झारखंड के लोहरदगा में आज भी जंगलों पर निर्भर है बड़ी आबादी, सूखी लकड़ियां व पत्ते बेचकर लोग करते हैं गुजारा
जंगलों पर आज भी एक बड़ी आबादी निर्भर करती है। दो वक्त की रोटी के लिए जंगल ही इनका सहारा है। सरकार भले ही तमाम योजनाएं चला ले उनके घर तक राशन पहुंचा दे परंतु दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगल ही इनका सहारा बनते हैं।
लोहरदगा, जासं । जंगलों पर आज भी एक बड़ी आबादी निर्भर करती है। दो वक्त की रोटी के लिए जंगल ही इनका सहारा है। सरकार भले ही तमाम योजनाएं चला ले, उनके घर तक राशन पहुंचा दे, परंतु दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगल ही इनका सहारा बनते हैं। लोहरदगा जिले में एक बड़ी आबादी आज भी जंगलों और पहाड़ों पर निर्भर है। सूखी लकड़ियां, दातुन, पत्ता, कंदमूल, जंगली फल और अन्य उत्पाद बेचकर यह अपने लिए तो पैसे का जुगाड़ कर पाते हैं।
लोहरदगा जिले के सेन्हा, किस्को, पेशरार और कुडू प्रखंड में ऐसे परिवार हजारों की संख्या में हैं। सप्ताह के अन्य दिनों में भले ही यह रोजगार के दूसरे साधन के सहारे जी लेते हैं, परंतु सोमवार और शुक्रवार को साप्ताहिक बाजार के दिन जंगल से सूखी लकड़ियां, दातुन, पत्ता लाकर शहर के बाजार में बेचना और उससे मिलने वाले पैसे से अपने जरूरत के सामान को खरीदना इनकी दिनचर्या में शामिल है। शहरी क्षेत्र के होटल, ठेला, ढाबा आदि में आज भी इंधन के रुप में लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है।
इसके अलावा भी अपने घर में भी इंधन के रूप में लकड़ियों के इस्तेमाल को लेकर गरीब परिवार जंगल में सूखी लकड़ियों पर निर्भर हैं। पूरे परिवार के साथ जंगल से सूखी लकड़ियां चुनकर लाना और उसे फिर बेच कर दो पैसे का जुगाड़ करना इनकी परंपरा में शामिल हो गया है। दातुन-पत्ता के रूप में भी इन्हें रोजगार का एक अच्छा साधन मिल पाता है। लोहरदगा शहरी क्षेत्र के बाजार में बिकने वाले दातुन-पत्ता गरीब परिवारों की मेहनत को दर्शाते हैं। हर दिन सुबह पांच बजे से पहले शहर पहुंचकर दातुन-पत्ता बेचना कितना मुश्किल भरा होता होगा, यह समझा जा सकता है। मूल रूप से इस कार्य से गंझू, नगेसिया, उरांव आदि जाति के लोग जुड़े हुए हैं। जिनके लिए जंगल सिर्फ प्रकृति ही नहीं है, बल्कि उनके लिए ईश्वर तुल्य है। जहां के सहारे वह अपने लिए खुशियां खरीदने का काम करते हैं। जंगलों पर इनकी निर्भरता आज भी उतनी ही बनी हुई है, जितना आज से कई दशक पहले थी।