‘आदिवासी बहुत खुद्दार होते हैं वह कुछ भी मांगने के लिए खड़े नहीं होंगे'- द्रौपदी मुर्मू
NDA President Candidate Draupadi Murmu राजग की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार घोषित होते ही द्रौपदी मुर्मू के ओडिशा स्थित उनके आवास में बधाई देने वालों का तांता लग गया। इस दौरान कई महिलाओं ने उनके साथ सेल्फी ली। जागरण
रांची, प्रदीप शुक्ला। राजग से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुमरू ने एक बार मुलाकात के दौरान एक वाकया सुनाया था जो जनजातीय समाज और आदिवासियत को समझने-जानने में थोड़ी मदद कर सकता है। विधायक रहते हुए वह एक बार ओडिशा के एक गांव के दौरे पर थीं। आदिवासी बहुल उस गांव में समस्याओं का अंबार लगा हुआ था। तमाम आदिवासी महिला-पुरुष उनसे मिले और अपने कष्टों से उन्हें अवगत करवाया। उन्होंने कुछ प्रार्थना पत्र भी दिए। बकौल मुर्मू,, उन्होंने सभी प्रार्थना पत्र संबंधित विभागों और अधिकारियों तक इस मंशा से पहुंचा दिए कि गांव की समस्याएं प्राथमिकता से दूर की जाएं।
संयोगवश कुछ दिनों के अंतराल के बाद फिर से उसी गांव में जाना हुआ। तब देखा तो कई समस्याएं जस की तस थीं। इस बाबत जब मुमरू ने वहां के लोगों से पूछा कि आप लोगों ने इस बारे में बताया क्यों नहीं? तो सब शांत हो गए। मुर्मू आगे कहती हैं, ‘आदिवासी बहुत खुद्दार होते हैं। वह बार-बार आपके समक्ष कुछ मांगने के लिए खड़े नहीं होंगे। देखने में बेशक उनके चेहरे उतने सुंदर नहीं होते हैं, लेकिन वह दिल के बहुत साफ, सच्चे और भोले होते हैं।’
यही सच है। अमूमन आदिवासी बहुत कम बोलते हैं। वह खुद में सिमटे रहते हैं। उन्हें समझने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। शायद यही कारण है कि वह अन्य समाज की तरह उतनी तेजी से विकास की दौड़ में शामिल नहीं हो पा रहे हैं। राज्यपाल के रूप में अपने छह साल के कार्यकाल के दौरान द्रौपदी मुमरू ने गरीबों के साथ-साथ जनजातीय समाज की खूब चिंता की। राजभवन तक आदिवासियों की बिना रोक-टोक आवाजाही सुलभ हो सकी। वह जनजातीय समाज के दुख-दर्द को भलीभांति समझती हैं। अब जब वह देश की प्रथम महिला के रूप में राष्ट्रपति भवन में पहुंचेंगी तो पूरे जनजातीय समाज के लिए यह गर्व का पल तो होगा ही, साथ ही उनकी आशा-उम्मीदें भी बलवती होंगी। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने से द्रौपदी मुमरू खुद हैरत में हैं। वह कह रही हैं कि उनका चयन समाज के अंतिम पायदान के व्यक्ति को ढूंढ निकालने जैसा है।
चुनावी रणनीतिकार बेशक इसे भारतीय जनता पार्टी का मास्टर स्ट्रोक बता रहे हैं, लेकिन जनजातीय समाज का नजरिया इससे थोड़ा अलग हो सकता है। उनकी देशभर में लगभग 12 करोड़ जनसंख्या है। उनके कई मुद्दे हैं और देश के सर्वोच्च पद पर बैठने वाली महिला को इसकी गहराई से समझ है तो संभव है आगे उनके समाधान में तेजी आ सके। जनजातीय समाज की सबसे बड़ी समस्या गरीबी और अशिक्षा है। कई जनजातियां खत्म होने के कगार पर हैं। उनके संरक्षण के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन वह उतने फलीभूत नहीं हुए हैं।
यदि झारखंड की बात करें तो सबर, पहाड़िया, बिरहोर सहित कई जनजातीय समाज संरक्षित श्रेणी में हैं। राज्यपाल के रूप में द्रौपदी मुमरू इन विषयों को लेकर बहुत गंभीर रही हैं। वह बार-बार कहती रही हैं कि इस समाज के पिछड़े होने का सबसे प्रमुख कारण पढ़ाई-लिखाई में पिछड़ना है। उनकी यह भी चिंता रही है कि आदिवासियों की आबादी लगातार कम हो रही है। वह इशारों-इशारों में इसके लिए मतांतरण को दोषी ठहराती रही हैं। वैसे मतांतरण का खेल तो पूरे देश में चल रहा है, लेकिन झारखंड में यह काम कुछ ज्यादा ही संगठित तरीके से चल रहा है। आजादी के पहले से ही ईसाई मिशनरियों ने यहां मतांतरण कराने का जो सिलसिला शुरू किया था, वह अभी तक अनवरत जारी है। ईसाई मिशनरियों द्वारा ही पोषित-पल्लवित कुछ संगठन आदिवासियों के लिए जनगणना में अलग धर्म कोड की मांग कर रहे हैं।
हालांकि इसके प्रतिक्रिया स्वरूप अब सरना धर्म मानने वाले जनजातीय समूह ने मतांतरित होकर गैर धर्म में जा चुके आदिवासियों को उन लाभों से वंचित करने के लिए एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है जो जनजाति समाज के नाते उन्हें मिल रहे हैं।
आदिवासियों की जमीन की खरीद-बिक्री भी एक बड़ा मुद्दा रही है। पूर्व में रघुवर दास सरकार ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) में बदलाव की कोशिश की थी, जिस पर द्रौपदी मुमरू ने असहमति जताकर विधेयक को वापस लौटा दिया था। हां, वह यह जरूर कहती रही हैं कि समय की मांग के अनुसार इनमें कुछ संशोधन आवश्यक हैं, लेकिन आदिवासी हितों का ध्यान सवरेपरि होना चाहिए। द्रौपदी मुमरू प्रदेश के राज्यपाल के रूप में एक दक्ष प्रशासक की क्षमता साबित कर चुकी हैं। विपक्ष भी उनकी सभी को साथ लेकर चलने की सोच और दूरदृष्टि का कायल रहा है।
विवादों से दूर वह चुपचाप काम करने में विश्वास करती हैं। सनातन धर्म में अगाध आस्था रखने वाली मुमरू की दिन की शुरुआत रायरंगपुर गांव में शिव मंदिर में झाडू लगाने और उसके बाद पूजा करने के साथ होती रही है। भगवान शिव में उनकी गहरी आस्था है। उनके समय में राजभवन में मांसाहार पर पूरी तरह से प्रतिबंध था। बेशक वह बाहर से एकदम शांत दिखती हैं, लेकिन समाज में सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्तियों के उत्थान को लेकर उनमें बहुत छटपटाहट है। जब-जब उनसे मुलाकात हुई, यह बखूबी झलका भी। वह बालिकाओं को हर हाल में शिक्षित करने पर जोर देती हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि अगर बालिकाएं पढ़-लिख गईं तो वह पूरे समाज को अपने कंधे पर बैठाकर आगे ले जाने का माद्दा रखती हैं।
[स्थानीय संपादक, झारखंड]