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जन्‍मदिन विशेष: राजेंद्र बाबू ने टाना भगतों को कांग्रेस से जोड़ा, रांची से रहा गहरा नाता

बाबू राजेंद्र प्रसाद का रांची से बहुत लगाव रहा है। उनके आगमन के बाद 1920 में यहां कांग्रेस की स्थापना हुई। उनसे पहले 1917 में चंपारण आंदोलन के सिलसिले में गांधीजी रांची आए थे।

By Alok ShahiEdited By: Published: Mon, 03 Dec 2018 02:06 PM (IST)Updated: Mon, 03 Dec 2018 02:06 PM (IST)
जन्‍मदिन विशेष: राजेंद्र बाबू ने टाना भगतों को कांग्रेस से जोड़ा, रांची से रहा गहरा नाता
जन्‍मदिन विशेष: राजेंद्र बाबू ने टाना भगतों को कांग्रेस से जोड़ा, रांची से रहा गहरा नाता

रांची, संजय कृष्ण। देश के पहले राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद का रांची से बहुत पुराना संबंध रहा है। उनके आगमन के बाद ही यहां कांग्रेस की स्थापना हुई। यह घटना 1920 की है। 1917 में चंपारण आंदोलन के सिलसिले में गांधीजी रांची आए थे। इसके बाद ही यहां कांग्रेस की स्थापना को लेकर सुगबुगाहट तेज हो गई। तीन साल बाद यहां कांग्रेस की स्थापना कर दी गई।

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कांग्रेस में शहर के कुछ ही लोग शामिल थे, लेकिन यहां टाना भगत जब 1917 में गांधीजी से मिले थे तो इसके बाद वे गांधीजी से प्रभावित हुए और वे गांधी के चरखे और खादी को अपना लिया। इसमें राजेंद्र प्रसाद की प्रमुख भूमिका रही। सत्याग्रह में टाना भगतों का भी विश्वास था और गांधी का भी। गांधीजी से मिलने के बाद टाना भगत काफी प्रभावित हुए। उनके रहन-सहन, पहनावे और विचार से।

अहिंसा का सिद्धांत ऐसा जंचा कि वे फिर जीवन भर के मुरीद हो गए। यही वजह है कि आज भी टाना भगत पूरी तरह अहिंसक और गांधीवादी हैं। अपना वस्त्र खुद चरखे पर बुनते हैं। सफेद कुर्ता और गांधी टोपी इनका डे्रस कोड हो गया है। चरखा छाप तिरंगा इनका भगवान। चंवर व घड़ी घंट इनका संकेत चित्र बन गया। 1922 के गया कांग्रेस में करीब तीन सौ टाना भगतों ने भाग लिया। ये रांची से पैदल चलकर गया पहुंचे थे।

1940 में रामगढ़ कांग्रेस में इनकी संख्या तो पूछनी ही नहीं थी। छह साल बाद, पांच अक्टूबर, 1926 को रांची में राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में आर्य समाज मंदिर में खादी की प्रदर्शनी लगी थी तो टाना भगतों ने इसमें भी भाग लिया। 1934 में महात्मा गांधी हरिजन-उत्थान-आंदोलन के सिलसिले में चार दिनों तक रांची में थे। इस समय भी टाना भगत उनके पास रहते थे।

1927 में साइमन कमीशन के बॉयकाट में टाना भगत भी शामिल थे। सन् 1942 के आंदोलन में तो टाना भगतों ने रांची पहाड़ी पर तिरंगा ही फहरा दिया था। टाना भगतों की जमीन तो अंगरेजी सरकार ने पहले ही नीलाम कर दी थी, फिर भी वे आजादी के आंदोलन से पीछे नहीं हटे, मार खाई, सड़कों पर घसीटे गए, जेल की यातनाएं सही, फिर भी गांधीजी की जय बोलते रहे, अंतिम दम तक।

देश जब आजाद हुआ तो टाना भगतों ने अपनी तुलसी चौरा के पास तिरंगा लहराया, खुशियां मनाईं, भजन गाए। यह सब राजेंद्र प्रसाद के कारण ही संभव हुआ। तिरिल आश्रम में वे संविधान सभा का अध्यक्ष बनने के बाद एक सप्ताह रहे। अब तिरिल आश्रम में उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित होने जा रही है। जाने-माने मूर्तिकार दिलेश्वर लोहरा राजेंद्र प्रसाद की प्रतिमा बना रहे हैं। आजादी के पहले और उसके बाद भी रांची आना-जाना उनका लगा रहा। हजारीबाग जेल में भी ये बंदी रहे। राजेंद्र बाबू की एक प्रतिमा डोरंडा में लगी है, जिसे राजेंद्र बाबू चौक कहा जाता है। 


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