यहीं जन्मी जूतम-पैजार... झारखंड की राजनीति में भी जूते की एंट्री; पढ़ें सियासत की खरी-खरी
राजनीति में जूते की एंट्री कब हुई यह शोध का विषय हो सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि जूतम-पैजार की कहावत यहीं से जन्मी है। जूते चलते हैं जूते उछाले भी जाते रहे हैं।
रांची, [जागरण स्पेशल]। एक तरफ झारखंड में विधानसभा का बजट सत्र चल रहा है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा के विधायकों ने अपने दल के नेता को नेता प्रतिपक्ष बनाने की मांग पर बड़ा हंगाम खड़ा कर दिया है। सदन में दूसरे दिन भी कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी। इधर बाबूलाल के साथ भाजपा में विलय करने वाले झाविमो के नेता भी बीजेपी में रचने-घुलने के लिए तमाम उपक्रमों में लगे हैं। राज्यसभा चुनाव की तारीखों के एलान के बाद सत्ता पक्ष और विपक्षी खेमे के अलंबरदार अपने-अपने तरकश में तीर सजाने में लगे हैं। राज्य ब्यूरो के प्रधान संवाददाता आनंद मिश्र के साथ यहां पढ़ें सियासत की खरी-खरी...
खुशी के पल
राज्यसभा चुनाव की तारीखों का एलान हो चुका है। झारखंड कोटे से दो सीटें खाली हो रही हैं। खबर सुनते ही कई माननीयों की बांछे खिल गई हैं और खिले भी क्यों न। कुछ नहीं तो चुनाव का खर्चा-पानी ही निकल आएगा। अपने-पराए का मोह छोड़ अभी से जुगत में जुट गए हैं। कारिंदों को एक्टिव कर दिया गया है। कहीं कोई चूक नहीं होनी चाहिए। हाईटेक तकनीक का प्रयोग करें। आंकड़ों का गणित भी अनुकूल है। तय है, एक सीट पेंच फंसाएगी। दोनों हाथों में लड्डू दिखाई दे रहे हैं। वैसे भी झारखंड में राज्यसभा चुनाव का इतिहास अद्भुत रहा है। दल-दलील कुछ नहीं चलती। चलता है तो बस...। थैलीशाहों की एंट्री ने भी कईयों के दुख हरे हैं। गाडिय़ों में पैसा पकड़ाया जाता रहा है। अब इस बार थैलीशाह आएं या न आएं, जो परंपरा चल पड़ी है उसका निर्वाह लुक-छिप कर होगा ही।
खरीदे जा रहे जूते
राजनीति में जूते की एंट्री कब हुई यह शोध का विषय हो सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि जूतम-पैजार की कहावत यहीं से जन्मी है। जूते चलते हैं, जूते उछाले भी जाते रहे हैं, लेकिन राजनीतिक वजूद कायम रखने के लिए नए जूते खरीदने भी पड़ते हैं, ऐसा पहली बार सुनने को मिला है। कंघी छोड़, कमल थामने वाले नेताओं की जमात नई विचारधारा के अनुरूप ढलने के लिए तमाम उपाय कर रही है। तमाम कंघी वाले अब जूतों की दुकान पर देखे जा रहे हैं। जूता वह भी बिना फीते का। मसला यह है कि झाविमो में जूता खोलने की कोई परंपरा नहीं थी लेकिन कमल दल में संगठन के प्रदेश के सर्वोच्च नेता के दर्शनों का लाभ उठाना है तो जूता तो खोलना ही होगा, नहीं तो बाहर से ही लौट लो। अब जूता तो खरीदना ही होगा। भले ही मंहगा न हो, सस्ता भी चलेगा।
सब पर भारी
जब तक हाथ वालों के हाथ में हुकूमत नहीं आई, चैन से नहीं बैठे। मौका मिला तो मलाई लेने के लिए सारे दौड़े चल आए। इधर बोनस में दो विधायक मिले तो किसी को कानोंकान खबर तक नहीं हुई। इससे सारे के सारे परेशान हैैं। एक बेचैन माननीय ने तो इस्तीफा तक देने का एलान कर दिया, लेकिन मौका आया तो न उगलते बन रहा है न निगलते। जिनके कंधे पर दारोमदार है, वे भी खुलकर कुछ बोलने के पहले इधर-उधर ताक लेते हैैं कि कहीं दीवारों के कान तो नहीं हैैं। न जाने कौन जाकर फुसक दे यूपी वाले राजा के पास। उनके बगैर कोई पत्ता नहीं हिल रहा झारखंड में। न पीसीसी, न सीएलपी। सबसे बड़े खिलाड़ी वही साबित हुए हैैं। इस सच्चाई का आभास होते ही ज्यादातर नेताओं ने वहीं हाजिरी बजानी शुरू कर दी है। उन्हें सर्वशक्तिमान करार दिया गया है।
भूल-भूलैया
झारखंड की नई विधानसभा की भव्यता किसी का भी मन मोह ले। नई विधानसभा में बजट सत्र आहूत हो रहा है। विशेष सत्र के ट्रायल में तो सब कुछ ठीक था लेकिन अब जब पहला पूर्ण सत्र आहूत हुआ है तो मुश्किलें पेश आने लगीं। किलेनुमा विधानसभा ने अजब मुश्किल खड़ी कर दी है। माननीय हो या विधानसभा कर्मी, सब परेशान हैं। कहां जाएं, कहां से मुड़े समझ ही नहीं आ रहा है। अपना कमरा तक नहीं ढूंढ पा रहे हैं। ऊपर-नीचे करते सांस फूल जा रही है, सो अलग। कईयों का तो शुगर लेवल पहले ही दिन डाउन हो गया है। कमरा ढूंढने के चक्कर में कई बार पूरे विधानसभा की परिक्रमा हो गई। लेनिन हॉल की छोटी से विधानसभा से आए लोगों के लिए यह सात कोसी परिक्रमा से कम नहीं है। अब कहते फिर रहे हैं, इस भूल-भूलैया से अच्छी तो पुरानी विधानसभा ही थी।