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एग्री बिजनेस धरती में सोना

देश की नई सरकार ने दूसरी हरित क्रांति के अलावा प्रोटीन क्रांति लाने की भी इच्छा भी जताई है। साथ ही मानसून पर निर्भरता कम करने की योजना है, एग्रीकल्चर और इससे जुड़े सेक्टर में रिसर्च और इनोवेशन के साथ-साथ तकनीकी इनवेस्टमेंट होने की पूरी संभावना है। जाहिर है, इससे एग्रीबिजनेस सेक्टर को फलने-फूलने का मौका मिलेगा और युवा समझ पाएंगे कि

By Edited By: Published: Tue, 22 Jul 2014 03:56 PM (IST)Updated: Tue, 22 Jul 2014 03:56 PM (IST)
एग्री बिजनेस धरती में सोना

देश की नई सरकार ने दूसरी हरित क्रांति के अलावा प्रोटीन क्रांति लाने की भी इच्छा भी जताई है। साथ ही मानसून पर निर्भरता कम करने की योजना है, एग्रीकल्चर और इससे जुड़े सेक्टर में रिसर्च और इनोवेशन के साथ-साथ तकनीकी इनवेस्टमेंट होने की पूरी संभावना है। जाहिर है, इससे एग्रीबिजनेस सेक्टर को फलने-फूलने का मौका मिलेगा और युवा समझ पाएंगे कि खेती से भी सोना बनाया जा सकता है....

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देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहींयह सेक्टर पचास फीसदी से ज्यादा आबादी को रोजगार भी उपलब्ध कराता है। इसके अलावा हाल के वर्र्षो में जिस तरह से कृषि क्षेत्र में आधुनिकीकरण हुआ है। इसमें नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल बढ़ा है, पारंपरिक खेती के साथ-साथ ऑर्गेनिक और इनोवेटिव फार्रि्मग हो रही है, उसने एग्रीकल्चर के प्रति समाज और खासकर युवाओं का नजरिया काफी हद तक बदला है। यही कारण है कि बीते कुछ समय में आइआइटी और आइआइएम से पास आउट यूथ ने मल्टीनेशनल कंपनियों की जॉब छोड़कर एग्रीकल्चर और एग्रीबिजनेस की ओर रुख किया है। इनके अलावा भी दूसरे सेक्टरों में काम करने वाले युवा हॉर्टिकल्चर, डेयरी,ऑर्गेनिक और पोल्ट्री फार्रि्मग जैसे पेशे से जुड़ रहे हैं। उन्हें गर्व है कि वे देश और किसानों के लिए कुछ सकारात्मक कर पा रहे हैं। उत्साहजनक यह भी है कि इससे युवाओं का शहरों की ओर पलायन कम होगा। वे अपने गांव में ही रोजगार हासिल कर सकते हैं और दूसरों को रोजगार दे भी सकते हैं।

एग्रीबिजनेस के मायने

आज के समय में जो भी कंपनी किसानों के साथ बिजनेस ट्रांजैकशन कर रही है, फिर चाहे वह खाद्यान्न, फल, फूल से जुड़ा हो या किसी सर्विस से, उसे एग्रीबिजनेस सेक्टर में शामिल किया जाता है। इसी तरह बीज, कीटनाशक, एग्रीकल्चर इक्विपमेंट की सप्लाई, एग्री-कंसल्टेंसी, एग्रो प्रोडक्ट्स की स्टॉकिंग, फसल का बीमा कराना या खेती के लिए लोन देने का काम एग्रीबिजनेस के अंतर्गत आता है। यूं कहें कि एग्री प्रोडक्शन में इनवेस्टमेंट से लेकर उसकी मार्केटिंग तक का काम एग्रीबिजनेस कहलाता है।

एग्री बेस्ड इंडस्ट्री में संभावना

भारत का एग्रीकल्चर सेक्टर आज सिर्फ अनाजों के उत्पादन तक सीमित नहींरह गया है, बल्कि इसमें बिजनेस अपॉच्र्युनिटीज भी काफी बढ़ चुकी हैं। फसलों की हार्वेस्टिंग से लेकर प्रोसेसिंग, पैकेजिंग, स्टोरेज और ट्रांसपोर्टेशन में काम करने के कई सारे मौके पैदा हुए हैं। इसके अलावा एडवांस टेक्नोलॉजी के आने से फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री और फूड रिटेल सेक्टर में अनेक प्रकार के रोजगार सृजित हुए हैं। इसी तरह जो युवा एग्रीबिजनेस मैनेजमेंट जैसे कोर्स करते हैं, उन्हें मल्टीनेशनल कंपनियों में अच्छे पे-पैकेज पर रखा जा रहा है। इसके अलावा एग्रीकल्चर और इससे रिलेटेड फील्ड के क्वालिफाइड यूथ के लिए वेयरहाउस, फर्टिलाइजर, पेस्टिसाइड, सीड और रिटेल कंपनी में तमाम तरह के विकल्प सामने आ चुके हैं।

पैशन ने जोड़ा एग्री से

गौरव चौधरी ने दिल्ली के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पोस्टग्रेजुएशन करने के बाद डब्ल्यूएसएन ग्लोबल सर्विसेज के साथ इकोनॉमिक एनालिस्ट के तौर पर काम किया। लेकिन एग्रीकल्चर के अपने पैशन से दूर नहीं रह सके और जॉब छोड़ एग्री-बिजनेस शुरू कर दिया। आज वे उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में एग्री-बिजनेस के अलावा एग्री फॉरेस्ट्री और डेयरी फार्मिंग के जरिए अच्छी कमाई कर रहे हैं।

रिटेल से हुआ फायदा

गौरव कहते हैं, पिता और परिवार के सपोर्ट से मैं चौधरी एग्री ट्रेडर्स के बैनर तले एग्रीकल्चर इनपुट्स (कीटनाशक, खाद, प्लांट ग्रोथ रेगुलेटर्स, बीज, स्पेयर्स आदि) का रिटेल बिजनेस कर रहा हूं। पिछले साल (2013) इस एग्री बिजनेस से करीब सात करोड़ रुपये का टर्न ओवर आया है, जिसे 10 करोड़ रुपये तक पहुंचाने का इरादा है।

फार्रि्मग में इनोवेशन

मैं इनोवेटिव फार्मिंग में विश्वास रखता हूं। इसलिए गन्ने और गेंहू की खेती के साथ ही पोपलर ट्री के कल्टिवेशन से भी जुड़ा हूं। छह साल में एक बार होने वाली इसकी फसल से प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर एक लाख रुपये तक का मुनाफा होता है। दरअसल, पोपलर ट्री की प्लाईवुड इंडस्ट्री में काफी डिमांड है। इसके साथ ही मैं कम खर्च पर फसलों के उत्पादन पर भी काम कर रहा हूं। मसलन धान की खेती। आमतौर पर दो तरीके से धान की बोआई हो सकती है। एक ट्रांसप्लांटेशन और दूसरा डायरेक्ट सीडींग के जरिए। भारत में ट्रांसप्लांटेशन का तरीका ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन अमेरिका और जापान जैसे देशों में सीधे खेतों में सीड ड्रिलींग की जाती है। इसमें पानी की खपत और लैंड प्रिपरेशन पर आने वाला खर्च कम होता है। मेरी कोशिश है कि यहां भी इसी तरीके से धान की खेती हो। साथ ही मशीन के जरिए ट्रांसप्लांटेशन कराने की योजना पर भी काम कर रहा हूं।

मैनपॉवर की डिमांड

वीरेन्द्र सिंह ठाकुर ने हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी से साइंस स्ट्रीम में ग्रेजुएशन करने के बाद मार्केटिंग ऐंड एचआर में एमबीए किया है। इसके बाद करीब आठ साल सेल्स फील्ड में काम किया। 2007 में वे एग्रीबिजनेस की अग्रणी कंपनी ग्लोबल एग्रीकल्चर सिस्टम से जुड़ गए और आज इंडिया के अलावा युगांडा, केन्या और अफगानिस्तान जैसे देशों में मेगा फूड पार्क, एग्रो एसइजेड से रिलेटेड प्रोजेक्ट्स को देख रहे हैं।

चैलेंजिंग है करियर

वीरेन्द्र कहते हैं, कंपनी मुख्य रूप से तीन तरह का काम करती है। पहला एग्रीबिजनेस कंसल्टेंसी, दूसरा अंगूर, अनार जैसे ताजे फल और सब्जियों का एक्सपोर्ट और तीसरा घरेलू बाजार में एग्रो प्रोडक्ट्स का बिजनेस, जो अलग-अलग राज्यों के कॉन्टैक्ट और कॉन्ट्रैक्ट किसानों के नेटवर्क के जरिए हासिल किए जाते हैं। मैंने कंसल्टेंसी के अलावा सप्लाई डिवीजन में काम किया है। इसमें किसानों से जुड़कर काम करने का एक अलग चैलेंज होता है। हर दिन कुछ नया सीखने को मिलता है।

जरूरत ट्रेन्ड मैनपॉवर की

वीरेन्द्र के अनुसार आज जैसे-जैसे लोगों की डिमांड बदल रही है, उसी मुताबिक एग्रीकल्चर सेक्टर में भी बदलाव आ रहे हैं। खासकर एग्रीबिजनेस में नए प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन ट्रेन्ड और स्किल्ड मैनपॉवर की कमी से इंफ्रास्ट्रक्चर, सप्लाई चेन और कोल्ड स्टोरेज को मैनेज करना एक बड़ा चैलेंज है। मुश्किल यह है कि एग्रीकल्चर सेक्टर में युवाओं की दिलचस्पी बढ़ाने को लेकर कोई कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। एग्रीकल्चर में आइटीआइ जैसा कोई इंस्टीट्यूट नहीं है, कोई डिप्लोमा कोर्स नहीं है। इसलिए इस गैप को भरना बेहद जरूरी है। इसके साथ ही स्कूली पाठ्यक्रम में एग्रीकल्चर को शामिल करने से भी फायदा होगा।

ऐसे होगा कृषि का प्रमोशन !

-प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के जरिए हर खेत तक पहुंचेगा पानी। योजना के लिए 1000 करोड़ रुपये का आवंटन।

-2014-15 में किसानों को आठ लाख रुपये कृषि ऋण देने का है लक्ष्य।

-सरकारी और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की मदद के लिए 5 हजार करोड़ रुपये का लॉन्ग टर्म क्रेडिट फंड होगा तैयार।

-कृषि उत्पादों की महंगाई कम करने के लिए 500 करोड़ रुपये का मूल्य स्थिरता फंड बनेगा।

-भंडारण के ढांचे को बेहतर करने के लिए 5 हजार करोड़ रुपये का वेयर हाउस इंफ्रास्ट्रक्चर फंड बनेगा।

कम मानसून, सूखे का सामना

-जलवायु परिवर्तन के लिए अनुकूलन निधि की होगी स्थापना। 100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया।

एग्री स्टडी ऐंड रिसर्च पर जोर

-आंध्रप्रदेश और राजस्थान में कृषि विश्वविद्यालय बनाए जाएंगे।

-तेलंगाना और हरियाणा में विशेष बागवानी विश्वविद्यालय तैयार किए जाएंगे। बजट में 200 करोड़ रुपये का किया प्रावधान।

-असम और झारखंड में 100 करोड़ रुपये की लागत से दो और उत्कृष्ट कृषि अनुसंधान संस्थान स्थापित किए जाएंगे।

-विदेशी पशुओं के विकास के लिए 50 करोड़ रुपये और अंतर्देशीय मछलीपालन में मत्स्य क्रांति शुरू करने के लिए भी 50 करोड़ रुपये का प्रावधान सरकार के नए बजट में किया गया है।

इनोवेटिव किसान

बिहार के खगड़िया में मेहसौड़ी गांव के संजीव कुमार ने खुद ही वर्मी कंपोस्ट ईजाद की है।

टिशू कल्चर से केले की खेती

1988 में बीएससी करने के बाद मैंने खेती करनी शुरू कर दी। 1990 में रबी फसल के लिए क्रॉप लोन लेने वाला जिले का पहला किसान बना। खुद से ही बर्मी कंपोस्ट तैयार की और केला, सब्जी, आलू की खेती शुरू की। तीन एकड़ जमीन में टिशू कल्चर से केले की खेती कर रहा हूं। चार साल से लगातार अच्छी फसल हो रही है। वैज्ञानिक तौर-तरीकों से खेती करने से बहुत फायदा हुआ है। जिले के दूसरे किसान भी मुझसे ट्रेनिंग लेकर ऑर्गेनिक खेती कर रहे हैं।

ट्रेनिंग से बदलाव

भागलपुर के बिहार एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी और समस्तीपुर के पूसा कृषि विज्ञान केंद्र से मॉडर्न खेती की ट्रेनिंग ने चंद्रशेखर मंडल की जिंदगी बदल दी।

श्रीविधि टेक्निकबड़े काम की

किसान मंडल के नाम से एक ग्रुप बनाया और गेहूं की खेती में श्रीविधि टेक्निक यूज करने लगा। गेहूं के बाद सूर्यमुखी, हरी मिर्च और टमाटर पर भी यह टेक्निक आजमाई। नतीजा अच्छी पैदावार के रूप में सामने आया। यही नहीं मैंने 300 पौधों वाला आम का एक बगीचा भी तैयार किया। खेती और बागवानी में मंडल की सफलता से गांव के दूसरे किसान भी श्रीविधि टेक्नीक से खेती करने लगे और धीरे-धीरे नतीजे अच्छे आ रहे हैं।

मीठी क्रांति का आगाज

पंजाब के शहीद भगत सिंह नगर (नवांशहर) के गांव पोजेवाल स्थित ग्रीन वैली स्टीविया बायोटेक प्राइवेट लिमिटेड के सीएमडी राजपाल सिंह गांधी भारत में स्टीविया नामक मीठे पौधे (मीठी तुलसी) की हाइटेक खेती के जरिये मीठी क्रांति लाना चाहते हैं।

वकील से बने किसान

मैंने एलएलबी की है। लॉ की प्रैक्टिस भी ठीक चल रही थी, लेकिन जब पंजाब में जमीन खरीदी, तो कुछ अलग करने का मन हुआ। इसी बीच यूरोप जाने का मौका मिला। वहां इजरायल में हाइटेक फार्मिंग देख कर मन बना लिया कि अपनी जमीन से कम लागत में अधिक फायदे वाली कोई फसल उगाऊंगा। तभी स्टीविया के बारे में पता चला, तो चीन जाकर उसे उपजाने की तकनीक की जानकारी हासिल की। मुझे पता चला कि चीन की भौगोलिक स्थिति और तापमान इस पौधे के लिए सही नहीं है, फिर भी वह इसका सबसे बड़ा उत्पादक है। दूसरी ओर भारत में इसकी उपज के लिए परिस्थितियां 100 गुणा बेहतर हैं। इस तरह 2004 में मैंने स्टीविया की खेती शुरू कर दी।

चुनौतियों के बीच सफलता

मात्र स्टीविया के पत्ते बेचना फायदेमंद नहीं था। हमें उसके पत्तों से सफेद मीठा पाउडर बनाना था और उसके लिए एक्सट्रैक्शन यूनिट भारत में नहीं था। हमने मिनिस्ट्री आफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी के बायोटेक्नोलॉजी विभाग को अप्रोच किया। हमें इनोवेशन स्कीम के तहत सॉफ्ट लोन जारी किया गया। हमने पत्तों से एक्सट्रैक्शन की मशीनरी का प्रबंध किया। टिशु कल्चर लैब सेट अप किया। यहां तैयार किए पौधों से पांच साल तक अच्छी फसल मिलती है। प्रति एकड़ से 1500-1800 किलो पत्ते प्रति वर्ष मिलते हैं, जो प्रति किलो 100-120 रुपये तक बिकते हैं। इस प्रकार डेढ़ से पौने दो लाख रुपये की कमाई होती है। नेशनल हॉर्टिकल्चर बोर्ड 40 प्रतिशत सब्सिडी देता है।

जमीन से ऊपर खेती

देहरादून के जीपी सिंह नागपुर में इंडोरामा सिंथेटिक में बतौर ट्रांसपोर्ट अफसर काम करते थे। रोज 15-15 घंटे काम करना पड़ता था। उनकी मां ने तंग आकर कहा, दिनभर दूसरों के लिए खटता रहता है। इतनी मेहनत अपने लिए क्यों नहीं करता। यह बात दिल में ऐसी चुभी कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी।

सब्जी से की शुरुआत

मेरे सामने चुनौती थी कि करें तो क्या करें। बहुत सोचा, तो यही समझ में आया कि खेती कर सकता हूं। देहरादून के शंकरपुर-हुकूमतपुर में तीन बीघा जमीन खरीदी और डेरी फार्म खोला। इसमें कोई फायदा नहीं हुआ। फिर ट्रेडिशनल खेती भी की, मगर इसका हाल भी डेरी जैसा रहा। 1998 में सब्जी की खेती शुरू की, जिससे अच्छी इनकम हुई।

फूलों ने बिखेरी खुशबू

2003 में महाराष्ट्र से ट्रेनिंग लेने के बाद 1600 वर्ग मीटर में पॉलीहाउस का प्रोजेक्ट राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड को दिया। प्रोजेक्ट मंजूर हो गया। पहले साल रंगीन शिमला मिर्च उगाई। इसमें हर साल 15 लाख से अधिक का मुनाफा होने लगा। इससे उत्साहित होकर 53 बीघा जमीन और खरीद ली। 2005 में कारनेशन फ्लावर की खेती शुरू कर दी। आइडिया काम कर गया। अप्रैल 2007 में ही करीब 27 लाख रुपये के फूलों की बिक्री हुई।

जमीन एक, खेती डबल

अक्सर जमीन की कमी अखरती थी। अमेरिका में होने वाली हाइड्रोफोनिक खेती के बारे में पता चला, जिसमें हवा में फसलें उगाई जाती हैं। फिर मैंने भी जमीन के तीन फुट ऊपर ही हाइड्रोफोनिक खेती शुरू कर दी। अभी तक इसके लिए नारियल की जूट को बतौर मिट्टी इस्तेमाल किया जा रहा था, लेकिन मैंने लकड़ी के बुरादे का इस्तेमाल शुरू किया है।

सब्जियों का बेस्ट मैनेजर

कौशलेन्द्र कुमार ने आइआइएम से एमबीए किया है। लेकिन आज सब्जी बेचकर बिहार के हजारों लोगों की तकदीर भी बदल डाली है। राज्य में एक तरह की एग्रो क्रांति ला दी है। लेकिन यह सौ फीसदी सच है।

बिजनेस का जज्बा

बिहार के नालन्दा और नवादा में शुरुआती एजुकेशन पूरी करने के बाद 2003 में गुजरात के जूनागढ़ से एग्रो इंजीनियरिंग से बीटेक किया। कुछ समय जॉब की, लेकिन मन नहीं लगा, तो कैट की तैयारी भी की। 2005-07 सेशन में आइआइएम अहमदाबाद में एडमिशन ले लिया। लेकिन वहां से भी मन उचट गया। जॉब की बजाय अपना बिजनेस करना चाहता था। मेरे बैच में 320 में से 47 स्टूडेंट्स बिहार के थे। जब यह सारी बातें मैं उन क्लासमेट्स से करता था, तो वे मजाक उड़ाया करते थे, लेकिन मेरे प्रोफेसर पीयूष सिन्हा ने हौसला बढ़ाया।

अवार्ड मनी से बिजनेस

जुलाई, 2007 से मिशन एग्री बिजनेस शुरू हुआ। मुझे लगा कि लोगों को ताजी सब्जी सही वजन और फिक्स रेट दिया जाए, तो अच्छा बिजनेस चल सकता है। मेरे पास नेस्ले अवार्ड का 25 हजार, गोदरेज अवार्ड का 30 हजार और समर ट्रेनिंग का कुछ पैसा बचा था। 6 महीने रिसर्च करने के बाद अपनी मां के नाम पर कौशल्या फाउंडेशन की नींव रखी। कम पैसे प्रॉब्लम क्रिएट कर रहे थे। ऐसे में यूनाइटेड नेशंस की संस्था एफडब्लूडब्लूबी ने पांच लाख रुपये का कर्ज दिया। बिहार सरकार से भी मदद मिली, जिससे मैं आगे बढ़ता गया।

फिक्स्ड रेट, फिक्स्ड गोल

आज मेरे मिशन में 3000 से ज्यादा किसान और 600 से ज्यादा सब्जी विक्रेता जुड़े हैं। पटना में 50 से ज्यादा ठेलों पर सब्जी बिक रही है। रोज करीब 70,000 रुपये की सब्जियां बिक जाती हैं। अगली शुरुआत यूपी से होगी।

आइआइटी से खलिहान तक

बिहार में वैशाली के दो नौनिहालों मनीष और शशांक ने दूसरे ब्राइट स्टूडेंट्स की तरह ही इंजीनियर बनने का सपना देखा था। इसके लिए आइआइटी में एडमिशन भी लिया। लेकिन मशीनों की जिंदगी उन्हें रास नहीं आई और उन्होंने एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग को अपना लिया।

वे भी आम स्टूडेंट्स थे

हम दोनों 2002 में बिहार से दिल्ली आइआइटी की तैयारी करने आए थे। कोचिंग के दौरान ही दोस्ती हुई। दोनों की मेहनत रंग लाई। मनीष को 2004 में आइआइटी दिल्ली और शशांक को 2005 में आइआइटी खड्गपुर में एडमिशन मिल गया। 2009 में शशांक गुड़गांव की एफएमसीजी फर्म में जॉब करने लगे, लेकिन दोनों को यह फील्ड रास नहीं आई।

किसानों को समझाया

अक्टूबर 2010 में वे दोनों वैशाली के 14 किसानों से मिले और उन्हें ऑर्गेनिक फार्मिंग के बारे में समझाया। उन्हें गेहूं की ट्रेडिशनल खेती छोड़कर राजमा की खेती करने को एनकरेज किया, लेकिन बात किसानों को समझ नहीं आई। किसी तरह 18 किसान अपनी 6 एकड़ जमीन पर प्रयोग करने को तैयार हो गए। नतीजे अच्छे आए। प्रोडक्शन ढ़ाई गुना हुआ।

बिना पानी भी मुनाफा

हमने फार्म एन फार्मर्स नाम से एक एनजीओ बना लिया और इसके जरिए संगठित रूप से किसानों की मदद करने लगे। वैशाली के बाद पूर्णिया में मक्के की खेती कराई, वहां भी करीब तीन गुना मुनाफा हुआ। बक्सर में सिंचाई की प्रॉब्लम थी। हमने वहां औषधीय फसलें उगाने को कहा। एनजीओ के जरिए हमने वैज्ञानिक तरीके से खेती करना सिखाया। किसानों और फूड प्रोसेसिंग कंपनियों के बीच से बिचौलियों का रोल खत्म कर दिया।

कीटनाशक बिना बढ़ाई पैदावार

सिकंदराबाद स्थित सेन्टर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर और पेस्टीसाइड के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले डॉ. जी.वी. रमनजनेयुलु को आमिर खान के शो सत्यमेव जयते में सबने सुना है। उन्होंने मेडिकल और इंजीनियरिंग की बजाय एग्रीकल्चर को चुना। उसमें पीएचडी की और एग्रीकल्चर साइंटिस्ट के तौर पर काम किया। इस बीच उन्होंने सिविल सर्विसेज एग्जाम भी क्लियर किया, लेकिन एग्रीकल्चर से खुद को अलग नहीं कर सके। सरकारी नौकरी से समय से पहले रिटायरमेंट लिया और नॉन पेस्टिसाइडल मैनेजमेंट ( एनपीएम) से खेती को बढ़ावा देने की मुहिम में जुट गए।

पेस्टीसाइड फ्री फार्मिंग

जी.वी. रमनजनेयुलु ने बताया कि एनपीएम के तहत चिली गार्लिक स्प्रे और फेरेमोन ट्रैप्स का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे क्रॉप फ्रेंडली कीड़ों-पतंगों को नुकसान नहीं पहुंचता है। 2004 में शुरू किए गए इस अभियान से आंध्रप्रदेश में कीटनाशकों का इस्तेमाल करीब 50 प्रतिशत तक घट गया है। आज राच्य में करीब 35 लाख एकड़ खेती बिना कीटनाशकों के उपयोग के की जाती है। इससे किसानों पर आर्थिक बोझ नहीं पड़ता। वे कहते हैं, सीएसए के अलावा सहज अहारम नाम से एक रिटेल आउटलेट संचालित किया जाता है, जहां किसानों से खरीदे गए पेस्ट फ्री दाल, ब्राउन राइस, जागरी, टूथ पाउडर, शैम्पू, स्नैक्स आदि की बिक्री भी की जाती है।

बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया

झारखंड की राजधानी रांची के करीब सेमरा (इटकी) गांव में सामुदायिक कृषि विकास समिति ने कृषि के क्षेत्र में कमाल हासिल किया है। गांव के किसान आधुनिक तकनीक का सहारा लेकर अच्छा उत्पादन कर रहे हैं। इस पूरे अभियान के प्रेरणास्त्रोत हैं गांव के दो युवा किसान मनीष तिर्की और सुनीत तिर्की। दोनों ने मिलकर करीब 40 एकड़ बंजर भूमि को कृषि योग्य बना दिया। आज यह भूमि किसानों के लिए रोजगार का बड़ा साधन है।

दूसरे किसानों को भी जोड़ा साथ में

दोनों ने अपने साथ गांव के अन्य किसानों को भी जोड़ा। करीब 80 किसानों का एक ग्रुप बनाया। आज ये किसान आसपास के दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा बन रहे हैं। इस संबंध में मनीष और सुनीत का कहना है कि खेती से उत्तम करियर कोई दूसरा नहीं हो सकता। इसके लिए उन्होंने किसानों का समूह बनाया। फिर जमीन की व्यवस्था की। डीप बोरिंग और बिजली की व्यवस्था कर सिंचाई के लिए मजबूत संसाधन जुटाए। फिर टपक पद्धति से फसल को सिंचने का काम किया। इससे खेती को उन्नत बनाने की दिशा में काफी मदद मिली है। उनका कहना है कि फार्रि्मग में नई टेक्नोलॉजी को अपना कर इसमें काफी अच्छा किया जा सकता है। कैशक्रॉप के जरिये फामर्स अच्छा पैसा कमा रहे हैं।

बैंकिंग में चमकता करियर

कुछ लोग चुनौती को कठिन मानकर हिम्मत हार बैठते हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो चुनौतियों को पार करते हुए खास मुकाम हासिल कर लेते हैं। बदायूं जिला के सहसवान तहसील क्षेत्र के गांव भोयस निवासी पंडित लीलाधर शर्मा को ऐसे ही लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने फार्रि्मग को एक चुनौती की तरह स्ीकार किया और आज अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। एग्रीकल्चर में उन्होंने एक खास मुकाम भी हासिल कर लिया है। यहां तक कि रिकार्ड प्रोडक्शन के लिए लीलाधर शर्मा को दो बार सम्मानित भी किया जा चुका है। आज लीलाधर क्षेत्र के युवाओं के लिए प्रेरणा बने हुए हैं।

तीन बीघे से की शुरुआत

लीलाधर शर्मा 1978 में तीन बीघा भूमि में 22 कुंतल से ज्यादा गेहूं पैदा कर रिकार्ड फसलोत्पादन किया। शर्मा को इसके लिए पंतनगर की बीज कंपनी द्वारा पुरस्कृत भी किया गया। फरवरी में हाइब्रिड मक्का की 8.25 कुंतल पैदावार के लिए टाटा कैमिकल्स ऐंड फर्टिलाइजर्स ने लीलाधर शर्मा को पुरस्कृत भी किया। खेती के अलावा लीलाधर शर्मा ने एक एकड़ भूमि में बागवानी के नए-नए प्रयोग शुरू किए हैं। उन्होंने कश्मीरी सेब, अनार, लीची, आम, चीकू, आलू बुखारा, आड़ू जैसे फलदार पेड़ लगाए। इसके अलावा चीड़, ऐरोफेरिया, देवदार चंदन, आम्रपाली, सागौन, ब्राहमी, रूद्राक्ष, पानपत्ता, अपराजिता, अकरकरा जैसे दुर्लभ प्रजाति के पौधे विपरीत जलवायु होने के बावजूद विकसित किए। उन्हें इस प्रयोग में काफी सलफता मिली।

आम की किस्म ईजाद की

लीलाधर ने विष्णुभोग नाम से आम की एक नई प्रजाति ईजाद की है। उनका कहना है कि इस आम को सेब की तरह छिलके समेत खाया जा सकता है। उनका कहना है कि खेती कर वे अपने आपको प्रकृति से ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। वे आज के युवाओं को भी कृषि से जुड़ने की अपील करते हैं। उनका कहना है कि आज भारत को युवा फार्मर्स की जरूरत है।

तकनीक से फार्रि्मग हाइटेक

तकनीक ने आज फार्मिंग को भी हाइटेक कर दिया है। अब फार्मिंग खेत में सिर्फ गेहूं-चावल या दाल-सब्जी पैदा करना नहीं है, बल्कि आज फार्मिंग का स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है। इसकी एक मिसाल पेश की है सोनीपथ के कवंल सिंह चौहान ने। चौहान ने खेती के साथ अपनी एजुकेशन भी पूरी की और आज कैश क्रॉप के जरिये न सिर्फ अच्छा अर्न कर रहे हैं बल्कि अपने जैसे बहुत से अन्य किसानों को एम्प्लॉमेंट का जरिया भी बने हैं। एग्रीकल्चर में उनके योगदान के लिए सरकार ने उन्हें कई बार सम्मानित भी किया है। चौहान 1997 में पहली बार बेबीकॉर्न और स्वीट कॉर्न की फार्मिंग शुरू की। शुरुआत में बहुत से चैलेंजेज आए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वर्ष 2000 में उन्होंने मशरूम की भी फार्मिंग शुरू कर। 2009 में उन्होंने मशरूम, बेबी कर्न और स्वीट कॉर्न की प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित की। इस यूनिट से न सिर्फ उन्हें फायदा हुआ बल्कि गांव के अन्य किसानों को भी फायदा हुआ। चौहान ने शेलमाउंट फ्रूट कॉकटेल नाम से एक प्रोडक्ट भी मार्केट में लॉन्च किया जिससे उन्हें काफी फायदा हुआ।

फार्मिंग में भी फ्यूचर

चौहान मानते हैं कि आज युवाओं का इट्रेस्ट फार्मिंग में नहीं है। आज यूथ छोटी-मोटी नौकरी कर गुजारा कर लेता है, लेकिन अगर तकनीक का सहारा लेकर फार्मिंग की जाए, तो उसमें काफी प्रॉफिट है। चौहान को 2013 में ग्लोबल एग्रीकल्चर सम्मिट में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने और 2014 में पंजाब के मुख्यामंत्री प्रकाश सिंह बादल ने सम्मानित किया।

ग्रोथ के अच्छे चांस

चौहान का मानना है कि फार्मिंग में ग्रोथ के बहुत चांस हैं। आज गवर्नमेंट से भी फर्मिंग के लिए काफी सहुलियत मिलती है। फार्मर को ट्रेनिंग के साथ गवर्नमेंट फाइनैंशियल मदद भी करती है।

ऑर्गेनिक खेती बनाए मालामाल

ऑर्गेनिक खेती का जिक्र तो आजकल बहुत हो रहा है, लेकिन सवाल यह है कि अगर किसी को इसमें करियर बनाना है, तो वह क्या करे।

क्या है?

यह ऐसी खेती है, जिसमें खाद, पेस्टिसाइड जैसी सिंथेटिक चीजों की बजाय ऑर्गेनिक चीजें जैसे गोबर, वर्मी कंपोस्ट, बॉयोफर्टिलाइजर्स, क्रॉप रोटेशन यूज किया जाता है।

फायदे

कम जमीन में कम लागत में इस तरीके से ट्रेडिशनल खेती के मुकाबले कहींज्यादा उत्पादन होता है। फसलों में जरूरी पोषक तत्वों को संरक्षित रखता है और नुकसानदेह केमिकल्स से दूर करता है। पानी बचाता है। जमीन को लंबे समय तक फर्टाइल बनाए रखता है। एनवॉयरोर्नमेंट बैलेंस में मददगार है। ग्लोबल वार्रि्मग के खतरे से निपटने के लिए बहुत जरूरी है।

कैसे करें शुरुआत?

अगर आपको ऑर्गेनिक खेती शुरू करनी है, तो सबसे पहले आपको इसका प्रोजेक्ट या ब्लू प्रिंट बनाना होगा। यह तय करना होगा कि कितनी जमीन पर यह खेती करेंगे। जमीन की लोकेशन क्या है? जमीन किस फसल के लिए अच्छी है? आपका बजट कितना है? यह प्रोजेक्ट किसी भी चार्टर्ड एकाउंटेंट से बनवा सकते हैं। इसके बाद आपको फॉर्म 1 ए-1, 1 ए-3, 1जी और फॉर्म 11 भरकर रजिस्ट्रेशन फीस के साथ अपने राज्य के डिपार्टमेंट ऑफ ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन में जमा करना होगा। दिल्ली स्थित पूसा इंस्टीट्यूट से भी आप मदद ले सकते हैं।

सरकार देती है सब्सिडी

एग्रीकल्चरल साइंटिस्ट्स आपकी जमीन की जांच करेंगे और यह तय करेंगे कि इसकी मिट्टी किस फसल की खेती के लिए अच्छी है। इसके बाद आपका प्रोजेक्ट एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट में पास होने के लिए भेज दिया जाएगा। ऑर्गेनिक फार्मिंग तकरीबन हर राज्य में सरकार 80 से 90 फीसदी तक सब्सिडी देती है। मतलब आपको पूरे प्रोजेक्ट में 10 से 20 फीसदी ही इनवेस्ट करना होगा। प्रोजेक्ट पास होने के बाद ऑर्गेनिक फार्रि्मग टेक्निक वाली कंपनियां सेटअप लगाने के लिए आपसे खुद संपर्क करती हैं। सरकार से मिले पैसों से ये कंपनियां आपकी जमीन पर ग्रीन हाउस इफेक्ट और ऑर्गेनिक फार्रि्मग के लिए सेटअप लगाती है। आपको ट्रेनिंग भी देती हैं।

पूरे देश में चल रहा प्रोजेक्ट

सरकार की ओर से नेशनल ऑर्गेनिक फार्रि्मग प्रोजेक्ट भी चलाया जा रहा है। इसके सेंटर की वेबसाइट www.ncof.dacnet.nic.in से आप और भी जानकारी ले सकते हैं। दिल्ली स्थित पूसा इंस्टीट्यूट से भी पूरी जानकारी और ट्रेनिंग ले सकते हैं। ज्यादा जानकारी के लिए वेबसाइट www.icar.org.in देख सकते हैं।

सिर्फ मानसून पर डिपेंड नहींफार्रि्मग

एग्रीकल्चर अब पूरी तरह से मानसून पर डिपेंड नहीं है। साइंटफिक तरीके से अगर खेती की जाए, तो फसल भी अच्छी होती है और पानी भी कम लगता है। पहले जैसे सूखे के हालात अब नहीं पैदा होते। अब बारिश के पानी का स्टोरेज भी किया जाता है। इससे बारिश कम होने पर भी फसलों को पर्याप्त पानी मिल जाता है।

सेल्फ एम्प्लॉयमेंट का जरिया

आज यूथ एग्रीकल्चर में कम दिलचस्पी लेता है, लेकिन एग्रीकल्चर सेल्फ एम्प्लॉयमेंट का सबसे अच्छा साधन है। आज एग्रीकल्चर फील्ड में 50 परसेंट ऐसे लोगों को एम्प्लॉमेंट मिलता है जिन्हें कहीं एम्प्लॉमेंट नहीं मिलता। यही नहीं एग्रीकल्चर से अब अच्छी अर्निंग भी की जा सकती है। बहुत से प्रोफेशनल फार्मर साइंटफिक फार्मिंग के जरिये न सिर्फ अच्छा पैसा कमा रहें बल्कि दूसरों को भी एम्प्लॉमेंट दे रहे हैं। यही नहीं प्राइवेट और गवर्नमेंट दोनों सेक्टरों में एग्रीकल्चर का स्कोप तेजी से बढ़ रहा है। आज आयुर्वेद मेडिसिन और प्रोडक्ट पूरी तरह से एग्रीकल्चर पर डिपेंड है।

बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया

झारखंड की राजधानी रांची के करीब सेमरा (इटकी) गांव में सामुदायिक कृषि विकास समिति ने कृषि के क्षेत्र में कमाल हासिल किया है। गांव के किसान आधुनिक तकनीक का सहारा लेकर अच्छा उत्पादन कर रहे हैं। इस पूरे अभियान के प्रेरणास्त्रोत हैं गांव के दो युवा किसान मनीष तिर्की और सुनीत तिर्की। दोनों ने मिलकर करीब 40 एकड़ बंजर भूमि को कृषि योग्य बना दिया। आज यह भूमि किसानों के लिए रोजगार का बड़ा साधन है।

दूसरे किसानों को भी जोड़ा साथ में

दोनों ने अपने साथ गांव के अन्य किसानों को भी जोड़ा। करीब 80 किसानों का एक ग्रुप बनाया। आज ये किसान आसपास के दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा बन रहे हैं। इस संबंध में मनीष और सुनीत का कहना है कि खेती से उत्तम करियर कोई दूसरा नहीं हो सकता। इसके लिए उन्होंने किसानों का समूह बनाया। फिर जमीन की व्यवस्था की। डीप बोरिंग और बिजली की व्यवस्था कर सिंचाई के लिए मजबूत संसाधन जुटाए। फिर टपक पद्धति से फसल को सिंचने का काम किया। इससे खेती को उन्नत बनाने की दिशा में काफी मदद मिली है। उनका कहना है कि फार्रि्मग में नई टेक्नोलॉजी को अपना कर इसमें काफी अच्छा किया जा सकता है। कैशक्रॉप के जरिये फामर्स अच्छा पैसा कमा रहे हैं।

फार्रि्मग से मिली पहचान

कुछ लोग चुनौती को कठिन मानकर हिम्मत हार बैठते हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो चुनौतियों को पार करते हुए खास मुकाम हासिल कर लेते हैं। बदायूं जिला के सहसवान तहसील क्षेत्र के गांव भोयस निवासी पंडित लीलाधर शर्मा को ऐसे ही लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने फार्रि्मग को एक चुनौती की तरह स्ीकार किया और आज अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। एग्रग्रीकल्चर में उन्होंने एक खास मुकाम भी हासिल कर लिया है। यहां तक कि रिकार्ड प्रोडक्शन के लिए लीलाधर शर्मा को दो बार सम्मानित भी किया जा चुका है। आज लीलाधर क्षेत्र के युवाओं के लिए प्रेरणा बने हुए हैं।

तीन बीघे से की शुरुआत

लीलाधर शर्मा 1978 में तीन बीघा भूमि में 22 कुंतल से ज्यादा गेहूं पैदा कर रिकार्ड फसलोत्पादन किया। शर्मा को इसके लिए पंतनगर की बीज कंपनी द्वारा पुरस्कृत भी किया गया। फरवरी में हाइब्रिड मक्का की 8.25 कुंतल पैदावार के लिए टाटा कैमिकल्स ऐंड फर्टिलाइजर्स ने लीलाधर शर्मा को पुरस्कृत भी किया। खेती के अलावा लीलाधर शर्मा ने एक एकड़ भूमि में बागवानी के नए-नए प्रयोग शुरू किए हैं। उन्होंने कश्मीरी सेब, अनार, लीची, आम, चीकू, आलू बुखारा, आड़ू जैसे फलदार पेड़ लगाए। इसके अलावा चीड़, ऐरोफेरिया, देवदार चंदन, आम्रपाली, सागौन, ब्राहमी, रूद्राक्ष, पानपत्ता, अपराजिता, अकरकरा जैसे दुर्लभ प्रजाति के पौधे विपरीत जलवायु होने के बावजूद विकसित किए। उन्हें इस प्रयोग में काफी सलफता मिली।

आम की किस्म ईजाद की

लीलाधर ने विष्णुभोग नाम से आम की एक नई प्रजाति ईजाद की है। उनका कहना है कि इस आम को सेब की तरह छिलके समेत खाया जा सकता है। उनका कहना है कि खेती कर वे अपने आपको प्रकृति से ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। वे आज के युवाओं को भी कृषि से जुड़ने की अपील करते हैं। उनका कहना है कि आज भारत को युवा फार्मर्स की जरूरत है।

तकनीक से फार्रि्मग हाइटेक

तकनीक ने आज फार्मिंग को भी हाइटेक कर दिया है। अब फार्मिंग खेत में सिर्फ गेहूं-चावल या दाल-सब्जी पैदा करना नहीं है, बल्कि आज फार्मिंग का स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है। इसकी एक मिसाल पेश की है सोनीपथ के कवंल सिंह चौहान ने। चौहान ने खेती के साथ अपनी एजुकेशन भी पूरी की और आज कैश क्रॉप के जरिये न सिर्फ अच्छा अर्न कर रहे हैं बल्कि अपने जैसे बहुत से अन्य किसानों को एम्प्लॉमेंट का जरिया भी बने हैं। एग्रीकल्चर में उनके योगदान के लिए सरकार ने उन्हें कई बार सम्मानित भी किया है। चौहान 1997 में पहली बार बेबीकॉर्न और स्वीट कॉर्न की फार्मिंग शुरू की। शुरुआत में बहुत से चैलेंजेज आए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वर्ष 2000 में उन्होंने मशरूम की भी फार्मिंग शुरू कर। 2009 में उन्होंने मशरूम, बेबी कर्न और स्वीट कॉर्न की प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित की। इस यूनिट से न सिर्फ उन्हें फायदा हुआ बल्कि गांव के अन्य किसानों को भी फायदा हुआ। चौहान ने शेलमाउंट फ्रूट कॉकटेल नाम से एक प्रोडक्ट भी मार्केट में लॉन्च किया जिससे उन्हें काफी फायदा हुआ।

फार्मिंग में भी फ्यूचर

चौहान मानते हैं कि आज युवाओं का इट्रेस्ट फार्मिंग में नहीं है। आज यूथ छोटी-मोटी नौकरी कर गुजारा कर लेता है, लेकिन अगर तकनीक का सहारा लेकर फार्मिंग की जाए, तो उसमें काफी प्रॉफिट है। चौहान को 2013 में ग्लोबल एग्रीकल्चर सम्मिट में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने और 2014 में पंजाब के मुख्यामंत्री प्रकाश सिंह बादल ने सम्मानित किया।

ग्रोथ के अच्छे चांस

चौहान का मानना है कि फार्मिंग में ग्रोथ के बहुत चांस हैं। आज गवर्नमेंट से भी फर्मिंग के लिए काफी सहुलियत मिलती है। फार्मर को ट्रेनिंग के साथ गवर्नमेंट फाइनैंशियल मदद भी करती है।

ऑर्गेनिक खेती बनाए मालामाल

ऑर्गेनिक खेती का जिक्र तो आजकल बहुत हो रहा है, लेकिन सवाल यह है कि अगर किसी को इसमें करियर बनाना है, तो वह क्या करे।

क्या है?

यह ऐसी खेती है, जिसमें खाद, पेस्टिसाइड जैसी सिंथेटिक चीजों की बजाय ऑर्गेनिक चीजें जैसे गोबर, वर्मी कंपोस्ट, बॉयोफर्टिलाइजर्स, क्रॉप रोटेशन यूज किया जाता है।

फायदे

कम जमीन में कम लागत में इस तरीके से ट्रेडिशनल खेती के मुकाबले कहींज्यादा उत्पादन होता है। फसलों में जरूरी पोषक तत्वों को संरक्षित रखता है और नुकसानदेह केमिकल्स से दूर करता है। पानी बचाता है। जमीन को लंबे समय तक फर्टाइल बनाए रखता है। एनवॉयरोर्नमेंट बैलेंस में मददगार है। ग्लोबल वार्रि्मग के खतरे से निपटने के लिए बहुत जरूरी है।

कैसे करें शुरुआत?

अगर आपको ऑर्गेनिक खेती शुरू करनी है, तो सबसे पहले आपको इसका प्रोजेक्ट या ब्लू प्रिंट बनाना होगा। यह तय करना होगा कि कितनी जमीन पर यह खेती करेंगे। जमीन की लोकेशन क्या है? जमीन किस फसल के लिए अच्छी है? आपका बजट कितना है? यह प्रोजेक्ट किसी भी चार्टर्ड एकाउंटेंट से बनवा सकते हैं। इसके बाद आपको फॉर्म 1 ए-1, 1 ए-3, 1जी और फॉर्म 11 भरकर रजिस्ट्रेशन फीस के साथ?अपने राज्य के डिपार्टमेंट ऑफ ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन में जमा करना होगा। दिल्ली स्थित पूसा इंस्टीट्यूट से भी आप मदद ले सकते हैं।

सरकार देती है सब्सिडी

एग्रीकल्चरल साइंटिस्ट्स आपकी जमीन की जांच करेंगे और यह तय करेंगे कि इसकी मिट्टी किस फसल की खेती के लिए अच्छी है। इसके बाद आपका प्रोजेक्ट एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट में पास होने के लिए भेज दिया जाएगा। ऑर्गेनिक फार्मिंग तकरीबन हर राज्य में सरकार 80 से 90 फीसदी तक सब्सिडी देती है। मतलब आपको पूरे प्रोजेक्ट में 10 से 20 फीसदी ही इनवेस्ट करना होगा। प्रोजेक्ट पास होने के बाद ऑर्गेनिक फार्रि्मग टेक्निक वाली कंपनियां सेटअप लगाने के लिए आपसे खुद संपर्क करती हैं।

पूरे देश में चल रहा प्रोजेक्ट

सरकार से मिले पैसों से ये कंपनियां आपकी जमीन पर ग्रीन हाउस इफेक्ट और ऑर्गेनिक फार्रि्मग के लिए सेटअप लगाती है। आपको ट्रेनिंग भी देती हैं। सरकार की ओर से नेशनल ऑर्गेनिक फार्रि्मग प्रोजेक्ट भी चलाया जा रहा है। इसके सेंटर की वेबसाइट www.ncof.dacnet.nic.in से आप और भी जानकारी ले सकते हैं। इसके अलावा आप दिल्ली स्थित पूसा इंस्टीट्यूट से भी पूरी जानकारी और ट्रेनिंग ले सकते हैं। इसकी वेबसाइट www.icar.org.in है और आप पर फोन करके ट्रेनिंग के लिए रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं।

सिर्फ मानसून पर डिपेंड नहींफार्रि्मग

एग्रीकल्चर अब पूरी तरह से मानसून पर डिपेंड नहीं है। साइंटफिक तरीके से अगर खेती की जाए, तो फसल भी अच्छी होती है और पानी भी कम लगता है। पहले जैसे सूखे के हालात अब नहीं पैदा होते। अब बारिश के पानी का स्टोरेज भी किया जाता है। इससे बारिश कम होने पर भी फसलों को पर्याप्त पानी मिल जाता है।

सेल्फ एम्प्लॉमेंट का जरिया

आज यूथ एग्रीकल्चर में कम दिलचस्पी लेता है, लेकिन एग्रीकल्चर सेल्फ एम्प्लॉयमेंट का सबसे अच्छा साधन है। आज एग्रीकल्चर फील्ड में 50 परसेंट ऐसे लोगों को एम्प्लॉमेंट मिलता है जिन्हें कहीं एम्प्लॉमेंट नहीं मिलता। यही नहीं एग्रीकल्चर से अब अच्छी अर्निंग भी की जा सकती है। बहुत से प्रोफेशनल फार्मर साइंटफिक फार्मिंग के जरिये न सिर्फ अच्छा पैसा कमा रहें बल्कि दूसरों को भी एम्प्लॉमेंट दे रहे हैं। यही नहीं प्राइवेट और गवर्नमेंट दोनों सेक्टरों में एग्रीकल्चर का स्कोप तेजी से बढ़ रहा है। आज आयुर्वेद मेडिसिन और प्रोडक्ट पूरी तरह से एग्रीकल्चर पर डिपेंड है।

कॉन्सेप्ट : अंशु सिंह, मिथिलेश श्रीवास्तव, मो. रज़ा

इनपुट : जालंधर से वंदना वालिया, खगड़िया से संजीव सौरभ, लखनऊ से कुसुम भारती, बदायूं से लोकेश प्रताप, रांची से एम.एम. राही और देहरादून से केदार दत्त


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