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यहां पाणिनी के 2500 साल पुराने फार्मूले पर हो रही पढ़ाई, BIT Mesra के विद्या मंदिर में अनूठा प्रयोग; पढ़ें रोचक स्‍टोरी

प्रौद्योगिकी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी मेसरा का किसलय विद्यामंदिर गत तीन दशक से बच्चों को अनुभव आधारित है शिक्षण पद्धति पर शिक्षा दे रहा है।

By Alok ShahiEdited By: Published: Sun, 22 Sep 2019 12:15 PM (IST)Updated: Mon, 23 Sep 2019 08:13 AM (IST)
यहां पाणिनी के 2500 साल पुराने फार्मूले पर हो रही पढ़ाई, BIT Mesra के विद्या मंदिर में अनूठा प्रयोग; पढ़ें रोचक स्‍टोरी
यहां पाणिनी के 2500 साल पुराने फार्मूले पर हो रही पढ़ाई, BIT Mesra के विद्या मंदिर में अनूठा प्रयोग; पढ़ें रोचक स्‍टोरी

रांची, [दिव्यांशु]। चौथी शताब्दी ई.पू. में आचार्य पाणिनी ने शिक्षा की एक विशेष पद्धति विकसित की थी- पाणिनीय शिक्षा। प्रौद्योगिकी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी मेसरा, रांची स्थित बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (बीआइटी) का किसलय विद्यामंदिर गत तीन दशक से बच्चों को इसी पद्धति पर शिक्षा दे रहा है। अनुभव करो और सीखो के सूत्र पर आधारित यह शिक्षा पद्धति बच्चों को सहजता से सीखने का सहज-सुखद अनुभव भी देती है। पेड़-पौधों की पत्तियों और फूलों के रंगों का करते हैं प्रयोग। स्वर और ध्वनि

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हिंदी वर्णमाला के अक्षरों का उच्चारण करते हुए बच्चे अपने गले में होने वाले कंपन को भी हाथों से छूकर महसूस करते हैैं और अक्षर विशेष की पहचान उसकी ध्वनि की उत्पत्ति के माध्यम से भी करते हैैं। इसी तरह होंठ, तालु और दांत के सहारे उच्चरित और ध्वनित होने वाले अक्षरों की विशेषता को वह अच्छी तरह पहचान जाते हैैं। परिणाम यह कि बच्चे अक्षर विज्ञान में भी पारंगत हो जाते हैैं।

बीआइटी का मानना है कि शिक्षण का यह तरीका बच्चों के बहुआयामी विकास में सहायक सिद्ध होता है। पाणिनी की पद्धति के आधार पर यहां गणित और विज्ञान को भी रुचिकर तरीके से पढ़ाया जा रहा है। बच्चे यहां दो और तीन अंकों वाले जोड़ को सीखने के लिए माचिस की तीलियों का प्रयोग करते हैं। स्कूल परिसर में 135 अलग-अलग तरह के पेड़-पौधे हैं। इनके पत्तों के रंग भी अलग अलग हैं। बच्चे इन्हें छूकर और सूंघकर रंगों और स्वाद, गंध से परिचित होते हैं। ज्यादातर पौधे वनौषधि के हैं। इसलिए बच्चों की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती हैं और वो वायरल बुखार जैसी बीमारियों से बचे रहते हैं।

स्कूल की प्रधानाचार्य रमा पोपली कहती है कि शिक्षा के इस सिद्ध और उपयोगी तरीके से पांच से 12 साल तक के बच्चों की पढ़ाई में रुचि, समझ और एकाग्रता बढ़ी है। आमतौर पर छोटी उम्र के बच्चे तीन मिनट से अधिक एकाग्रता नहीं बनाए रख पाते हैैं। लेकिन इस स्कूल के बच्चों को 15 मिनट तक एक ही पाठ आराम से पढऩे में कोई दिक्कत नहीं होती है।

स्कूल में 200 बच्चे अध्ययनरत हैं। बच्चों के सर्वागीण विकास के लिए पढ़ाई के वैदिक और रुचिकर तरीके को श्रेष्ठ माने वाले रांची के न्यूक्लियर साइंटिस्ट और बीआइटी (बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) मेसरा से जुड़े डॉ. राकेश पोपली ने 1988 में इस विद्यालय की बुनियाद रखी थी। स्कूल में पढऩे वाले ज्यादातर बच्चे कमजोर पारिवारिक पृष्ठभूमि के हैं।

कागद लेखी नहीं आंखन देखी... 

रमा बताती हैैं, भाषा की बात करें तो छात्र जब कंठ, होंठ, जीभ, तालु आदि से ध्वनि के उच्चारण को महसूस कर लेता है तो इसके बाद उस अक्षर को लिखने की बारी आती है। फिर लेखन के लिए भूरे रंग के बोर्ड पर उक्तअक्षर को ध्वनि रेखाओं और विन्यास के माध्यम से उकेरता है। वह आगे बताती हैं कि कबीर ने भी शिक्षा के इसी स्वरूप की वकालत करते हुए कागद लेखी नहीं आंखन देखी को महत्वपूर्ण बताया था। आज किसलय विद्यामंदिर के छात्र आंखन देखी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।


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