने ऐसे दर्जनों विदेशी भारतीय संस्कृति और भाषा को जानने के लिए बाकायदा ट्रेनिंग क्लास ज्वाइन कर रहे हैं, यानी हिंदी है इन फुल डिमांड।

हिंदी है संपर्क भाषा

बोस्टन की रहने वालीं वेंडी जेलेन कथक डांसर हैं। हिंदी के सवाल पर वेंडी कहती हैं कि लोगों से उनकी भाषा में बात करने से आत्मीयता का अहसास होता है। सामने वाला भी जल्द घुल-मिल जाता है। हिंदी हमारे लिए यही काम करती है। भारत में रहती हूं, तो इसी भाषा में संवाद करती हूं। उनके अनुसार हिंदी को किसी सहयोग की जरूरत नहीं। यह खुद ही आगे बढती रही। समय के साथ भाषा बदलती रहती है, जो भाषा समय के साथ कदमताल नहीं करती, वह लुप्त होने के लिए अभिशप्त है। हिंदी आज संपर्क के साथ-साथ रोजगार की भाषा भी है। वेंडी अभी बोस्टन में हैं। नवंबर में वह अपनी ससुराल रांची आएंगी। वह न केवल हिंदी बोलती हैं, बल्कि उर्दू की भी जानकार हैं। वेंडी कथक के अलावा एक ऊंचे दर्जे की डांस कोरियाग्राफर भी हैं। अपनी मौसी से प्रेरित होकर छह साल की उम्र से भरतनाट्यम का ककहरा सीखना शुरू किया। फिर ओडिसी, कुचिपुडी सीखी। इसके बाद तो जापान, अमेरिका, यूरोप और भारत में कई कार्यक्रम पेश किए। पढाई के दौरान ही भारत का रुख किया। दिल्ली आई, लेकिन वहां अच्छा नहीं लगा, तो रांची आ गईं। यहां उनका कोई परिचित नहीं था। यहां के लोक कलाकार मुकुंद नायक यूएस यूनिवर्सिटीज में 6 महीने लोककला और संगीत पर संभाषण देते थे। इसी बीच वेंडी की मुकुंद नायक से भेंट हुई और उनके साथ कुछ दिनों तक काम किया। मुकुंदजी के बेटे नंदलाल नायक ही रांची एयरपोर्ट पर लेने गए। यहां का मौसम, यहां के पठार और खुली हुई पहाडियां वेंडी को खुशनुमा कर गईं। धीरे-धीरे निकटता बढती गई। और अंत में दोनों एक दूजे के हो गए। जब वेंडी शादी के बंधन में बंध गई, तो उससे पहले वे उर्दू और हिंदी की पढाई कर रही थीं। रांची आईं तो यहां उन्हें व्यावहारिक ज्ञान मिला। बोलने का लहजा, उच्चारण, ध्वनि आदि की जानकारी मिली।

प्यार की जुबान है हिंदी

जापान की कियोको हिसीनो को हिंदी इतनी पसंद थी कि उन्होंने जापान में ही इसकी बुक पढनी शुरू कर दी थी। धीरे-धीरे इससे लगाव बढता गया। हिंदी उन्हें इस कदर भाई कि एक भारतवासी काजिम से उनको इश्क हो गया और उसके साथ शादी भी कर ली। वे 1998 में लखनऊ में आकर बस गई। कियोको कहती हैं कि जापान में अंग्रेजी को महत्व नहीं दिया जाता है, लेकिन इंडिया में बच्चों को बचपन से ही हिंदी के साथ इंग्लिश भी सिखाई जाती है। वे कहती हैं कि हिंदी उनकी लाइफ का टर्निग प्वाइंट है। इस लैंग्वेज को अगर मैं प्यार की जुबान कहूं, तो गलत नहीं होगा। इंडिया के कल्चर को समझना है, तो इस लैंग्वेज को सीखना ही पडेगा। मैं जब हिंदी बोलती हूं, तो लोगों को अश्चर्य होता है, लेकिन मुझे खुशी होती है। यहां के लोग हेल्पफुल हैं, जब मैं कुछ गलत बोलती हूं, तो वे इसे सही करने में मेरी हेल्प भी करते हैं। मैं यहां हिंदी की बदौलत ही एक स्कूल में पढाती भी हूं। लैंग्वेज तो सारी अच्छी होती है, लेकिन हिंदी को नजरअंदाज करना अच्छी बात नहीं है। यह बहुत खास लैंग्वेज है।

मीठी भाषा है हिंदी

अफगानिस्तान के गृह युद्ध से परेशान डॉ. जे.ओ मोहम्मद खान वाया पाकिस्तान होकर 1993 में भारत आए और यहीं के होकर गए। आजमगढ में उनकी मुलाकात गोरखपुर की चिकित्सक अनीता अग्रवाल से हुई, जिनसे उन्होंने शादी कर ली। शादी के बाद वह गोरखपुर चले गए। तब से यहीं रह रहे हैं। उन्होंने काबुल यूनिवर्सिटी से एमडी की डिग्री ली है।

इस समय एनजीओ के माध्यम से हिंदुस्तानियों को मेडिकल सर्विस दे रहे हैं। गोरखपुर आने तक डॉ. खान हिंदी से अपरिचित थे, लेकिन पत्नी के सहयोग से उन्होंने हिंदी सीख ली। डॉ. खान की मानें, तो हिंदी के वैश्रि्वक प्रचार-प्रसार में हिंदी सिनेमा और टेलीविजन का सबसे बडा योगदान है। वह कहते हैं कि आप अफगानिस्तान में जाएं, तो वहां लोग घर-घर में हिंदी टेलीविजन चैनल देखते मिलेंगे। हिंदी सिनेमा का तो कहना ही क्या। वहां के लोग अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, ऐश्वर्या राय, माधुरी दीक्षित के तो दीवाने हैं। वहां फिल्मों का मतलब ही हिंदी फिल्में हैं। खान बताते हैं कि जब वह अफगानिस्तान से आकर आजमगढ के मुबारकपुर में बसे, तो हिंदी भाषा न आना एक समस्या बन रही थी। कई बार सोचा कि वापस लौट जाऊं, लेकिन हिम्मत करके हिंदी सीखने लगा। आज हिंदी के अखबार, किताबें सब सामान्य लगती हैं। वास्तव में हिंदी बडी मीठी भाषा है। लेकिन मैंने इसे जाना शादी के बाद। अब तो कई बार लोग मेरे हिंदी बोलने को लेकर सरप्राइज भी होते हैं। मेरे लिए आज हिंदी रोजगार का जरिया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपनी मूल जबान पश्तो और पारसी को भूल जाऊं।

जेआरसी टीम


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