कैंपस कथा ::: प्रणय कुमार सिंह
जब तक नौकरी में थे तभी तक डर था। अब तो सेवानिवृत्त हैं।
अब तो सेवानिवृत्त हैं, डर काहे का
जब तक नौकरी में थे तभी तक डर था। अब तो सेवानिवृत्त हैं। अब डर किस बात का। अपने बॉस पर टिप्पणी करने से लेकर आदोलन वाले ग्रुप में शामिल होने में गुरेज नहीं। कुछ ऐसा ही कर रहे हैं एक मास्टर साहब। लंबी सेवा देने के बाद अभी 31 को ही सेवानिवृत्त हुए हैं। सेवा के साथ निवृत जुड़ा नहीं कि सोशल मीडिया पर अधिक एक्टिव हो गए। फेसबुक पर टिप्पणी करने का मौका ढूंढते रहते हैं। जो खबर शिक्षा विभाग से जुड़ी नहीं भी है, लेकिन कहीं से भी संदर्भ जोड़कर उस पर टिप्पणी करने से नहीं चूकते। मास्टर साहब विद्वान हैं। विद्वान इसलिए कि कई किताबें लिख चुके हैं। राष्ट्रपति भी पुरस्कृत कर चुके हैं। जब सेवा में थे तो कॉपी जाचने से बचते रहते थे और सेवानिवृत्ति के बाद अब जाचने के लिए खूब इधर उधर जुगाड़ लगा रहे हैं। बस पैसा आ जाए किसी तरह
कॉपियों से पैसे निकालने की तरकीब पैसा कमाने के लिए लोग न जाने क्या-क्या तरकीब लगाते हैं। और जब बात मास्टर साहब की हो तो फिर क्या कहना। बच्चों को पढ़ाने का समय भले ही नहीं हो, बच्चों की कॉपिया से पैसे निकालने की तरकीब भिड़ा लेते हैं। मैट्रिक व इंटर की कॉपियों के मूल्याकन में यह प्रयोग खूब चल रहा। मास्टर साहब कॉपियों की जाच से भी अच्छी कमाई का जतन कर रहे हैं। मूल्याकन के लिए प्रति कॉपी 20 रुपये और होल्टेज 250 रुपये सहित अन्य सुविधाएं मिलती हैं। जिस विषय की कॉपिया कम हैं उसकी जाच कर रहे शिक्षक हर दिन 30 से आगे नहीं बढ़ते हैं, क्योंकि जितने दिन अधिक लगेंगे उतना होल्टेज बढ़ेगा। जिस विषय में अधिक कॉपिया हैं वहा मास्टर साहब 60 कॉपिया तक जांच दे रहे हैं। जैसा मौका, वैसा काम। गुरुजी इसमें तो बहुत माहिर हैं। अब संभालिए तीन-तीन पद
कहा एक पद के लिए जद्दोजहद थी अब बिग बॉस ने तीन-तीन पद दे दिया है। लीजिए संभालिए। अभी कोरोना के कारण विवि बंद है, नहीं तो छात्रों का खूब घेराव होता और अखबार में खूब फोटो छपता। खैर ऐसे भी दिन आएंगे। ये तो महामारी है, समय के साथ धीरे-धीरे सब खत्म हो जाएगा। इसके बाद पद का जलवा दिखेगा। वैसे इस प्रोफेसर साहब के पास काम का खूब अनुभव भी रहा है। जब केवल मैनेजमेंट वाले विभाग में थे तो अपने बेहतर काम से बिग बॉस को खुश कर दिया था। इसके बाद जैसे ही पत्रकारिता और वोकेशनल वाला पद खाली हुआ तो इन्हें बैठा दिया गया। प्रोफेसर साहब पहले से अधिक खुश रह रहे हैं, लेकिन तीन-तीन पदों पर पहले की तरह बेहतर कार्य करके दिखाना इनके लिए चुनौती बन गई है। विवि प्रशासन इनकी प्रतिभा देखने के लिए ज्यादा ही आतुर है। फीस पर माननीय का खेल
दो महीने से स्कूल की फीस पर चल रही राजनीति का पटाक्षेप अभी नहीं हुआ है। जितनी पॉलिटिक्स हुई उसका अंत स्कूलों का एकाउंट भरने व अभिभावकों की जेब खाली होने पर हुआ। फैसला अधूरा रहा, लेकिन जिस मुद्दे पर फैसला हुआ वह पूरी तरह स्कूल प्रबंधन के पक्ष में हुआ। अभिभावकों के पक्ष में जो बातें आती उस पर कहा गया कि निर्णय बाद में होगा। कहते हैं कि इन सब में दो पॉलीटिशियन ने अपना उल्लू सीधा करने का काम किया। एक ओर मंत्री जी अभिभावक के पक्ष में बयान दे रहे थे और दूसरी ओर स्कूल प्रबंधन की ओर से एक माननीय इस खेल में लगे थे। इस माननीय का भी स्कूल है इसलिए सभी स्कूल प्रबंधन इन्हें काफी भाव दे रहे थे। इन सबके बीच अभिभावकों के हितैषी बताने वाले दो संगठन भी लगे थे। आखिर जीत स्कूल की हो गई।