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Young India की यंग हो सरकार

वे एक राष्ट्रीय पार्टी के दिग्गज नेता हैं। 80 साल से ज्यादा की उम्र हो चली है, लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा अभी भी धूमिल नहीं पड़ी है। इसलिए जिद में चुनाव लड़ रहे हैं। कुछ ऐसे भी नेता हैं, जिन्हें पार्टी ने टिकट नहीं दिया। फिर भी बागी तेवर अपनाते हुए निर्दलीय ही चुनाव मैदान में उतर गए हैं। इसी तरह एक दूसरी

By Edited By: Published: Mon, 14 Apr 2014 04:38 PM (IST)Updated: Mon, 14 Apr 2014 04:38 PM (IST)
Young India की यंग हो सरकार

वे एक राष्ट्रीय पार्टी के दिग्गज नेता हैं। 80 साल से ज्यादा की उम्र हो चली है, लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा अभी भी धूमिल नहीं पड़ी है। इसलिए जिद में चुनाव लड़ रहे हैं। कुछ ऐसे भी नेता हैं, जिन्हें पार्टी ने टिकट नहीं दिया। फिर भी बागी तेवर अपनाते हुए निर्दलीय ही चुनाव मैदान में उतर गए हैं। इसी तरह एक दूसरी नेशनल पार्टी के कद्दावर नेता की इतनी उम्र हो चली है कि खड़े होने तक के लिए सहारा लेना पड़ता है, लेकिन रिटायरमेंट का ख्याल दूर-दूर तक जेहन में नहीं है। आज कमोवेश हर दल में औसतन 70-80 साल के नेता हैं, जो खुद के साथ-साथ पार्टी की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगाने से नहीं चूक रहे। ऐसे में जब एक राष्ट्रीय दल के नेता ने 70 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को रिटायरमेंट लेकर, कमान परिपक्व युवा पीढ़ी को सौंपने और खुद को सलाहकार की भूमिका में लाने की बात कही, तो सवाल उठा कि क्या सरकारी और निजी सेवाओं की तरह राजनेताओं के लिए भी रिटायरमेंट की उम्र नहीं होनी चाहिए? अच्छा तो यही रहता कि उम्रदराज नेता खुद से पहल करते हुए युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाते और उनके सलाहकार की भूमिका में अपने लंबे अनुभव का लाभ देते। क्या ऐसा संभव नहींहै? क्या इस बार देशहित में सक्षम युवाओं को आगे लाया जाएगा?

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राजनीति में रिटायरमेंट

देश की तमाम सरकारी और निजी सेवाओं में रिटायरमेंट की अधिकतम उम्र 58, 60, 62 या 65 तय करते समय यह माना गया था कि एक समय के बाद व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमताएं कम होने लगती हैं, ऐसे में उन्हें नियमित और निर्णायक कामकाज से अलग हो जाना चाहिए। इस धारणा के तहत ही उक्त सेवाओं में सेवानिवृत्ति की उम्र तय की गई। अब सवाल यह है कि जब शारीरिक और मानसिक क्षमता कमजोर होने के कारण हर तरह की सर्विस में रिटायरमेंट की उम्र तय है, तो फिर नेताओं पर यह नियम क्यों लागू नहीं हो सकता? जबकि इनके लिए तो यह और भी जरूरी इसलिए है, क्योंाकि इन पर देश को चलाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। उम्र और शारीरिक अशक्तता बढ़ने के साथ इनसे कैसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे अपनी इस जिम्मेदारी को पूरी कुशलता से निभा सकते हैं?

इंडिया इंक से सबक

अगर देश और दुनिया की कॉरपोरेट कंपनियों पर नजर दौड़ाएंगे, तो वहां भी नई पीढ़ी को जिम्मेदारियां सौंपने की प्रक्रिया चल रही है। रतन टाटा, अजीम प्रेमजी, लक्ष्मी मित्तल और नारायणमूर्ति इसकी मिसाल हैं। रतन टाटा ने खुद से ही अपने रिटायरमेंट की घोषणा करते हुए साइरस मिस्त्री को कंपनी का उत्तरदायित्व सौंप दिया। इंफोसिस के नारायणमूर्ति ने भी कुछ ऐसा ही किया। आज ये दोनों सलाहकार का रोल बखूबी निभा रहे हैं और उनकी कंपनी पहले की तरह लगातार तरक्की कर रही है। इन्हीं की तर्ज पर गोदरेज, विप्रो, एचसीएल जैसी कंपनियों में नेक्स्ट जेनरेशन को ग्रूम कर, उन्हें बड़ी रिस्पॉन्सिबिलिटी दी जा रही है, यानी जब कॉरपोरेट घराने इस तरह की पहल कर सकते हैं, तो क्या राजनीति में ऐसा संभव नहीं है?

60 साल हो पॉलिटिक्स में रिटायरमेंट की उम्र

पॉलिटिक्स में रिटायरमेंट की उम्र 70 नहीं, बल्कि 60 साल कर दी जानी चाहिए। मैं अपने ताऊ नानाजी देशमुख का एक उदाहरण देना चाहूंगा। उन्होंने जेपी आंदोलन में जमकर हिस्सा लिया। सांसद भी बने, लेकिन 60 साल की उम्र में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और सक्रिय समाज-सेवा से जुड़ गए। उन्होंने कर दिखाया कि अगर आपके अंदर वाकई देश के लिए कुछ करने की चाहत है, तो जरूरी नहीं कि सत्ता में रहकर ही किया जाए। इसलिए एक उम्र के बाद आपके अंदर सत्ता की भूख तो कम से कम खत्म हो ही जानी चाहिए।

यशवंत देशमुख, फाउंडर ऐंड एमडी, सी-वोटर

व‌र्ल्ड के यंग लीडर्स

बराक ओबामा, अमेरिका

साल 2009 में करीब 47 साल 5 महीने की उम्र में देश के राष्ट्रपति का पदभार संभाला था और अमेरिका के पांचवेंसबसे कम उम्र के राष्ट्रपति बने थे। अमेरिका में राष्ट्रपति की औसत उम्र 55 वर्ष रही है।

डेविड कैमरन, ब्रिटेन

2010 में 43 साल की उम्र में ब्रिटेन के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री बने थे। इससे पहले गॉर्डन ब्राउन 59 साल की उम्र तक ब्रिटेन के प्राइम मिनिस्टर रहे।

शिंजो अबे, जापान

2006 में 52 साल की उम्र में प्रधानमंत्री चुने गए थे। एक साल के बाद उन्होंने अपना पद छोड़ दिया था, लेकिन 2012 में दोबारा प्रधानमंत्री का पद संभाला। वे जापान के पहले पीएम हैं, जिनका जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ।

एंजेला मार्केल, जर्मनी

जर्मनी की पहली महिला चांसलर हैं, जिन्होंने नवंबर 2005 में यह पद संभाला था। पूर्व में वे फिजिसिस्ट और रिसर्च साइंटिस्ट भी रही हैं। इससे पहले गेरहार्ड श्रोएडर जर्मनी के चांसलर थे।

फ्रांस्वा ओलांद, फ्रांस

मई 2012 में 48 वर्ष की उम्र में राष्ट्रपति का पद संभाला था। इन्होंने 1979 में सोशलिस्ट पार्टी ज्वाइन की थी। ओलांद से पहले निकोलस सरकोजी भी देश के युवा राष्ट्रपति थे।

यूथ चाहे यंग पार्लियामेंट

कॉरपोरेट लॉयर शशांक का कहना है कि भारत में अमूमन लोग 50 साल के बाद ही पॉलिटिक्स में एंट्री करते हैं, क्योंकि यहां आने से पहले उन्हें जमीनी राजनीति और गवर्नेस आदि की समझ होनी जरूरी होती है। इसके अलावा राजनीति कोई जॉब नहीं, बल्कि सोशल लाइफ का हिस्सा है। और जब सामाजिक जिंदगी की बात आती है, तो आज की लाइफस्टाइल काफी बदल चुकी है। इन दिनों 55-60 साल के लोग भी युवा की श्रेणी में गिने जाते हैं। लिहाजा, सरकारी या प्राइवेट सेक्टर की तरह पॉलिटिक्स में रिटायरमेंट तो मुमकिन नहीं है, लेकिन लीडर्स को सम्मानजनक तरीके से खुद पहले करते हुए मैच्योर यूथ के लिए जगह खाली कर देनी चाहिए। एक लीडर मानसिक स्तर पर कितना अलर्ट है, वह अपनी जिम्मेदारियों को कितने मीनिंगफुल तरीके से निभाता है, उस पर बहुत सारी चीजें निर्भर करती हैं। अगर राजनेता 70-80 साल की उम्र में अपनी जिद में चुनाव लड़ते हैं, सारे तिकड़म भी आजमाते हैं, तो एक समय के बाद जनता भी अपना फैसला सुनाने में देर नहीं करती है। फिर उनके पास कुर्सी छोड़ने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं रह जाता। हालांकि जहां तक नए लोगों या यूथ की बात है, तो ज्यादातर बिना कोई होमवर्क किए राजनीति में सफल होना चाहते हैं। किसी भी तरह से चुनाव लड़ना ही उनका एकमात्र मकसद होता है। हालांकि कैडर का हिस्सा न बन पाने के कारण उनकी राह मुश्किल होती जाती है। जबकि नई पीढ़ी के साथ उम्रदराज नेताओं की सलाह काफी हितकारी हो सकती है। उदाहरण रतन टाटा का ले सकते हैं। बेशक उन्होंने रिटायरमेंट ले लिया हो, लेकिन आज भी कंपनी में उनकी सलाह काफी मायने रखती है, क्योंकि इससे उसे फायदा होता है।

रास्ता रोक रहा वंशवाद

इंजीनियरिंग करने के बाद समाजसेवा और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर काम कर रहे आरटीआई एक्टिविस्ट गोपाल का मानना है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के रिटायरमेंट की कोई उम्र सीमा तय नहीं की जा सकती है। अगर नेता शारीरिक और मानसिक रूप से खुद को फिट मानते हैं, तो सक्रिय राजनीति में रहने में कोई दिक्कत नहीं है। यहां उम्र से ज्यादा खतरनाक मुद्दा वंशवाद की राजनीति है। इससे एक बड़ी युवा आबादी वाले देश में भी सच्चे और ईमानदार युवा खुद को ठगा सा महसूस करते हैं। मुश्किल यह भी है कि अगर एक गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि वाला युवा पॉलिटिक्स को च्वाइन करना चाहे, तो जिस तरह से राजनीति में उसकी ग्रूमिंग होनी चाहिए, वह नहीं होती है। इसलिए एक समय के बाद या तो युवा नेता हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं या फिर वे अपना रास्ता ही बदल देते हैं। इसके अलावा, एक स्थिति यह भी है कि इंडिया में यूथ पॉलिटिक्स में लेट एंट्री कर रहा है। अपने करियर को पूरा समय देने के बाद, उन्हें देश का ख्याल आता है और वे बदलाव की मुहिम में भागीदार बनते हैं।

इंटरनल डेमोक्रेसी नदारद

पत्रकारिता में हाथ आजमाने के अलावा यूनिसेफ के साथ काम कर चुके प्रेम मिश्रा कहते हैं, राजनीति का मतलब जनता का प्रतिनिधित्व करना है। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि आप शारीरिक रूप से दूसरों पर निर्भर हो गए हों, फिर भी चुनाव लड़ने की लालसा मन में रख रखी हो। चीन जैसे मुल्कों में एक निश्चित उम्र के बाद शीर्ष नेतृत्व खुद से ही अगली पीढ़ी को मौका देता है। भारत में अब तक ऐसा इसलिए संभव नहीं हो पा रहा है क्योंकि यहां पार्टियों के भीतर लोकतंत्र की जड़ें शायद अब तक उतनी गहरी नहीं हो पाई हैं, जितनी होनी चाहिए थी। इसलिए यहां राजनीति एक तरह से फैमिली बिजनेस बनकर रह गई है। समझदार युवाओं को मौका नहीं मिल रहा और बुजुर्ग नेता ही बार-बार चुनाव मैदान में उतर आते हैं। हां, इलेक्टोरल रिफॉ‌र्म्स के जरिए कुछ बदलाव हो सकते हैं। इसमें सिविल सोसायटी, राजनीतिक दल और चुनाव आयोग, सभी को मिलकर एक ऐसा फ्रेमवर्क या पॉलिसी डेवलप करनी होगी जिसमें पॉलिटिकल इनहेरिटेंस की कोई जगह न हो। पार्टियों के अंदर लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए सकारात्मक समीक्षा हो। अन्य लोकतांत्रिक देशों की नीतियों का अध्ययन कर भारतीय राजनीति में युवाओं की सक्रियता बढ़ाई जाए।

पॉलिटिकल रिफॉ‌र्म्स शुरू

सोशल एक्टिविस्ट और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन से जुड़े रहे सुनील लाल कहते हैं, इंडिया तेजी से सोशल रिफॉर्म की तरफ बढ़ रहा है। जहां तक पॉलिटिकल सिस्टम में रिफॉर्म की बात है, तो वह पूर्व चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन के समय से हो रहा है। हां, पिछले कुछ सालों में सोसायटी में भी इस मुद्दे को लेकर संवेदनशीलता और जागरूकता बढ़ी है। इसमें यूथ की सक्रियता और पार्टिसिपेशन सबसे ज्यादा रहा है। पॉलिटिकल पार्टीज भी इसे समझती हैं कि इस समय यूथ को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है। इसलिए नए चेहरों को आगे किया जा रहा है। पार्टियों ने कैंडिडेट की एज को ध्यान में रखते हुए टिकट देने की कोशिश की है। मेरा मानना है कि पॉलिटिक्स में एज लिमिट होनी चाहिए। सीनियर्स को चाहिए कि वे अपने अनुभव से युवाओं का मार्गदर्शन करें। जब सत्या नडेला माइक्रोसॉफ्ट जैसी दुनिया की जिम्मेदारी संभाल सकते हैं, खुद भारत में कई यंग सीईओ कंपनियों की बागडोर संभाल रहे हैं, तो फिर पॉलिटिक्स में उन्हें बड़ी जिम्मेदारी क्यों नहीं दी जा सकती है?

कमजोर हुई छात्र राजनीति

जेएनयू के रिसर्च स्कॉलर अभिनव प्रकाश को लगता है कि भारतीय राजनीति में रिटायरमेंट संभव नहीं है। क्योंकि यहां का सामाजिक ढांचा ही युवाओं को सक्रिय राजनीति में आने से रोकता है। करीब 38 साल पहले हुए छात्र आंदोलन से कुछेक बड़े नेता उभरे थे और अपनी राजनीतिक पहचान बनाई थी। लेकिन उसके बाद से अब तक एक लंबा अर्सा गुजर चुका है, जब छात्र राजनीति से कोई बड़ा नेता सामने नहीं आया। चुनाव में उसकी ही जीत होती है, जिसके पास धन और बाहुबल दोनों होता है। गैर-राजनीतिक परिवारों के युवाओं के लिए तो पॉलिटिक्स में जगह बनाना किसी चुनौती से कम नहीं। वही युवा राजनीति में स्थापित हो पाते हैं, जिनका संबंध किसी राजनीतिक घराने या परिवार से होता है। जिधर भी नजर दौड़ाएंगे, सत्ता (पावर) किसी खास जगह पर केंद्रित दिखाई देती है। अच्छा यह रहेगा कि इंटर पार्टी डेमोक्रेसी को सुदृढ़ किया जाए। देश के तमाम दलों के भीतर जिस तरह से वंशवाद को पनपने और बढ़ने का मौका देने की प्रवृत्ति होती है, उस मानसिकता को बदलने की ज्यादा जरूरत है। बीते कुछ सालों में एजुकेटेड युवाओं का एक तबका राजनीति की मुख्यधारा से जुड़ने की कोशिश कर रहा है। सोशल नेटवर्क और सड़कों पर अपनी आवाज बुलंद कर रहा है, ऐसे में एक उम्मीद तो जागती है। पिछले कुछ वर्षो में सरकार, नेताओं और सिस्टम के खिलाफ जिस तरह युवा आवाज मुखर होकर सामने आई है, उससे लगता है कि अब युवा राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने को तैयार हैं।

इंडिया इंक से सीखें सबक

रतन टाटा

75 साल की उम्र में टाटा ग्रुप की सारी एग्जीक्यूटिव जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर सलाहकार की भूमिका में आ गए।

साइरस मिस्त्री

2012 में 44 साल की उम्र में टाटा ग्रुप के चेयरमैन का पद संभाला। 2006 में टाटा संस के बोर्ड में शामिल हुए थे।

अजीम प्रेमजी

विप्रो के चेयरमैन की उम्र 68 साल है। बीते करीब चार दशक से कंपनी का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

ऋषद प्रेमजी

36 साल की उम्र में कंपनी के चीफ स्ट्रेटेजी ऑफिसर की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। 2007 में कंपनी ज्वाइन की थी।

लक्ष्मी मित्तल

दुनिया की सबसे बड़ी स्टील निर्माता कंपनी आर्सेलर मित्तल ग्रुप के सीईओ और चेयरमैन की उम्र 63 साल है।

आदित्य मित्तल

38 साल की उम्र में कंपनी के चीफ फाइनेंशियल ऑफिसर की रिस्पॉन्सिबिलिटी संभाल रहे हैं।

किशोर बियानी

फ्यूचर ग्रुप के सीईओ की उम्र 53 साल है। इन्हें इंडिया का रिटेल किंग भी कहा जाता है।

अशनी बियानी

फ्यूचर आइडियाज की डायरेक्टर का पद संभालने वाली अशनी परिवार की पहली महिला सदस्य भी हैं।

शिव नडार

एचसीएल के फाउंडर और चेयरमैन की उम्र 68 साल है। कंपनी के डेली अफेयर्स से खुद को अलग किया।

अगली पीढ़ी को मिले मौका चीन और दुनिया के कई देशों में एक निश्चित समय के बाद सत्ता का हस्तांतरण नई पीढ़ी को कर दिया जाता है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। जबकि यहां भी इस तरह की परंपरा बननी चाहिए। नेताओं को खुद से अगली पीढ़ी को मौका देना चाहिए। जहां तक राजनीति में रिटायरमेंट का सवाल है, उम्र का प्रतिबंध समस्या का समाधान नहीं है।

प्रकाश सिंह, पूर्व डीजीपी, यूपी

यंग जेनरेशन हो तैयार

उम्र के आधार पर किसी भी फील्ड में डिस्क्रिमिनेशन नहीं होना चाहिए, बल्कि मेरिटोक्रेसी होनी चाहिए।

मैंने कई सारे ऐसे लोगों के साथ काम किया है, जो ज्यादा उम्र के होते हुए भी अच्छे-खासे युवाओं को मात दे देते हैं। पॉलिटिक्स में भी यही बात लागू होती है, लेकिन उम्रदराज नेताओं के रिटायर होने से पहले यंग पॉलिटिशियंस की जेनरेशन तैयार करनी होगी, जो सिस्टम को संभाल सके।

अमीरा शाह

एमडी, मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर

अनुभव है जरूरी

राजनीति कोई नौकरी नहीं है। यह सेवा का क्षेत्र है। देश की सेवा का। इसमें रिटायरमेंट की कोई उम्र नहीं हो सकती है। अगर कोई राजनेता 80 वर्ष का होने के बावजूद शारीरिक और मानसिक रूप से सार्वजनिक जिंदगी में सक्रिय है, तो उनके अनुभव का फायदा उठाया जाना चाहिए। वह राजनीति में रहते हुए ही युवाओं का मार्गदर्शन कर सकता है। उन्हें रास्ता दिखा सकता है।

डॉ.अरुण भगत, रीडर, मास कम्युनिकेशन, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय

कॉन्सेप्ट : अंशु सिंह, मो. रजा

और मिथिलेश श्रीवास्तव


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