Interview: विश्व आदिवासी दिवस मनाने की कोई जरूरत नहीं, जानिए ऐसा क्यों कह रहे भाजपा नेता शिवशंकर उरांव
World Tribal Day भारतीय जनता पार्टी के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष शिवशंकर उरांव का कहना है कि हमें विश्व आदिवासी दिवस नहीं मनाना चाहिए। इसके पीछे उनका अपना तर्क है। दैनिक जागरण ने उनसे इस मुद्दे पर बात की। पढ़िए उन्होंने क्या कहा।
संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से नौ अगस्त को घोषित मूल निवासी दिवस को मनाने की तैयारी की गई है। कई आदिवासी संगठन इसे विश्व आदिवासी दिवस के रूप में भी धूमधाम से मनाते हैं। वहीं कई आदिवासी संगठन ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि विश्व आदिवासी दिवस मनाने की हमें कोई जरूरत नहीं है। इस विषय पर भारतीय जनता पार्टी के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष शिवशंकर उरांव ने दैनिक जागरण के संवाददाता संजय कुमार से बातचीत की। उन्होंने कहा कि नौ अगस्त को कोलंबस ने अमेरिका की खोज की और वहां के मूल निवासियों को यूरोपियनों ने समाप्त करने का काम किया। उस तिथि को याद करने के लिए ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे मूल निवासी दिवस घोषित कर दिया, जबकि बाद में आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री केविन रुड ने संसद में अपने पूर्वजों द्वारा किए गए अत्याचार के लिए मांफी मांगी थी। फिर हम क्यों इस तिथि को उत्सव के रूप में मनाएं। वैसे भी भारत में रहने वाले तो सभी मूल निवासी हैं। अंग्रेजों को भगाने में यहां के सभी वर्ग के लोगों ने मिलकर लड़ाइयां लड़ी। इस विषय पर उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :
विश्व आदिवासी दिवस के बारे में आपका क्या कहना है?
हर वर्ष नौ अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के नाम पर देश के विभिन्न जगहों पर छोटे बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। यह सिलसिला वर्ष 1993 से प्रारंभ हुआ जो साल दर साल अब तक आयोजित हो रहा है। 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ के वार्षिक सम्मेलन में नौ अगस्त को अंतरराष्ट्रीय मूलनिवासी दिवस के रूप में घोषित किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा ऐसी विशिष्ट दिवसों की घोषणा होती रहती है। संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़े सदस्य देश ऐसे दिवसों पर समारोह का आयोजन करते रहते हैं, लेकिन नौ अगस्त विश्व मूलनिवासी दिवस के रूप में मनाने के पीछे अंदरूनी विषय कुछ और ही है। इस विषय की पृष्ठभूमि और इतिहास हृदय विदारक, पीड़ादायक और अफसोस जनक है, जिस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और ना ही जानने की कोशिश की। इसे प्रत्येक व्यक्ति को जानना अत्यंत आवश्यक है।
क्या है वह पीड़ादायक बातें?
सन 1498 में स्पेन निवासी कोलंबस नामक नाविक समुद्री यात्रा के लिए आवश्यक लाव लश्कर के साथ निकला था। दस्तावेजों से पता चलता है कि वह हिंदुस्तान की समृद्धि के बारे में सुन चुका था और उस समय सोने की चिड़िया के रूप में प्रसिद्ध भारत की खोज के लिए निकल पड़ा, लेकिन रास्ते में समुद्री तूफानों के कारण कोलंबस का जहाज रास्ता भटक गया और अमेरिका के तट पर पहुंच गया। वह दिन नौ अगस्त का था। तब वहां अंग्रेज और गोरे लोग निवास नहीं करते थे। बल्कि वहां के मूल निवासी कोई और थे जो अपनी परंपरा, रीति नीति, आस्था विश्वास के साथ सामंजस्य पूर्ण जीवन यापन कर रहे थे। कोलंबस के बाद यूरोप के कई नाविक और अलग-अलग समूह में लोग अमेरिकी भूमि पर पहुंचने लगे। धीरे-धीरे उन लोगों ने अमेरिका पर कब्जा कर लिया और वहां के अधिकतर मूल निवासियों को खत्म कर दिया। जो बच गए उन्हें उनकी परंपरा, रीति रिवाज, धार्मिक सामाजिक मानने वाले तत्व से अलग कर दिया। हाथ में बाइबल थमा कर उनके अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया। जो बचे उन्हें गुलाम बना लिया। इस तरह का अत्याचार आस्ट्रेलिया, अफ्रीका आदि देशों में भी किया गया। यूरोपीय मूल के वंशज आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री केविन रुड ने तो 24 फरवरी 2008 को संसद में अपने पूर्वजों की भूल मानते हुए पूरी दुनिया के सामने माफी मांगी थी।
नौ अगस्त को भारत के लोगों को क्या करना चाहिए?
जब नौ अगस्त को कोलंबस ने जिस अमेरिका की खोज की और वहां के लोगों पर अत्याचार किए गए. फिर क्या किसी भी स्वाभिमानी मूल निवासी को इस तिथि को उत्सव के रूप में मनाना चाहिए। यूरोप एवं विश्व के अलग-अलग देशों से विदेशी धन प्राप्त कर अपनी दुकानदारी चलाने वाली ईसाई मिशनरी व कई संस्थाएं योजनाबद्ध तरीके से भारत के अंदर अंतरराष्ट्रीय मूल निवासी दिवस को स्थापित करने की गहरी चाल चल रहे हैं। देश का भोला-भाला जनजाति समाज भी इस साजिश से अनभिज्ञ है। अपनी ही बर्बादी की तारीख नौ अगस्त में अपना अस्तित्व व पहचान तलाश रहा है। यह गंभीर चिंतन का विषय है।
मूल निवासी दिवस को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की अवधारणा भारत के संदर्भ में लागू होती है क्या?
13 सितंबर 2007 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा मूल निवासियों के अधिकारों की घोषणा की गई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत सरकार के प्रतिनिधि ने भी 2007 के घोषणा पत्र में हस्ताक्षर करते समय यही कहा कि भारत में रहने वाले सभी लोग यहां के मूल निवासी हैं। हमारे यहां कोई भी बाहर से नहीं आया है। 143 देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। वहीं अमेरिका, आस्ट्रलिया, न्यूजीलैंड व कनाडा ने विरोध में मतदान किया। 13 देशों में मतदान में भाग नहीं लिया। इस घोषणापत्र में मूल निवासियों के कई अधिकारों को मान्य किया गया परंतु उस प्रस्ताव की सबसे खतरनाक आपत्तिजनक बात आत्मनिर्णय के अधिकार को लेकर था। यह अधिकार किसी भी देश को कई टुकड़ों में विभाजित करने तक आ जाएगा जो कोई भी सार्वभौम राष्ट्र स्वीकार नहीं कर सकता। यहां चर्च और मिशनरियों ने अनुसूचित जनजाति के लोगों को नौ अगस्त के दिन को विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मनाने के लिए उकसाया जा रहा है। उस दिवस का भारत के संदर्भ में कोई महत्व नहीं है। यदि उस दिवस को मनाना ही है तो विश्व के मूल निवासियों के लिए शोक दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए।