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सरकार की स्थानीय नीति पर उठ रहे सवाल, झामुमो को नहीं मिल रहा कांग्रेस का साथ

Jharkhand Local Policy. झारखंड में स्थानीयता नीति पर सरकार की कार्यप्रणाली पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। सरकार को अभी से घेरा जा रहा है।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Published: Sat, 21 Mar 2020 12:57 PM (IST)Updated: Sat, 21 Mar 2020 12:57 PM (IST)
सरकार की स्थानीय नीति पर उठ रहे सवाल, झामुमो को नहीं मिल रहा कांग्रेस का साथ
सरकार की स्थानीय नीति पर उठ रहे सवाल, झामुमो को नहीं मिल रहा कांग्रेस का साथ

रांची, [प्रदीप शुक्ला]। बाबूलाल मरांडी को झारखंड में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा भले ही न मिला हो, लेकिन उनकी पहल से विधानसभा सत्र सुचारू रूप से चल रहा है। इसे एक अच्छी शुरुआत कहा जा सकता है, क्योंकि विधानसभा अखाड़ा बनने से तो बची ही, साथ ही जनता से जुड़े मुद्दों पर बहस भी हो रही है। स्थानीयता नीति, विस्थापन को लेकर समस्याएं सहित तमाम मसलों पर सरकार ने अपनी मंशा जाहिर की है। इस बीच यह भी स्पष्ट हो गया है कि सरकार फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। इसके पीछे जो भी सोच हो, लेकिन इस पर सवाल उठने लगे हैं।

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खासकर स्थानीयता नीति को लेकर तीन सदस्यीय कमेटी बनाने के सवाल पर सरकार को अभी से घेरा जा रहा है। विपक्ष सरकार से स्थानीयता नीति में बदलाव के प्रति रुख और मंशा स्पष्ट करने को लेकर दबाव बना रहा है। विपक्षी विधायक कह रहे हैं कि पूर्व की स्थानीयता नीति में सरकार बदलाव करेगी या नहीं, यह उसे साफ करना चाहिए। झामुमो का रुख तो स्पष्ट है, लेकिन गठबंधन की उसकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस इससे असहमति रखती है।

यही वजह है कि इस पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बहुत ज्यादा बोल नहीं रहे हैं। आने वाले समय में यह मुद्दा गठबंधन सरकार की गले का फांस बन सकता है। इससे पूर्व 2013 में अर्जुन मुंडा की तत्कालीन सरकार से झारखंड मुक्ति मोर्चा ने स्थानीयता को आधार बनाकर समर्थन वापस ले लिया था। यह जटिल विवाद है, जिसे पूर्ववर्ती रघुवर दास की सरकार ने बेहतर तरीके से सुलझा लिया था।

दरअसल झारखंड में स्थानीय कौन है, इसे लेकर राजनीतिक विवाद है। पूर्ववर्ती रघुवर सरकार ने इसका सर्वमान्य समाधान निकाला कि राज्य गठन की तिथि 15 नवंबर 2000 से 15 वर्ष पहले से राज्य में रहने वाले यानी 15 नवंबर 1985 से पहले से झारखंड में निवास कर रहे लोग स्थानीय माने जाएंगे। सत्ताधारी झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इसका विरोध किया है।

मोर्चा की दलील है कि स्थानीय का दर्जा उसे मिलना चाहिए, जिनके नाम यहां हुए अंतिम जमीन सर्वे में दर्ज है। राज्य में अंतिम जमीन सर्वे ब्रिटिश शासनकाल में 1932 में हुआ था। उधर नेता प्रतिपक्ष के बिना चल रही विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष एकदूसरे पर हमलावर हैं। झाविमो के भाजपा में विलय और बाबूलाल मरांडी को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने के मसले पर विधानसभा अध्यक्ष कानूनी परामर्श ले रहे हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने झाविमो के भाजपा में विलय को सही ठहरा दिया है।

भाजपा विधायक इस मुद्दे पर विधानसभा नहीं चलने दे रहे थे, ऐसे में बाबूलाल मरांडी ने खुद इसका पटाक्षेप किया। उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष को सुझाव दिया कि अगर वह मजबूर हैं तो सत्ता पक्ष से ही किसी को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दे दें, ताकि सदन का नियम से संचालन हो सके। उन्होंने भाजपा विधायकों को भी इस मुद्दे पर सदन को बाधित करने से रोक दिया और इसके बाद से सदन में तमाम मसलों को लेकर बहस हो रही है।

निर्दलीय विधायक सरयू राय की मांग पर वर्तमान सरकार पूर्व की रघुवर सरकार के कई काम की जांच की घोषणा भी कर चुकी है। सरकार का जो रुख है उससे लगता तो नहीं है कि सरकार आरोपों को लेकर बहुत ज्यादा गंभीर है। हां, स्थानीयता नीति जरूर ऐसा मसला है जो आने वाले समय में राज्य के लिए बड़ा मुद्दा बनेगा। झामुमो ने एलान कर रखा है कि 1932 के खतियान के आधार पर ही स्थानीयता नीति लागू होगी। मतलब स्पष्ट है कि पूर्व की रघुवर सरकार द्वारा बनाई गई स्थानीयता नीति में बदलाव होगा।

सभी दल इस पर निगाह लगाए हुए हैं। गठबंधन सरकार ने इसके लिए तीन सदस्यीय कमेटी गठित की है। भाजपा पूछ रही है कमेटी का गठन क्यों किया गया है? झामुमो अपना वादा पूरा करे। मुख्यमंत्री अच्छी तरह से समझ रहे हैं यह ऐसा मुद्दा है जो नई नवेली सरकार को मुश्किल में डाल सकता है। कांग्रेस 1932 के खातियान के आधार पर स्थानीयता नीति को कतई नहीं मानने वाली है। इसके अलावा अब झामुमो को भी शहरी मतदाताओं से आस जग गई है ऐसे में इस मसले को जितने लंबे समय तक लटकाया जा सकता है लटकाया जाए, क्योंकि यही सरकार और पार्टी दोनों के हित में रहने वाला है।

राज्यसभा चुनाव में दो-दो हाथ

राज्यसभा चुनाव में दावेदारी कर कांग्रेस ने झारखंड मुक्ति मोर्चा को भी एकबारगी धर्मसंकट में डाला है। साझीदार होने के कारण मोर्चा पर नैतिक दबाव है कि वह कांग्रेस प्रत्याशी के लिए जीत के लायक वोटों का जुगाड़ करे, लेकिन विधानसभा की दलीय स्थिति इसकी इजाजत नहीं देती। विधानसभा की कुल संख्या बल के लिहाज से एक सीट पर जीत हासिल करने के लिए 27 विधायकों के प्रथम वरीयता के वोट की आवश्यकता होगी।

झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास 29 विधायक हैं। जीत के लिए उसकी किसी अन्य दल पर निर्भरता नहीं है। भाजपा के पास सदन में बाबूलाल मरांडी को मिलाकर 26 विधायक हैं। आजसू पार्टी के दो विधायकों ने भाजपा को समर्थन का एलान किया है। एक निर्दलीय विधायक अमित यादव भी भाजपा प्रत्याशी के प्रस्तावक बने हैं।

ऐसे में भाजपा भी जीत के लिए आवश्यक वोट से ज्यादा पाने को लेकर आश्वस्त हैं। झारखंड में नवगठित सरकार ने भले ही कामकाज का संचालन व्यवस्थित रूप से शुरू कर दिया हो, लेकिन अभी भी अनेक ऐसे विवादित मसले हैं जिनके बारे में सरकार का रुख और कार्यप्रणाली पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाई है।

[स्थानीय संपादक, झारखंड]


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