माय सिटी माय प्राइडः लावारिस नवजातों को जिंदगी दे रही पा-लो-ना
संस्था अपने कार्यों के माध्यम से यह बताने की कोशिश कर रही है कि हर बच्चे को जीने का हक है और उसे यह हक मिलना ही चाहिए।
मोनिका गुंजन आर्य, संयोजक। आए दिन नवजात शिशुओं को उनके अपने ही पालकों और जन्मदाताओं द्वारा कचरे में फेंक दिए जाने की घटनाएं सामने आती हैं। दुनिया में कदम रखते ही परित्यक्त कर दिए जा रहे इन निर्दोष बच्चों को देखकर हर संवेदनशील व्यक्ति का मन परेशन होता है। इसी परेशानी और व्यथा ने पा-लो-ना नामक संस्था को जन्म दिया।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि किसी से पालन-पोषण करने की गुहार की जा रही है। आश्रयणी फाउंडेशन की ओर से संचालित पालोना संस्था ऐसे ही परित्यक्त बच्चों को आश्रय देती है। रांची में यह संस्था पिछले तीन वर्षों से काम कर रही है। अब तक दर्जनों नवजात शिशुओं को बचाने और उन्हें नई जिंदगी देने-दिलाने में संस्था सफल रही है। बड़ी संख्या में लोग संस्था से जुड़कर इस नेक अभियान का हिस्सा भी बन रहे हैं।
संस्था अपने कार्यों के माध्यम से यह बताने की कोशिश कर रही है कि हर बच्चे को जीने का हक है और उसे यह हक मिलना ही चाहिए। इस मामले में अधिक से अधिक जागरूकता लाई जानी चाहिए। चाइल्ड लाइन, बाल कल्याण समिति और विभिन्न अनाथालयों के साथ मिलकर पा-लो-ना इस मुहिम को आगे बढ़ा रही है।
लोगों को जागरूक करने का भी प्रयास
संस्था के सदस्य लगातार शिविर, सेमिनार आदि का आयोजन कर लोगों को इस बावत जागरूक करने का प्रयास करते हैं शिशुओं को किसी भी स्थिति में फेंका नहीं जाना चाहिए। उन्हें पालने की इच्छा न हो तो अनाथालयों के सुपुर्द किया जा सकता है। बच्चे का फेंका जाना कितना बड़ा अपराध है और उसकी सजा क्या है, इस बारे में भी जानकारी दी जाती है। यह अपराध बढ़ रहा है, लेकिन इसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाना चिंता का विषय है। संस्था की कोशिश यह भी होती है कि जिस माता-पिता ने बच्चे का परित्याग किया है, उन्हें ढूंढ कर बात की जाए।
ऐसे शुरू हुआ अभियान
दो साल पहले रांची के ही कोकर स्थित डिस्टिलरी पुल के पास एक बच्ची को पड़ा देखा। ठंड के दिन में भी उस बच्ची के शरीर पर कपड़े नहीं थे। पास जाकर देखा तो बच्ची की सांस चल रही थी। उसका इलाज कराने और संभालने के बाद मन में विचार आया कि ऐसे बच्चों को बचाने की प्रभावी कोशिश की जानी चाहिए। इसके बाद पूरे प्रदेश में पा-लो-ना के नाम से इसे अभियान का रूप दे दिया गया।
संस्था को मिल चुके हैं कई पुरस्कार
इस नेक काम के लिए संस्था की हर ओर सराहना हो रही है। कई पुरस्कार भी मिले हैं। अनचाहे नवजात शिशुओं की जिंदगी संवारने के लिए अभी दो महीने पहले ही आश्रयणी फाउंडेशन की चेयरपर्सन और पा-लो ना की समन्वयक मोनिका गुंजन आर्य को विश्व शांति सेवा चैरिटेबल ट्रस्ट ने इंडिया आइकॉनिक पर्सनालिटी अवॉर्ड से सम्मानित किया।
मामलों की अनदेखी के खिलाफ भी है मुहिम
जहां तक शिशु हत्या की बात है, तो ऐसे मामले कभी दर्ज ही नहीं किए जाते। इसलिए बच्चों को जिंदा या मृत फेंके जाने का कोई रिकॉर्ड पुलिस या प्रशासन के पास उपलब्ध नहीं होता। यह चिंता का विषय है। मृत बच्चों के मामले में प्रशासन को अक्सर लगता है कि मरे हुए बच्चों में भला किसकी दिलचस्पी हो सकती है, विशेषकर, जिन्हें उनके अपनों ने ही त्याग दिया हो। पुलिस धाराएं भी गलत लगा देती है।
ये लापरवाही पुलिस प्रशासन जान-बूझकर करती है और उन्हें कोई रजिस्टर ही नहीं करता। परिवार, समाज, पुलिस-प्रशासन और सरकार की इस बेरुखी ने ही पा-लो ना को जन्म दिया है। हमारी मुहिम इस सोच के भी खिलाफ है।
फेंकने की बजाय बच्चा किसी को सौंप दें
पा-लो-ना किसी भी बच्चे के परित्याग के खिलाफ है, फिर चाहे वह जिंदा हो या मृत। हम परिवार और समाज से हम अपील करते हैं कि वे बच्चों को त्यागने, कहीं पर फेंकने की बजाए उन्हें किसी भी योग्य अधिकारी को सौंप दे, ताकि उसके जीवन को बचाया जा सके। ये कानूनन सही है।
हां, मृत बच्चों को कहां सौंपा जाए, ये आज की तारीख में एक समस्या जरूर है, क्योंकि उसके लिए कोई सरकारी-गैर सरकारी एजेंसी विशेष तौर पर सेवा उपलब्ध नहीं करवाती, मगर पा-लो ना के जरिए हम उसके लिए भी प्रयासरत हैं और सरकारी अनुमति मिलने का इंतजार कर रहे हैं।
एक दुखद स्थिति यह भी है कि जितने भी बच्चे फेंके हुए मिलते हैं, उनमें ज्यादातर मृत ही मिलते हैं। हम सरकार और प्रशासन से अपील करते हैं कि वे तमाम माध्यमों से इस बात का प्रचार-प्रसार करें कि बच्चों को फेंकना, उऩ्हें असुरक्षित स्थानों पर छोड़ना, उनके जीवन को खतरे में डालना एक गंभीर अपराध है। वे माता-पिता को सरेंडर पॉलिसी के रूप में मौजूद विकल्प की जानकारी दें। हम अपनी एक्जीबिशंस और सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार ये अपील कर रहे हैं।