कोरोना जाए, ये पांच मिनट हमेशा के लिए ठहर जाए
------- ललन शर्मा ने कहा कि ये पांच मिनट हमेशा के लिए ठहर जाए।
ललन शर्मा, केंद्रीय सह अभियान प्रमुख एकल
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समवेत तालियां, थालियां, शंखध्वनि, उलूकध्वनि, ढोलक, तबला, बांसूरी, घंटियां, खड़ताल! निश्चित समय से पांच मिनट पहले से ये स्वर लहरियां घरों की छतों और बालकनियों से उठनी आरंभ हुईं और आसपास के छोटे मंदिरों से उठते घंटनाद के साथ पूरे तालमेल में हो गईं। सबसे अनुपम दृश्य था मातृवर्ग का अपने घरों के मंदिरों में से जगन्नाथ के छोटे-छोटे काष्ठ-विग्रहों को निकाल कर उन्हें अपना आंचल ओढ़ाकर गोद में लिए हुए कमरों से बाहर निकलना। सच, हृदय जुड़ा गया यह देखकर! यही इस देश की प्राण-ऊर्जा का स्त्रोत है।
आयु-लिंग का भेद नहीं। सब निकले हैं, घरों के अंदर, कमरों से बाहर। कुछ परिवारों में तो लोग नहा-धो कर तुलसी-पूजन करते भी दिख रहे हैं। कोरोना जाए, लेकिन ये कुछ मिनट स्थायी हो जाए। इस छोटी सी अवधि में हमने जीवनमूल्य सीखे। अपने बचपन वाले छोटे शहरों की तरह दीवार पर खड़े होकर हमने वषरें बाद किसी से बातें कीं। एक-दूसरे के नाम पूछे। आसपास के मकानों को शायद पहली बार हमने ध्यान से देखा, उन्हें भी उनके घर होने की मान्यता दी। सुबह का भूला समाज एक साथ शाम को लौटता हुआ सा दिखा।
यह कुछ ऐसा था जैसे जन-गण-मन आधे घंटे के लिए बज गया हो। इसे तो एक मासिक राष्ट्रीय आचार हो जाना चाहिए। यह रोमांचक था, अतुल्य था। इसने बताया कि हम विविध हैं, पर हम एक हैं। हम मानवता हैं, हम सनातन हैं।
प्रकृति चेता रही है। यह अपने पुरखों के सिखाए सहजीवन के मूल्यों को ससम्मान पुन: अपना लेने का अवसर है। यह स्वीकारोक्ति का अवसर है, कर्म-प्रक्षालन का अवसर है। यह कृतज्ञता और कर्तव्यबोध का समय है। पुन: जुड़िए, प्रकृति से, जड़ों से, जिससे आगे भी नवपल्लव, नवकुसुम खिलते रह सकें, नई शाखाएं फूटती रह सकें।
सर्वे भवंतु सुखिन,
सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पस्यंतु,
मा कश्चित दुख भाग भवेत।
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