खाना-पीना व गलत काम त्याग कर तपस्या करने का नाम ही है रोजा : एमडी नदीम
रोजा एक पवित्र इबादत है। ये विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत इबादत है। रोजा हर धर्म के लोग किसी न किसी रूप में रखते है। खाना-पीना और गलत काम त्याग कर तपस्या करने का नाम ही रोजा है।
संवाद सूत्र, जैंतगढ़ : रोजा एक पवित्र इबादत है। ये विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत इबादत है। रोजा हर धर्म के लोग किसी न किसी रूप में रखते है। खाना-पीना और गलत काम त्याग कर तपस्या करने का नाम ही रोजा है। सनातन धर्म हो या इस्लाम धर्म, ईसाई यहूदी, बोध, जैन, पारसी सबों में किसी न किसी रूप में रोजा रखने का चलन है। सनातन धर्म और इस्लाम धर्म में रोजा या उपवास की बड़ी महत्ता है। यह बात शिक्षक एमडी नदीम ने कही है। उन्होंने कहा कि रोजा रखने के पीछे धार्मिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और सामाजिक कारण है। रोजा तप, धैर्य और समर्पण का नाम है। रोजा गुनाहों से रुकने का नाम है। रोजा रखने में एक मात्र लक्ष्य अपने ईश्वर को खुश करना है। आदिकाल से जब कोई विपत्ति आती, कोई परीक्षा, युद्ध, महामारी होती तो लोग उपवास रखकर ईश्वर से प्रार्थना करते थे। लोग मन्नत मांगने और यज्ञ तपस्या में भी उपवास रखते थे। काफी खुशी मिलने या मन चाहा मुराद पूरी होने पर भी लोग रोजा रखकर ईश्वर को धन्यवाद देते थे। रोजा मन की शांति के लिए टॉनिक से कम नहीं है। जब मन विचलित होता ध्यान भटकता तो लोग अपने मन को केंद्रित करने, एकाग्रता बनाने के लिए भी रोजा रखते थे। रमजान के रोजे रखने के पीछे भी मकसद है लोगों को नेक बनाना। पवित्र कुरआन में अल्लाह फरमाता है ऐ ईमान वालों हमने तुम पर रमजान के रोजे फर्ज किया जैसा कि तुम से पहले की उम्मतों में फर्ज किया था ताकि तुम मुत्तकी बन जाओ। इससे पता चला है हर कौम उम्मत में रोजा फर्ज किया गया है। मुत्तकी बनने का अर्थ, नेक,बुराई से पाक साफ, पवित्र मन व पवित्र आत्मा से है। अल्लाह फरमाता है बंदे ने रोजा मेरे लिए रखा है और मैं ही इसका बदला दूंगा। रोजा हर धर्म का पाक साफ और श्रेष्ठ इबादत है। इससे ईश्वर की निकटता प्राप्त होती है, लोग अधिक संतुष्ट होते है तन मन पवित्र होता है।