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गीत ही मंत्र और गीत ही हैं छठ का शास्त्र, गीतों के अलावा कुछ समझना हो तो छठव्रती महिलाओं को समझें

लोकगायिका चंदन तिवारी के अनुसार छठ गीतों के माध्यम से इस परंपरा को समझना है आसान

By JagranEdited By: Published: Mon, 12 Nov 2018 07:28 AM (IST)Updated: Mon, 12 Nov 2018 07:28 AM (IST)
गीत ही मंत्र और गीत ही हैं छठ का शास्त्र, गीतों के अलावा कुछ समझना हो तो छठव्रती महिलाओं को समझें
गीत ही मंत्र और गीत ही हैं छठ का शास्त्र, गीतों के अलावा कुछ समझना हो तो छठव्रती महिलाओं को समझें

चंदन तिवारी, लोकगायिका :

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छठ को समझने का सबसे बेहतर माध्यम उसके गीत ही हैं। जिस पर्व में गीत ही उसके मंत्र होते हैं, गीत ही शास्त्र, उसका खास पक्ष ये भी है कि इन गीतों को रचा भी लोकमानस ने ही है। एक ओर विशेषता इसकी सामूहिकता और पर्व में स्त्रियों की सहभागिता का पक्ष है।

गीतों में ही यह तलाशने की कोशिश कर रही थी कि आखिर मूल रूप से स्त्रियों और सामूहिकता के इस लोकपर्व के गीतों में सामूहिकता और स्त्री कितनी है? रुनुकी—झुनुकी के बेटी मागिला.. या पाच पुतर अन-धन-लछमी, लछमी मंगबई जरूर जैसे पारंपरिक गीतों में छठ पर्व के जरिए संतान के रूप में भी बेटी पाने की कामना तो पीढि़यों से रही है, लेकिन इसके अलावा और स्त्रिया किस रूप में हैं?

छठ और भगवान भास्कर से जुड़े गीतों की तलाश में समानातर रूप से गीतकारी की दुनिया में और भी कई नई बातें मिली। जैसे एक पारंपरिक कन्यादान गीत मिला। इस गीत का बोल है-गंगा बहे लागल, जमुना बहे लागल, सुरसरी बहे निर्मल धार ए, ताहि पइसी बाबा हो आदित मनावेले, कईसे करब कन्यादान ए.. इस को जिन्होंने दिया, उन्होंने समझाया कि आदित्य भगवान से लोक समाज का गहरा रिश्ता रहा है। पुराने गीतों में ईश्वर के रूप में गंगा और आदित्य ही ज्यादा हैं। इस कन्यादान गीत में भी बेटी के दान के पहले पिता अदिति को ही मना रहे हैं कि इतनी ताकत दे भगवान कि वे अपनी बेटी का दान कर सकें। खैर! पारंपरिक छठ गीतों की तलाश में आदित्य से मिला एक खूबसूरत पक्ष था तो यहा चर्चा की, असल बात यह थी कि स्त्रिया प्रकारातर से चार दिनों तक व्रत रखती हैं, दो दिनों का उपवास करती हैं तो वे मागती क्या हैं?

गीतों से जब इस सवाल का जवाब तलाशी तो आश्चर्यजनक रूप से यही तथ्य सामने आया कि इतना कठिन व्रतरने के बाद भी व्रती स्त्रिया सिर्फ एक संतान की माग को छोड़ दें तो अपने लिए कुछ नहीं मागतीं। उनकी हर माग में पूरा घर शामिल रहता है। पति के लिए कंचन काया की माग करती हैं, निरोग रहने की माग करती हैं, संतानों की समृद्धि की कामना करती हैं लेकिन अपने लिए कुछ नहीं। और छठ के गीतों से और बारीकी से गुजरने पर यह भी साफ-साफ दिखा कि यह किसी एक नजरिए से ही पूरी तरह से लोक का त्योहार नहीं है, बल्कि हर तरीके से विशुद्ध रूप से लोक का ही त्योहार है, क्योंकि छठ के गीतों में एक और आश्चर्यजनक बात है कि कहीं भी मोक्ष की कामना किसी गीत का हिस्सा नहीं है। लोक की परंपरा में मोक्ष की कामना नहीं है। यह तो एक पक्ष हुआ। बाकी, तो ढेरों बातें छठ के गीत में है ही।

इसकी एक और बड़ी खासियत यह है कि इसमें परस्पर संवाद की प्रक्रिया चलती है। एकतरफा भगवान भास्कर या छठी माई से संवाद नहीं होता। अगर कोई छठी मइया से या भगवान सूर्य से कुछ मागता है तो फिर परस्पर संवाद भी चलता है देवता और भक्त के बीच। छठ के गीतों में जब यह परस्पर संवाद की प्रक्रिया चलती है तो लगता है कि यह लोकपर्व क्यों है? लोक की यही तो खासियत है। उसने अपना परलोक खुद गढ़ा है इसलिए वह परलोक से सहज संवाद में विश्वास भी करता है। पारंपरिक लोकगीत लोक और परलोक के इस सहज-सरल रिश्ते को खूबसूरती से दिखाते हैं। बाकी छठ गीतों का एक खूबसूरत पक्ष यह तो होता ही है कि इसमें प्रकृति के तत्व विराजमान रहते हैं। सूर्य, नदी-तालाब-कुआ, गन्ना, फल, सूप, दउरी। यही सब तो होता है छठ में और ये सभी चीजें या तो गांव-गिरांव की चीजें हैं, खेती किसानी की चीजें हैं या प्रकृति की। छठ के बारे में यह कहा जाता है और सिर्फ कहा ही नहीं जाता, देखने की चीज है कि यही एकमात्र त्योहार है, जिस पर आधुनिकता हावी नहीं हो पा रही या कि आधुनिक बाजार इसे अपने तरीके से अपने साचे में ढाल नहीं पा रहा है। ऐसा नहीं हो पा रहा तो यकीन मानिए कि इसमें सबसे बड़ी भूमिका पारंपरिक छठ गीतों की है जो मंत्र और शास्त्र बनकर, लोकभाषा-गाव-किसान-खेती-प्रकृति को अपने में इस तरह से मजबूती से समाहित किए हुए है कि इसमें बनाव के नाम पर बिगड़ाव की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं बचती।

छठ बचपन से ही अपना प्रिय त्योहार रहा है। छोटी थी तो सुनती थी समूह में महिलाओं को गीत गाते हुए। कितना अच्छा लगता था और अब भी कितना अच्छा लगता है जब समूह में बैठकर छठ करनेवाली महिलाएं गीत गाती हैं। मैं अब भी मानती हूं कि तमाम प्रयोगों के बावजूद छठ की असल अनुभूति बिना साज-बाज के उन महिलाओं द्वारा गाए जानेवाले गीतों में जिस तरह से होती है, वह बिरला है। बिना संगीत के ही जो गायन होता है उसमें समाहित भाव, इनोसेंसी छठ गीतों में तमाम तरह के संगीत के प्रयोग में भी नहीं आ पाता। यह मेरी निजी राय है, अपनी छोटी समझ के आधार पर कह रही हूं, लेकिन यह कहने का मतलब यह भी नहीं कि प्रयोग नहीं होना चाहिए या कि कोई प्रयोग नहीं हो। छठ गीतों की पहचान शारदा सिन्हाजी अगर छठ गीतों में प्रयोग कर गायन न की होतीं तो आज जिस तरह से सिर्फ उनके गीत बजने से ही छठ का माहौल बन जाता है और जिस तरह से उनके छठ गीतों ने पूरी दुनिया में छठ को लोकप्रिय बनाया है, वह नहीं हो पाता। लोकगीतों में प्रयोग और नवाचार ही तो उसे पीढि़यों से और सदियों से जीवंत बनाए हुए हैं।


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