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मैक्लुस्कीगंज : लुप्त होती संस्कृति के बीच जल रही उम्मीद की किरण

राजधानी राची से 60 किमी उत्तर-पश्चिम में बसा मैक्लुस्कीगंज।

By JagranEdited By: Published: Fri, 19 Jun 2020 02:00 AM (IST)Updated: Fri, 19 Jun 2020 06:14 AM (IST)
मैक्लुस्कीगंज : लुप्त होती संस्कृति के बीच जल रही उम्मीद की किरण
मैक्लुस्कीगंज : लुप्त होती संस्कृति के बीच जल रही उम्मीद की किरण

धीरेंद्र प्रसाद, खलारी। राजधानी राची से 60 किमी उत्तर-पश्चिम में बसा मैक्लुस्कीगंज। कभी मिनी इंग्लैंड कहा जाता था। विक्टोरियन बंगले एंग्लो इंडियन परिवारों की संस्कृति की पहचान भी थे। कोई इंग्लैंड से था तो कोई पुर्तगाल, आयरलैंड या ऑस्ट्रेलियन मूल का। बदलते हालात के साथ करीब 400 परिवारों से आबाद रहा मैकलुस्कीगंज वीरान होता चला गया। इस वीरानी के बीच बचे-खुचे परिवार व खंडहर में तब्दील होते गांव के बंगले आज भी पर्यटकों को लुभाते हैं।

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एंग्लो इंडियन व्यवसायी ईटी मैक्लुस्की ने बसाया था यह गांव

ब्रिटिश काल में कोलकाता के एंग्लो इंडियन व्यवसायी ईटी मैक्लुस्की ने एक सोसाइटी बनाकर देशभर के एंग्लो इंडियंस को यहा बसने के लिए आमंत्रित किया था। वर्ष 1932 तक 'कॉलोनाइजेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया लिमिटेड' के अंतर्गत करीब 400 एंग्लो इंडियन परिवारों ने यहां अपना बसेरा बनाना स्वीकार किया था। बाद में एंग्लो इंडियन परिवार में आपसी खींचतान शुरू होने के बाद समस्या आने लगी। कई लोग अपने घर परिवार को छोड़ स्वदेश लौट। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एंग्लो इंडियन परिवारों के बढ़ते बच्चे रोजगार के दृष्टिकोण से इस जगह को असुरक्षित मानने लगे और काफी लोग मैक्लुस्कीगंज से पलायन कर गए।

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कई नामचीन हस्तियों ने खरीदे बंगले

कुछ एंग्लो इंडियन परिवारों ने अपने बंगले कलकत्ता (अब कोलकाता) के अमीर बंगालियों को बेच दिये। आजादी के बाद लगभग 200 एंग्लो इंडियन परिवार बचे थे। वर्ष 1960 तक लगभग 150 परिवार धीरे-धीरे लौट गए। मैक्लुस्कीगंज के जंगलों पहाड़ों में बसे आलीशान बंगलों को बाद में अवकाश प्राप्त सेना के अधिकारियों तथा कई दूसरे लोगों ने अपना आशियाना बना लिया। एंग्लो इंडियन संस्कृति व प्राकृतिक वातावरण से प्रभावित होकर बाग्ला उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा, अभिनेत्री अपर्णा सेन, कई सैन्य अधिकारी, आइएएस सहित बड़ी हस्तियों ने भी बंगले खरीदे।

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एंग्लो इंडियन विधायक की पहल ने पूरी तरह उजड़ने से बचाया

साठ के दशक में आए एंग्लो इंडियन कैप्टन डीआर कैमरोन ने मैक्लुस्कीगंज की पुरानी पहचान को वापस लाने की कोशिश की थी। यहां के एंग्लो इंडियन परिवारों के लिए आशा की किरण तब जागी जब वर्ष 1997 में तत्कालीन बिहार के मनोनीत एंग्लो इंडियन विधायक अलफ्रेड डी रोजारियो ने डॉन बॉस्को एकेडमी की एक शाखा मैक्लुस्कीगंज में खोल दी।

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पेइंग गेस्ट व छात्रावास बने बंगले, बचे-खुचे परिवारों में जगी आस

एंग्लो इंडियन परिवार अपने बंगलों को पेइंग गेस्ट के रूप में इस्तेमाल करने लगे। कई ने हॉस्टल बना दिया। उनकी आमदनी बढ़ने लगी और एंग्लो इंडियन परिवारों को मैक्लुस्कीगंज को अलविदा कहने से रोक लिया। दर्जन भर एंग्लो इंडियन परिवार ही बच गए हैं। इनमें ब्राइन मेंडिस, हैरिल मेंडिस, डेनिस मेरेडीथ, केटी टेक्सरा, नेल्सनपॉल गॉर्डेन उर्फ बॉबी गॉर्डेन, क्रिस्टोफर डिकोस्टा, आइवन फ्रासिस बैरेट, मेल्कम हॉरिगन, जॉनी हॉरिगन, एसली गोम्स, क्लींटन गोम्स, डेनिस ब्राइन आदि के परिवार हैं। अधिकतर लोग डॉन बॉस्को एकेडमी आनेवाले बच्चों लिए हॉस्टल चलाते हैं। आज भी पर्यटक इनकी संस्कृति, इनके बंगले व रहन-सहन से रूबरू होना चाहते हैं।

व‌र्ल्ड एथनिक डे पर विशेष

- कोलकाता के व्यवसायी ईटी मैक्लुस्की ने बसाया था यह गांव

- रांची से 60 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव में रहते थे 400 परिवार

-इंग्लैंड, पुर्तगाल, आयरलैंड या ऑस्ट्रेलियन लोगों से था आबाद

- आपसी खींचतान व आर्थिक असुरक्षा के चलते शुरू हुआ पलायन

- खंडहर में तब्दील होने लगे जंगलों पहाड़ों में बसे आलीशान बंगले

- एंग्लो इंडियन विधायक की पहल से जगी उम्मीद की किरण

- बाग्ला उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा, अभिनेत्री अपर्णा सेन सहित कई नामचीन ने यहां खरीदे बंगले

- कभी मिनी इंग्लैंड के नाम से मशहूर था मैक्लुस्कीगंज का यह गांव

- डॉन बॉस्को एकेडमी खुलने के बाद परिवारों को मिला अर्थोपार्जन का जरिया


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