Jharkhand Assembly Election 2019: इस बार वोट झारखंड के लिए...स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्वायत्तता के साथ-साथ स्वतंत्रता भी जरूरी
Jharkhand Assembly Election 2019. राज्य में हालात सुधरे लेकिन झारखंड पूरी तरह सेहतमंद नहीं बन सका। इसमें अभी और सुधार की जरूरत है।
रांची, राज्य ब्यूरो। Jharkhand Assembly Election 2019 - एक स्वस्थ समाज की कल्पना के बगैर विकास और अन्य तमाम बातें कागजी लगती हैं। शिक्षा, खेल, संस्कृति सभी विषय भले ही अलग-अलग हों, सभी के नायकों की पहली प्राथमिकता होती है स्वस्थ होना। स्वस्थ समाज होगा तो निश्चित तौर पर राज्य और देश के विकास की रफ्तार बढ़ेगी। अलग राज्य बनने के बाद झारखंड स्वास्थ्य के पैमाने पर पिछड़े राज्यों में शुमार था लेकिन अब निश्चित तौर पर हालात बदले हैं। बहुत मामलों में सुधार हुआ है और बहुत सुधार की गुंजाइश भी है। नेशनल इंडेक्स पर भी झारखंड की स्थिति को बेहतर करना है।
वर्षों की अनदेखी से बिगड़े हालात को सुधारने में महीनों अभी भी लगेंगे। झारखंड में एम्स और रिम्स जैसे संस्थान काम कर रहे हैं, लेकिन इनके माध्यम से भी वैसा सुधार नहीं हो पा रहा है जैसी कल्पना की जाती है। एम्स तो खुले हुए अभी चंद महीने ही हुए हैं, रिम्स वर्षों से काम कर रहा है। इसके बावजूद सुधार नहीं होने से सवाल उठता है। सुधार नहीं होने के पीछे रिम्स की ऑटोनॉमी भी महत्वपूर्ण है। पीएमसीएच और एमजीएम जैसे संस्थानों को भी समय के साथ ऑटोनोमस बनाना होगा लेकिन उन्हें पूरी स्वतंत्रता भी मिलनी चाहिए। ऐसा नहीं होने पर बेहतर प्रदर्शन करने में परेशानी होती है।
महिलाएं अस्वस्थ, बच्चे कुपोषित
राज्य में स्वास्थ्य के इंडेक्स पर परफार्मेंस में सुधार नहीं हुआ है। कारण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों हैं। समाज में महिलाओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता हासिल नहीं है तो आर्थिक कारणों से वे अस्पताल से दूर भी रहती हैं और तीसरा कारण यह कि राजनीतिक दल इसे अपनी प्राथमिकताओं में शामिल नहीं कर रहे हैं। झारखंड में 65.2 फीसद महिलाओं में खून की कमी है। इसका असर महिलाओं के साथ-साथ सीधे आनेवाली पीढ़ी पर पड़ता है।
लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। यह झारखंड जैसे खनिज संपदा से भरपूर राज्य के लिए शुरू से ही कलंक रहा है। इसके बावजूद प्रदेश में यह कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनता। सभी स्थानीय और राष्ट्रीय पार्टियां अपने घोषणापत्र में भी इस कलंक को समाप्त करने की कोई बात नहीं करतीं। अब देखना है कि इस लोकसभा चुनाव में पार्टियां इस बड़े मुद्दे को कितना महत्व देती हैं।
एक साथ बढ़ गईं मेडिकल की 300 सीटें
तीनों नए मेडिकल कॉलेजों में इसी साल से नामांकन की अनुमति मिलने से राज्य में एमबीबीएस की सीटें एक साथ तीन सौ बढ़ गईं। बता दें कि इस साल रिम्स, रांची को कमजोर वर्ग के लिए आरक्षित सीटों के साथ कुल 190 तथा पीएमसीएच, धनबाद व एमजीएम, जमशेदपुर को 50-50 सीटों के विरुद्ध दाखिले की अनुमति मिली थी। राज्य में पहली बार एक साथ तीन नए मेडिकल कॉलेजों की स्थापना हुई है।
राज्य को मिल रहा आयुष्मान का आशीर्वाद
आयुष्मान भारत गरीब मरीजों के लिए वरदान बन रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस महात्वाकांक्षी योजना से अबतक ढाई लाख से अधिक गरीब मरीजों का इलाज हुआ है। इनके इलाज पर कुल लगभग 250 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। हालांकि इसमें कई कमियां भी सामने आ रही हैं।
जैसे, अभी भी इस योजना से कई बड़े अस्पताल जुड़ नहीं पाए हैं। कई प्रकार की बीमारियों में दर कम होने के कारण भी अस्पताल मरीजों के इलाज से बचते हैं। सरकारी अस्पतालों में उतनी सुविधा उपलब्ध नहीं है ताकि मरीज पास के अस्पताल में ही बड़ी बीमारियों का इलाज करा सके।
स्वास्थ्य में यह है झारखंड की स्थिति : झारखंड में 06 से 59 माह की 70 फीसद बच्चियां, 62.6 फीसद गर्भवती महिलाएं तथा मां बनने योग्य उम्र की 65.2 महिलाओं में एनीमिया की समस्या रहती है।
- राज्य में एक लाख बच्चों के जन्म होने पर 165 महिलाओं की मौत हो जाती है।
- 38 फीसद बालिकाओं की शादी 18 वर्ष से पूर्व हो जाती है।
- झारखंड के 47.8 फीसद बच्चे अंडरवेट अर्थात कुपोषण के शिकार हैं।
- झारखंड में 11.4 फीसद बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हैं। इनमें मौत का खतरा नौ से बीस गुना अधिक रहता है। ऐसे बच्चों की संख्या 5.8 लाख है।
- दस में से तीन बच्चे अपनी लंबाई की तुलना में दुबले-पतले हैं।
झारखंड में होनेवाली मृत्यु में पांच फीसद मृत्यु का भी मेडिकल सर्टिफिकेशन (मृत्यु के कारणों की जांच) नहीं होता। इससे यह पता नहीं चल पाता कि किस व्यक्ति की किस बीमारी से मौत हुई। रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड में वर्ष 2017 में हुई कुल मृत्यु (जिनका निबंधन हुआ) में 4.7 फीसद का ही मेडिकल सर्टिफिकेशन हुआ।
मृत्यु के कारणों की जांच में हालांकि झारखंड में हाल के वर्षों में काफी सुधार हुआ है। इसके बावजूद इस मामले में झारखंड पूरे देश (राज्य व केंद्र शासित प्रदेश) में सबसे निचले और 35वें स्थान पर है। राज्य में 2017 में कुल 1,16,393 मृत्यु का निबंधन हुआ, जिनमें महज 5,482 मृत्यु का सर्टिफिकेशन हुआ।
अच्छी पहल
- ई-सिगरेट पर प्रतिबंध लगाया गया। केंद्र द्वारा 18 सितंबर को पूरे देश में इसे प्रतिबंधित करने से पहले ही झारखंड में इसपर प्रतिबंध लगा था।
- 100 शहरी स्लम बस्तियों में मुहल्ला क्लिनिक खोले गए।
कमियां
- चाईबासा में आयुर्वेद का फार्मेसी कॉलेज का भवन दस साल से अधिक समय से बन ही रहा है।
- गिरिडीह में यूनानी का मेडिकल कॉलेज बनकर तैयार है, लेकिन अभी तक वहां पढ़ाई शुरू नहीं हो सकी है।
राज्य गठन के बाद ऐसे हुआ सुधार
वर्ष 2000 में झारखंड में मातृ मृत्यु दर 400 प्रति लाख थी जो घटकर 165 प्रति लाख हो गई। इसी तरह शिशु मृत्यु दर 72 प्रति हजार से घटकर 29 हो गई। संस्थागत प्रसव की दर 13.50 फीसद से बढ़कर 80 फीसद तथा पूर्ण टीकाकरण की दर 9 प्रतिशत से बढ़कर 87 प्रतिशत हो गई।
निजी क्षेत्र में नहीं खुल सका एक भी मेडिकल कॉलेज
सरकारी क्षेत्र में भले ही एक साथ तीन मेडिकल कॉलेज खुले हों, लेकिन राज्य गठन के बाद से यहां निजी क्षेत्र में एक भी मेडिकल कॉलेज नहीं खुल सका है। जबकि राज्य सरकार ने निजी क्षेत्र में मेडिकल कॉलेज को बढ़ावा देने के लिए तीस करोड़ रुपये अनुदान देने का प्रावधान किया है। इसके लिए 20 एकड़ जमीन तथा 300 बेड का अस्पताल होना चाहिए।
फिलहाल कागजों में मेडिको सिटी
इटकी में स्थापित होनेवाली मेडिको सिटी अभी फिलहाल कागजों में ही है। पीपीपी मोड पर कंपनियों के चयन के लिए टेंडर में ही पूरा साल बीत गया। अब दोबारा टेंडर की तैयारी चली रही है। मेडिको सिटी में मेडिकल कॉलेज, सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल, पारा मेडिकल, नर्सिंग कॉलेज आदि एक ही परिसर में होंगे।
ये भी हैं चुनाव के मुद्दे
- आदिवासियों के स्वास्थ्य के लिए विशेष पैकेज की योजना पर कुछ भी नहीं हुआ। दो वर्ष पूर्व इस योजना की स्वीकृति कैबिनेट से मिली थी, लेकिन इसमें कुछ नहीं हो सका।
- सरकारी पदाधिकारियों व कर्मियों के स्वास्थ्य बीमा की योजना शुरू नहीं हो सकी।
रिम्स जैसी स्वायत्त संस्थाओं में नेताओं की भूमिका निर्णायक न हो
अभी सभी स्वायत्त संस्थानों की गवर्निंग बॉडी में नेताओं की पहुंच और दखल है जिससे काम करने में जाहिर तौर पर पेरशानी होती है, भले ही कोई शिकायत न करे। राजनीति की अपनी विवशताएं होती हैं, डॉक्टरों को इससे मुक्त करना जरूरी है। नेताओं की पहुंच जरूर हो, दखल सीमित रखने का वक्त आ गया है। अधिकारियों का दखल बढ़ाया जा सकता है। मुख्य सचिव को जिम्मेदारी दी जा सकती है जैसे लखनऊ पीजीआइ में है।
चुनाव में नीति और नीयत में अंतर होता है। जिससे एनीमिया और कुपोषण जैसे मुद्दे गौण हो जाते हैं। एनीमिया और कुपोषण की समस्या आम लोगों में होती है और आम लोगों के प्रति सोचनेवाले दलों की संख्या काफी कम है। आइएमए एनीमिया की समस्या के निदान के लिए आपरेशन पिंक कार्यक्रम चला रहा है। इसके लिए प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कई बार राजनीतिक नेताओं से सहयोग मांगा गया। दुर्भाग्य से नेता इसके लिए आगे नहीं आए। ऐसी पार्टियों को इससे वोट मिलने की संभावना नहीं दिखती। -डॉ. एके सिंह, अध्यक्ष, आइएमए, झारखंड।