रांची से निरंतर प्रवाहित हो रही साहित्य की रस सरिता
रांची हमेशा से साहित्य साधना का केंद्र रही है। कवि कुलगुरु रवींद्रनाथ टैगोर भी यहां आए हैं। कई लोग साहित्यकार हैं।
संजय झा, रांची : रांची हमेशा से साहित्य साधना का केंद्र रही है। कवि कुलगुरु रवींद्रनाथ टैगोर तक अपनी रचना के लिए रांची में आकर साहित्य साधना कर चुके हैं। यह परंपरा यथावत चल रही है। साहित्य की अलग-अलग विधाओं में कई ख्यातिब्ध विद्वान देने वाले शहर की जीवंतता कायम है। युवा रचनाकारों व कवियों की फौज लगातार निकलती रही है। यह सिलसिला अब भी जारी है। यह प्रतिभाएं समाज के अलग-अलग वर्गो से निकल कर आ रही हैं। इसमें कई की पृष्ठभूमि साहित्यिक नहीं है। इसके बावजूद वह साहित्य को समृद्ध करने में अपना योगदान दे रहे हैं।
हमें इन पर नाज
झारखंड के आदिवासी पृष्ठभूमि से आने वाली हिदी युवा कवियत्री जसिंता केरकेंट्टा की कविताएं कई देशों में पढ़ी जा रही हैं। फ्रांस की प्रकाशक बनियन ने उनकी पहली कविता संग्रह अंगोर का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया है। उनकी कविताओं में भारत की विविधता, आदिवासी जीवन तथा उनका संघर्ष झलकता है। कविता की कुछ पंक्तियां क्यों महुए तोड़े नहीं जाते पेड़ से
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मा तुम सारी रात
क्यों महुआ के गिरने का इंतजार करती हो?
क्यों नहीं पेड़ से ही सारा महुआ तोड़ लेती हो?
मा कहती है वे रातभर गर्भ में रहते हैं
जन्म का जब हो जाता है समय पूरा
खुद-ब-खुद धरती पर आ गिरते हैं भोर,ओस में भींगते हैं धरती पर
हम घर ले आते हैं उन्हें उठाकर पेड़ जब गुजर रहा हो
सारी रात प्रसव पीड़ा से
बताओ कैसे डाल हिला दे जोर से?
बोलो कैसे तोड़ लें हम
जबरन महुआ किसी पेड़ से? हम सिर्फ इंतजार करते हैं
इसलिए कि उनसे प्यार करते हैं। :::::::::::
रांची के अश्विनी कुमार पंकज की पहचान एक कवि, कथाकार, उपन्यासकार, पत्रकार, नाटककार, रंगकर्मी की है। वह देश भर में सात हजार से अधिक मंच पर अपनी प्रस्तुतियां दे चुके हैं। जो मिंट्टी की नमी जानते हैं, भाषा कर रही दावा जैसी कविता संग्रह लिख चुके हैं। अपनी रचना माटी माटी अरकाटी में पंकज औपनिवेशिक दौर में आदिवासियों के पलायन को बेहद संजीदगी से पेश करने में सफल रहे हैं। कविता की कुछ पंक्तियां
पहाड़ से लिपटी है बारिश
पतझड़ की तड़प पीकर
बेसुध है धरती
अपोंग-डियंग की तलाश में
सारे पुरखे उतर आए हैं
उसी गांव में
जहा एक जवान जोड़ा
प्रेम में रत है
जिसकी भाषा उसे नहीं आती
जो डेढ़ अरब लोगों को
अपनी सनकी भाषा से
दिन रात रौंदते रहता है
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रांची की मनीषा सहाय मनोभाव को कलात्मक रूप से अभिव्यक्त करने में माहिर हैं। शीर्षक साहित्य परिषद द्वारा शब्द सुमन सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। देश के अनेक मंच से काव्य पाठ कर चुकी हैं। वह प्रकृति पर निर्बाध गति से लिख रही हैं। इनकी रचनाओं को साहित्य प्रेमियों को काफी प्यार भी मिल रहा है। किसी विशेष वाद की परंपरा में बंध कर लिखने की बजाए वह बेबाकी से सभी विषयों पर कलम चला रही हैं। कविता की कुछ पंक्तियां
सजल प्रेम की बूंदे,
उत्तुंग हिम शिखरों से,
टकराती,सौंदर्य बरसाती,
उतरी नभ मंडल से,
प्यार की दास्ता लिखने,
पत्तों पर ओस बन इठलाती,
धरा से मिलकर हर्षाती,
सरिता संग माधुरी छलकाती,
चली नव नवेली सी,
धूप से यौवन पान कर,
मंद पवन का रसपान कर,
लाल चुनर ओढ़े दुल्हन सी,
सागर की गहराई में उतरी,
ढूंढने अपना अस्तित्व,
नव जीवन लेता अंगड़ाई,
धवल काति किरणें इंदुत्व,
यामिनी, प्रमोदनी, मधुरहासिनी ,
छेड़ तरंगो पर नव गीत,
ज्योत्सना बिखेरे मंदाकिनी,
नेह के बंधन से बांधी प्रीत,
सीप के आगोश में जा समायी,
प्रेम की बूंदों से हो सिंचित,
सकुचाई, लजायी, शर्माई,
बूंद जो मोती बन गई ,
मोती बन ईठलाई।
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