जरा आप भी मिलिए फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली मनरेगा मजदूर किटी मेमसाब से
किटी कहती हैं कि अब मेमसाब कहलाना गाली लगता है। लोग किटिया कहते हैं तो अच्छा लगता है। किटी ने जॉब कार्ड बनवा रखा है।
रांची, जेएनएन। मैक्लुस्कीगंज? नाम सुनते ही दिमाग में एक एंग्लो इंडियन गांव की तस्वीर उभरती है। इस तस्वीर के साथ ही एक और तस्वीर उभरती है किटी मेम साब की। जैसे यह गांव खुद अपने से पूछ रहा हो, आखिर क्यों जीवित हैं अभी तक। ठीक उसी तरह जैसे किटी मेम साब खुद से पूछ रही हों क्यों जीवित हैं?
गांव की कथा की तरह किटी मेम साब की कथा भी दारुण है। कैथलिक टेक्सरा, किटी, किटी मेमसाब... और अब मनरेगा मजदूर। जिसके नाना कभी असम के राज्यपाल के सचिव रहे हों, वह आज उम्र 63वें पड़ाव पर मनरेगा मजदूर बन गई। गोरा चेहरा, नीली आंखें और उलझी हुई सुनहरी बालों वाली किटी अपने जीवन के बारे में कहती हैं '... जीवन में सुख कभी देखा ही नहीं, दुख ही जीवन की कथा रही।
फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली किटी नागपुरी भाषा भी उतनी ही सहजता से बोलती हैं। मैक्लुस्कीगंज के लिए मिथक बन चुकी किटी के नाना ई रॉबटर्स सेवानिवृत्ति के बाद देश के अन्य एंग्लो इंडियन की भांति 1940 के दशक में मैक्लुस्कीगंज का रुख किया। अपने परिवार के साथ मैक्लुस्कीगंज आकर एक बंगला खरीदा। 1947 में जब देश को आजादी मिली, उसी वर्ष रॉबटर्स की बेटी ने एक फूल सी बच्ची को जन्म दिया।
बूढ़े नाना व अन्य परिवार को इस अनजान वीरान मगर मन को लुभाने वाली जगह में जीने का सहारा मिल गया। बड़े लाड़ से बच्ची का पालन-पोषण हुआ। यह परिवार चाहता तो लंदन या अन्य दूसरी जगह बस सकता था, लेकिन अन्य एंग्लो इंडियन की भांति इस परिवार ने भी मैक्लुस्कीगंज को अपना ठिकाना बना लिया। किटी पढऩे लायक भी नहीं हुई थी कि 1967 में उसके नाना का देहांत हो गया। फिर मां भी चल बसी। इसके बाद शुरू हुआ परिवार पर संकटों का दौर।
किटी जब बड़ी हुईं तो ब्याही जाने से पूर्व पिता और भाई का साया उठ गया। अनजान व अपरिचित देश और अकेली कैथलिक टेक्सरा। जीवन के इस संर्घष में किटी ने एक स्थानीय युवक रमेश मुंडा को अपना जीवन साथी बनाया। इस बीच देश-विदेश से आने-जाने वाले पर्यटक व मीडिया के लिए किटी कौतुहल का विषय बनी रहीं। जो आया, उसने किटी की कहानी सुनी और उसे अपने कैमरे में कैद कर लिया। लेकिन किटी की तकदीर नहीं बदली। मैक्लुस्कीगंज स्टेशन पर फल बेचकर किटी ने अपनी चार संतानों को पाला।
किटी का कभी सुसज्जित रहा बंगला अब खंडहर बन चुका है। किटी कहती हैं कि अब मेमसाब कहलाना गाली लगता है। लोग किटिया कहते हैं तो अच्छा लगता है। किटी ने जॉब कार्ड बनवा रखा है। 'मेमसाब और मजदूरी न बाबा न, आपसे मजदूरी नहीं होगी। फिर भी उन्हें किसी तरह मजदूरी का काम मिल जाता है। 65 की उम्र में रोटी के लिए उठा रहीं हैं टोकरी।
बड़ी मायूसी से कहती हैं, मैं न तो हरिजन हूं और न ही आदिवासी। बंगला खंडहर हो गया है। इंदिरा आवास के लिए आवेदन दिया था, लेकिन नहीं मिला। बेटा तथा बड़ी बेटी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हैं। बंगले के आसपास कुछ फलदार वृक्ष हैं। इस वर्ष आम की फसल अच्छी है। इसे लेकर किटी आशान्वित हैं। कुछ कमाई हो जाएगी। किटी कहती है अब कहां जाना है। मैक्लुस्कीगंज में ही दफन हो जाना है।