रांची, जासं । पूरे मिथिला में चौरचन का त्योहार पूरे धूमधाम से मनाया जाता है। चौरचन को चौठचंद्र भी बोलते हैं। मिथाला में मनाया जाने वाला चौठचंद्र ऐसा त्योहार जिसमें चांद की पूजा बड़े धूमधाम से की जाती है। मिथिला के अधिकांश त्योहारों का नाता प्रकृति से जुड़ा होता है। ये व्रत पुत्र की दीर्घायु के लिए किया जाता है। रांची में बड़ी संख्या में मिथिलावासी रहते हैं। ऐसे में ये पर्व यहां भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
महिलाएं करती हैं व्रत
मिथिलानी समुह की संस्थापिका निशा झा बताती हैं कि चौरचन के दिन मिथिला की महिलाएं पूरे दिन व्रत करती हैं। इसके साथ ही शाम को भगवान गणेश की पूजा के साथ चांद की विधि विधान से पूजा कर अपना व्रत तोड़ती हैं। पूजा स्थल पर पिठार (पीसे चावल से) से अरिपन बनाया जाता है। फिर उसी अरिपन पर बांस से बने डाली (पथिया) में फल , पिरुकिया, टिकरी, ठेकुआ, और मिट्टी के मटकुरी में दही जमा कर पूजन सामग्री के साथ घर के सभी लोग चंद्र देव को अर्ध्य देते है। उसके बाद घर के वरिष्ठ सदस्य (पुरुष) मरर भांगते है जिसमे खीर दाल पूरी के साथ साथ फल मिठाई दही इत्यादि रहता है। फिर सभी लोग मिलके प्रसाद रूपी खीर पूरी फल मिठाई दही इत्यादि ग्रहण करते है।
क्या है पर्व के पीछे की कहानीः
ऐसी मान्यता है कि भाद्रपद के चौठ के दिन भगवान गणेश ने चंद्रमा को शाप दिया था। पुराणों में लिखा गया है कि चंद्रमा को अपने सुंदरता पर बड़ा घमंड था। उसने भगवान गणेश का उपहास किया। इससे गुस्सा होकर गणेश ने चांद को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि जो भी इस दिन चांद देखेगा उसे कलंक लगने का डर रहेगा। इस शाप से मुक्ति पाने के लिए भादो मास में के चतुर्थी तिथि के दिन चांद ने भगवान गणेश की पूजा अर्चना की। चांद को अपनी गलती का एहसास था इसलिए भगवान गणेश ने उसे वर दिया कि जो भी मेरी पूजा के साथ तुम्हारी पूजा करेगा उसे कलंक नहीं लगेगा।