मैं दामोदर, जिनके लिए चट्टानों को चीरा है; मुझे उनसे भी पीड़ा है Ranchi News
मैं दामोदर। नदी नहीं नद। मैंने मनुष्य जीवन को रास्ता दिखाया। लेकिन मनुष्यों ने मुझे इतना दूषित किया कि कई इलाकों मैं जीवनदायिनी नहीं रहा।
रांची, [आशीष झा]। मैं दामोदर। नदी नहीं नद। मेरा पौरुष ही मेरी पहचान है। मेरी उत्पत्ति तो देवनद के रूप में हुई और मुझे झारखंड की गंगा तक कहा गया लेकिन मेरे साथ हुई ज्यादतियों ने ही मुझे पश्चिम बंगाल का शाप जैसी संज्ञा से रूबरू कराया। लोहरदगा के चूल्हापानी से निकलते ही मुझे चारों ओर से चट्टानों ने घेर लिया जैसे रास्ता देने से इन्कार कर रहे हों। ऐसे में मुझे भी उग्र रूप धरते देर न लगी। मैं वही दामोदर हूं जिसका शोर सुनकर लोग थर्रा उठते हैं। वही जिसकी धारा से लोग गुजरने में भी डरते हैं।
मेरी धार में वेग ऐसा कि चट्टानों के सीने भी चटक जाएं। छोटानागपुर के चट्टानों को मेरी धार ने ऐसे काटा है जैसे आरी से लकड़ी कटती है। मेरे वेग ने पत्थरों में गुफाएं बना दी हैं, मछलियां इसी में लुका-छिपी करती दिख जाएंगी। लोहरदगा के चूल्हापानी से धनबाद के मैथन तक इसके प्रमाण मिलेंगे। इतना ही नहीं, जिस तरह मैंने चट्टानों को चीर कर अपनी मंजिल पाई, उसी तरह इंसानियत को भी राह दिखाई। जिधर से गुजरा, उधर मैंने ही धरा की कोख में छुपी अकूत संपदा का राज मानव सभ्यता को बताया।
मेरे आसपास से ही कोयले के खदान सदियों से मानव जीवन को नई ऊर्जा दे रहे हैं। मनुष्यों को अनेकानेक खनिजों का रास्ता मैंने बताया तो खेतों को भी सींचा है। प्यास भी बुझाई और रोशनी भी दी है। हजारों लोग मेरे ऊपर बने डैम के माध्यम से अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं। दामोदर घाटी निगम में नौकरी कर रहे हैं। लेकिन आज मेरी भी पीड़ा है। मेरी पीड़ा मेरी अस्तित्व को लेकर है मेरे वर्तमान को लेकर है और मेरे भविष्य को लेकर है। मनुष्यों ने मुझे इतना दूषित किया कि कई इलाकों मैं जीवनदायिनी नहीं रहा।
अपनी गोद में अठखेलियां करती मछलियों को मैंने मरते देखा है। अगल-बगल के पेड़-पौधों को सूखते देखा है। फसलों की कराह दशकों सुने हैं। ऐसे भी इलाके हैं जहां लोग मेरे पानी का इस्तेमाल अपने खेतों में नहीं करते। रामगढ़ के आसपास मेरी गोद में मरी मछलियों को गवाह पूरा इलाका बना। बोकारो में भी ऐसे ही हालात हैं। धनबाद में जब मुझे स्थिरता मिली, मैंने मनुष्य जीवन को रास्ता दिखाया। मनुष्य की मौत पर भी मैं उनके काम आता हूं। मेरे किनारे जिनकी चिताएं सजती हैं उन्हें मोक्ष मिलने की बात भी कही जाती है।
फिर भी लोग मेरी सुध नहीं ले रहे। ऐसा नहीं कि मैं सदियों से इसी हाल में रहा। कभी मेरे पानी में भी अमृत सा स्वाद था। लोगों की प्यास बुझाकर खेतों तक में मेरी मांग थी। मेरी गोद में तरह-तरह की मछलियों से लेकर घडिय़ाल तक पले हैं। उद्योगों को भी मैंने ही सींचा है। लेकिन, इन्हीं उद्योगों से मेरी मुसीबतें बढ़ती गईं। रांची में मेरी गोद में सपही नदी समाती है तो आगे कोनार, बराकर, मुंडेश्वरी जैसी कई और नदियों का मिलन होता है। सपही से मिलन स्थल पर मैं काला दिखता हूं, कोयला जैसा।
मेरे किनारे कोयले की खदानें मिलीं तो उनकी गंदगी मुझमें प्रवाहित की जाने लगीं। मेरे पानी में जस्ता, लेड, मैगनीज, कोबाल्ट आदि खनिजों के अंश शामिल हो गए हैं जो मुझे पीने लायक नहीं बनने दे रहे। रामगढ़ में लोग अपने घरों की नाली का रुख मेरी गोद में कर चुके हैं। पूरी गंदगी आती है। मुझे दुख तो तब होता है कि जब यह देखता हूं कि मेरे अंदर अब उतना भी ऑक्सीजन नहीं कि जलीय जीवों को जिंदा रख सकूं। लेकिन, वक्त बदल भी रहा है।
कई इलाकों में इस हाल का शिकार बनकर मैं मरता ही जा रहा था कि मुझे बचाने के लिए कुछ लोगों ने आंदोलन खड़ा किया। मैं शुक्रगुजार हूं। शुक्रगुजार उनका जिन्होंने मुझे गंदा करने के खिलाफ अभियान चलाया, शुक्रगुजार उनका भी जिन्होंने मुझे गंदा करने की आदत से तौबा कर ली और शुक्रगुजार उनका भी जो यह समझ रहे हैं कि अब दामोदर को बचाना है, साफ रखना, जिंदगी देनी है। मैं शुक्रगुजार उन लोगों का भी हूं जो सदियों से तमाम अच्छाइयों-बुराइयों के बीच मेरे तट पर छठ मनाते, पूजा करते, खुशियों में मुझे शामिल करते हैं।
लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप