Move to Jagran APP

Chhath Puja Song: लोकमानस में सदियों से बसे छठ गीत विदेश तक पहुंचाने में जुटी हैं लोक गाय‍िका चंदन तिवारी

Chhath Song Jharkhand News चंदन तिवारी कहती हैं कि छठ पुरबिया इलाके का पर्व है। छठ के गीत इन्हीं इलाकों की भाषाओं में गाए जा सकते हैं। मेरी कोशिश मौके के हिसाब से उन्हें गाने की रहती है।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Published: Mon, 08 Nov 2021 09:39 AM (IST)Updated: Mon, 08 Nov 2021 10:13 AM (IST)
Chhath Puja Song: लोकमानस में सदियों से बसे छठ गीत विदेश तक पहुंचाने में जुटी हैं लोक गाय‍िका चंदन तिवारी
Chhath Song, Jharkhand News चंदन तिवारी कहती हैं कि छठ पुरबिया इलाके का पर्व है।

रांची, जासं। छठ महापर्व का अनुष्ठान आज से शुरू हो रहा है। इस पर्व की जो पवित्रता है, संदेश है, वह इसे महत्वपूर्ण बनाता है। छठ के साथ उसके गीतों की भी महत्ता रही है। पीढ़ियों से छठ के गीत गाए जाते रहे हैं। गांव-गांव, शहर-शहर हर जगह छठ के पारंपरिक गीत सुनने को मिलते हैं। इसकी धुन सहज ही लोगों को आकर्षित करती है। यह लोगों के मानस में रची-बसी है। छठ गीतों को उनके पारंपरिक रूप में सहेजने और उन्हें आवाज देने का बड़ा काम लोक गायिका चंदन तिवारी ने किया है। चंदन कहती हैं कि बिना गीत के छठ कहां सोच सकते हैं या पूरा कर सकते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी लोकमानस से ही ये गीत आगे बढ़े हैं। छठ गीत को लेकर दैनिक जागरण की संवाददाता श्रद्धा छेत्री ने चंदन तिवारी से बात की। पेश है बातचीत के अंश।

loksabha election banner

इस बार छठ गीतों को लेकर क्या तैयारी है

छठ गीत के अनेक प्रस्ताव हर साल आते हैं। अलग-अलग जगहों से। कुछ कंपनियों से भी। पर, मेरी कोशिश रहती है कि छठ गीतों को लेकर थोड़ा सतर्क रहूं। मैं छठ गीत की मौलिकता से छेड़छाड़ के पक्ष में नहीं रहती। ऐसा मानती हूं कि लोकगायन में कुछ गायन विधाएं ऐसी हैं, जिसकी मौलिकता ही उसकी पहचान है। यह पीढ़ियों से उसे लोकप्रिय बनाते रहे हैं। छठ के गीत कोई आज से नहीं गाए जा रहे, बल्कि जब से यह पर्व हो रहा है, तब से गीत इसका अनिवार्य हिस्सा है।

बिना गीत के छठ पर्व कहां सोच सकते हैं या पूरा कर सकते हैं। जब न कैसेट का जमाना था, ना सीडी आया था और ना ही आज का यूट्यूब था, तभी से छठ गीत गांव में गाए जा रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी। आखिर कैसे? साधारण सी बात है कि इसे लोकमानस सहेज रहा था और पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा रहा था। इसलिए हर साल मैं छठ के कुछ गीतों को गाने की कोशिश करती हूं। पिछले साल बिंध्यवासिनी देवी के गीतों को रिक्रीयेट करने की कोशिश की थी। इस साल गांव के कुछ गीतों को गाने की कोशिश की हूं।

छठ गीतों में वैसे लोक गीत बताएं, जो पीढ़ियों से गाए जा रहे

छठ के बारे में यह स्पष्ट है कि यह पुरबिया इलाके का पर्व है। यानी भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका, बज्जिकाभाषी इलाके का पर्व। इन्हीं इलाकों से निकलकर यह पर्व पूरे देश और दुनिया में फैला। जाहिर सी बात है कि छठ के गीत इन्हीं भाषाओं में गाए जा सकते हैं। अब इन भाषाओं में अनेक गीत हैं, जो पीढ़ियों से गाए जाते रहे हैं, पर उन्हें अब भी रिकार्ड नहीं किया जा सका है। मेरी कोशिश रहती है कि वैसे ही गीतों का गायन करूं। उन गीतों की तलाश करूं।

छठ गीत को साधारण तरीके से कह दिया जाता है। लेकिन छठ गीत में कई विध हैं। छठ आने से पहले का गीत अलग होता है। जैसे एक गीत है- नदिया किनारे धेनु गइया, बोले गरजी के बोल। आई गइले कातिक महीनवा छठिया करबई जरूर। इसी तरह दउरा साजने का गीत अलग होता है। दउरा ले जाने का अलग। अरघ देने का अलग। कोसी भरने का अलग। आदित्य को मनाने का यानी घाट को सेने का गीत अलग। ऐसे ही छठ गीतों की वैरायटी को मैं अलग-अलग मौके के हिसाब से गाने की कोशिश करती रही हूं।

एम्स्टर्डम में आपका अनुभव कैसा रहा। आप किस प्रकार लोक गीतों को बढ़ावा दे रही हैं

बहुत ही बेहतरीन अनुभव रहा। वहां मेरे प्रिय कलाकार, जो बड़े भाई सरीखे हैं, राजमोहन जी, मशहूर गिरमिटिया कलाकार हैं। उनके साथ ही शो और कंसर्ट की। साथ में रागा मेन्यू जैसे पॉप भोजपुरी गायक, सूरज जैसे दंडताल वादक रहे। वहां लोग एकदम ठेठ गीतों को सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। वहां मुझसे तीन गीतों की फरमाइश हुई। एक महेंद्र मिसिर का गीत केहू गोदवाई का गोदनवा, दूसरा रेलिया बैरन पिया को लिए जाये रे, तीसरा एक गारी गीत।

लोकगीतों को मैं कैसे बढ़ावा दे रही, यह खुद से कहना बहुत मुश्किल काम है। हां यह सुकून है कि पिछले पांच सालों में भोजपुरी और बिहार की अलग-अलग भाषाओं के करीब 50 लोक रचनाकारों को तलाशकर, उनकी रचनाओं को खोजकर, उन्हें संगीत में ढालकर गाने की कोशिश की। एक नए दायरे का विस्तार हुआ। रसूल मियां, मास्टर अजीज, त्रिलोकीनाथ उपाध्याय, स्नेहलता समेत अनेक नाम इनमें शामिल हैं। इसी तरह गांधी संगीत पर काम की। गांव-गांव घूमकर गांधी से जुड़े करीब 34 लोकगीतों को तलाशी। उन्हें कंपोज कर गाया। रसूल मियां के लगभग गीतों को कंपोज कर अनेक जगहों पर गाई।

अभी आजादी के अमृत वर्ष पर 1857 से 1947 तक के उन गीतों को तलाशकर, संगीत में तराशकर गा रही हूं, जिन गीतों ने आजादी की लड़ाई में हथियार की तरह भूमिका निभाई थी। इसी तरह गांव, गेंगा और गांधी पर शृंखला की। लोकगीतों में स्त्री स्वर पर काम किया। इसे लोगों ने खूब स्नेह दिया। सुकून यह है कि इन कामों को मान्‍यता भी मिल रही है। देश के अनेक जगहों पर जाने का मौका मिला। बड़े शिक्षण संस्थानों से बुलावा आया। भारत सरकार के संगीत नाटक अकादमी ने बिहारी लोकगायन के लिए युवा पुरस्कार उस्ताद बिस्मिल्ला खान सम्मान दिया। बिहार सरकार ने बिहार कला सम्मान दिया। सम्‍मान से इतर लोगों का प्‍यार ज्‍यादा सुकून देता है।

होली के गीतों में फूहड़ता सुनने को मिलती ही थी, लेकिन अब छठ गीतों के साथ भी ऐसा दिख रहा है। आपको कौन सी गीतों में फूहड़ता दिखाई देती है?

हिंदी इलाके के लोकगीतों का दुर्दिन तो पिछले तीस सालों से जारी है। पर छठ गीतों में भी इतनी जल्दी गीतकार, संगीतकार और गायक कलाकार उसे अश्लीलता के करीब ले जाने की कोशिश करेंगे, इसकी कल्पना अभी नहीं की थी। यदि समाज इस पर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं करेगा तो ऐसे लोगों का मनोबल बढ़ता ही जाएगा। मैं तो यह भी मानती हूं कि गायन में जितना ज्यादा विजुअल का प्रभाव बढ़ेगा, यह सब होगा, क्योंंकि फिर गाना सुनने से ज्यादा देखने की चीज बनती जाएगी।

और जैसे ही गाना सुनने से ज्यादा देखने की चीज बनेगी, अश्लील गानेवालों के लिए यह आसान होता जाएगा। मैं तो यह कहती हूं कि छठ गीतों को समकालीन बनाने की जरूरत ही क्या है। छठ गीतों के जरिये वर्षों से संतान की कामना, स्वास्थ्य की कामना, बेटे-बेटी की कामना की जाती रही है। पर अब तो हर कामना को जोड़ा जा रहा है। फिर भइया भउजी, जीजा साली का आगमन हुआ है। धीरे-धीरे यह घाघरा चोली में बदलेगा। इस साल से ही यह बदलने लगा है।

आपके करियर की शुरुआत किस प्रकार हुई?

बचपन से ही संगीत से लगाव हुआ। घर में मां गाती थी तो उन्हें सुनते हुए बड़ी हुई। घर में बाकी भाई बहनों का मन पढ़ाई लिखाई में लगा, पर मेरा मन हारमोनियम में बचपन में ही रम गया। फिर स्कूल में हर अवसर पर गाने लगी। बाद में गुरु से शास्त्रीय संगीत की तालिम ली, लेकिन मन लोकसंगीत में जम गया। इसलिए लोकसंगीत ही गाना शुरू किया। फिर कुछ टीवी के रियल्टी शो में गई। वहां जाकर समझ में आया कि लोकसंगीत के लिए लोक के बीच रहना होगा। मुंबई में प्रस्ताव था, पर वापस अपनी धरती लौट गई। तब से लोकसंगीत ही गाने की कोशिश कर रही हूं।

लोक गीत के प्रति रुझान कैसे हुआ

लोकगीत गांव-घर में बचपन से ही सुनती रही। इसलिए स्वाभाविक तौर पर ज्यादा लगाव हुआ। लोकगीत गाने पर लगातार प्यार भी मिला। लोगों का स्नेह भी, इसलिए फिर कभी कुछ सोची नहीं कि दूसरे तरीके के गायन में कोशिश करूं। समझ में भी आ गया कि लोकसंंगीत ही सभी संगीत की बुनियाद है और यह अथाह समंदर है। एक जन्‍म में इस सागर में थोड़ा गोता लगाकर कुछ मोतियों को भी चुन लूं, तो यह मेरे जीवन की सार्थकता होगी और संगीत से जुड़ने का सार्थक परिणाम भी इसे समझूंगी।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.