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मेहनत को मिला किस्मत का साथ, अब दूसरों को भी दे रहे रोजगार

पाकिस्तान से खाली हाथ आए शरणार्थियों ने अपनी मेहनत और जुनून की बदौलत रांची में शास्त्री मार्केट की नींव रखी। उनकी मेहनत को किस्मत का भी साथ मिला।

By Edited By: Published: Wed, 20 Jun 2018 09:51 AM (IST)Updated: Wed, 20 Jun 2018 05:35 PM (IST)
मेहनत को मिला किस्मत का साथ, अब दूसरों को भी दे रहे रोजगार
मेहनत को मिला किस्मत का साथ, अब दूसरों को भी दे रहे रोजगार

रांची, जेएनएन। आजादी के साथ देश विभाजन के बाद पाकिस्तान में भड़की हिंसा की आग ने सैकड़ों परिवारों को अपना घर-संपत्ति छोड़कर शरणार्थी बनने पर मजबूर कर दिया। सरकारी फरमान के कारण पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र में रहने वाले सिख व हिंदू समुदायों को पाकिस्तानियों द्वारा खदेड़ने की नौबत पैदा की गई। ऐसे परिवारों ने हिंसा और अत्याचार के डर से भारत में शरण ली। इस क्रम में सैकड़ों शरणार्थी रांची में भी आए। पाकिस्तान से खाली हाथ आए शरणार्थियों ने अपनी मेहनत और जुनून की बदौलत रांची में शास्त्री मार्केट की नींव रखी। उनकी मेहनत को किस्मत का भी साथ मिला। इस मार्केट का पूर्व नाम रिफ्यूजी मार्केट था, जिसे बाद में शास्त्री मार्केट नाम दिया गया। आज यहां करोड़ों का कारोबार होता है।

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शुरू में रांची में शरणार्थियों को मिलिट्री कैंप और क्लब रोड स्थित फौजी कैंप में शरण मिली। कई लोगों का परिवार पीछे छूट गया। कई लोग ऐसे भी थे, जो पलायन के बाद दोबारा अपने परिवार से नहीं मिल सके। उस बात की टीस आज भी उनकी आंखें नम कर देती है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी रोटी, कपड़ा और अपना आवास की उपलब्धता।

छोटे-छोटे काम से की शुरुआत
कई साल कैंप में गुजारने के बाद परिवार के लिए भोजन जुटाना और अपना आवास पाने की ललक ने शरणार्थियों को रोजगार की दिशा में उन्मुख किया। किसी ने लकड़ी व कोयला का व्यवसाय शुरू, किसी झाड़ू तक बेचने का काम किया। रेजा-कुली काम भी किया। सिनेमा घर में टिकट काटने से लेकर घरों में दरबानी भी की। 1953 के आसपास पुनर्वास विभाग द्वारा शरणाथियों को शास्त्री मार्केट वाली जगह व्यवसाय करने के लिए दी गई। वहां कुछ शरणार्थियों ने गुमटी लगाकर कपड़े का कारोबार शुरू किया। उस समय लगभग 20 दुकानें थीं।

स्थानीय बाजार और कोलकाता से कपड़े लाकर बेचा करते थे। सरकार ने भी शरणार्थियों को व्यवसाय के लिए आर्थिक मदद की। धीरे-धीरे व्यापार बढ़ता गया। आज शास्त्री मार्केट में एक सौ छह कपड़ा की दुकानें हैं। प्रतिमाह करोड़ों का व्यवसाय होता है।

अब दूसरों को भी दे रहे रोजगार
कभी दाना-दाना के लिए मोहताज शरणार्थियों ने अपने दम पर पहचान बनाई। आज इनके पास अपना घर, जायदाद समेत अपना लाखों की संपत्ति है। खुद आत्मनिर्भर होने के साथ वे दूसरों को भी रोजगार दे रहे हैं। शास्त्री मार्केट में लगभग तीन सौ से ज्यादा युवाओं को रोजगार मिला है।

अपनों से बिछड़ने का गम
शास्त्री मार्केट में व्यवसाय करने वाले कई लोगों को आज भी अपनों से बिछड़ने का गम है। हर की अपनी कहानी है। सरदार अरविंद सिंह बताते हैं कि पिता रावलपिंडी में काम पर गए थे, तभी पलायन करने की नौबत आ गई।पिता को छोड़कर वह मां, दो बड़े भाई और भाभी के साथ भारत रवाना हुए थे। लेकिन, वह अपने पिता से दोबारा नहीं मिल सके।

रांची में हैं तीन हजार से ज्यादा परिवार
पलायन कर रांची आए सिख और हिंदू समुदाय के लगभग तीन हजार से अधिक परिवार रांची में रह रहे हैं। पीपी कंपाउंड, रातू रोड, निवारणपुर, डोरंडा, बरियातू समेत शहर के विभिन्न हिस्से में इनका अपना आशियाना है।

उस समय सात साल की थी उम्र
1947 में रावलपिंडी से आए सरदार चत्रक सिंह ने बताया कि उन्होंने अपने पिता के साथ खजूरिया स्थित मिलिट्री कैंप में शरण ली थी। वह उस समय लगभग सात साल के थे। सरदार प्रितम सिंह उनके पिता को चिट्ठी भेजकर रांची में शरण के लिए बुलाए थे। ढ़ाई साल कैंप में गुजारने के बाद उनके पिता लकड़ी व कोयले का व्यवसाय करने लगा। जिला स्कूल से दसवीं तक पढ़ाई की। इसके बाद 35 सालों तक रतन टॉकिज में नौकरी की। फिर धीरे-धीरे अपना व्यवसाय शुरू किया। अपने दो बेटों और चार बेटियों को पढ़ा-लिखा कर होनहार बनाया।
- सरदार चत्रक सिंह।
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पिता व दादा-दादी के साथ यहां आया
नंद किशोर किंगर अपने पूरे परिवार के साथ पाकिस्तान के बहावलपुर से रांची आए थे। बताते है कि फिरायालाल मुंजाज के दिशा-निर्देश पर वह अपने पिता, दादा-दादी के साथ 1947 में ही रांची पहुंचे। साढ़े तीन साल कैंप में रहने के बाद बिरला कंपनी की ओर से उन्हें घर बनाने के लिए कृष्णा नगर रातू रोड में जमीन मिली। शास्त्री मार्केट में जगह मिलने के बाद वस्त्र का कारोबार शुरू किया। आज वह सामाजिक कार्य में भी बढ़चढ़ हिस्सा ले रहे हैं।
- नंद किशोर किंगर।
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खाली समय में कुली का करता था काम
सरदार अरविंद सिंह आठ साल की उम्र में दो भाइयों व भाभी के साथ रांची शरण लेने आए थे। पाकिस्तान से पैदल जालंधर आए। कहां जाएं, कुछ पता नहीं था। इसी दौरान रांची में रहने वाले उनका मामा सरदार करतार सिंह को पता चला, तो वह उन्हें रांची लेकर आए। वह क्लब रोड के आगे फौजी कैंप में ठहरे थे। कैंप से जो राशन मिलता था, उससे गुजारा नहीं हो पाता था। इस बीच वह गुब्बारा व झाड़ू बेचना शुरू किया। खाली समय में कुली का काम भी कर करता था। बाद में शास्त्री मार्केट में कपड़े का व्यवसाय शुरू किया।
- सरदार अरविंद सिंह।


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