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गोबर व गौमूत्र वाली कृषि भर रही किसानों का खजाना, लागत भी कम और नुकसान भी नहीं

Jharkhand News झारखंड के स्कूलों की पोषण वाटिकाओं में भी प्रयोग हो रहा है। कोरोना काल में पौष्टिकता से भरपूर फसलों वाली यह खेती डिमांड में है। झारखंड में कई जगह गौमूत्र और गोबर से लहलहाती फसलों को देखा जा सकता है।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Published: Wed, 30 Sep 2020 03:27 PM (IST)Updated: Wed, 30 Sep 2020 05:22 PM (IST)
गोबर व गौमूत्र वाली कृषि भर रही किसानों का खजाना, लागत भी कम और नुकसान भी नहीं
गोबर और गोमूत्र से बनाई जा रही पोषण वाटिकाएं।

रांची, [मधुरेश नारायण]। कृषि और पशुपालन का संबंध पुराना है। इसका मूल्‍य समझनेवाले लोग तेजी से जैविक खेती की ओर लौट रहे हैं। झारखंड में हाल के वर्षों में इसमें एक नया आयाम जुड़ा है- अमृत कृषि। यह खेती गाय के गोबर और गौमूत्र पर आधारित है। कुछ लोग इसे आध्यात्मिकता और गो-सेवा से जोड़कर देखते हैं तो कुछ ने इसे कम लागत वाली खेती का नाम दिया है।

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खास बात यह है कि गोबर और गौमूत्र पर आधारित पद्धति से उपजाई गई फसलों में पौष्टिकता भरपूर होती है। वहीं, खेती में किसी तरह के रसायन का उपयोग नहीं होने के कारण यह नुकसानरहित भी है। हाल के दिनों में इस खेती की ओर किसानों के साथ सरकार और अन्य संस्थाओं का भी रुझान बढ़ा है। झारखंड में जगह-जगह बनाई जा रही पोषण वाटिकाओं में खेती के लिए इस पद्धति को आजमाया जा रहा है। वहीं कोरोना काल में पौष्टिकता से भरपूर फसलों वाली यह खेती डिमांड में है।

सितंबर के महीने में अमृत मिट्टी से तैयार खेती में धान की खेती।

झारखंड में कई जगह गौमूत्र और गोबर से लहलहाती फसलों को देखा जा सकता है। बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची में किसानों को लगातार इस खास विधि से खेती का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। इस योजना से जुड़े बीएयू (बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची) के बिजनेस प्लानिंग डिपार्टमेंट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सिद्धार्थ जायसवाल पिछले एक दशक से झारखंड, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश में गाय के गोबर-गौमूत्र पर आधारित प्राकृतिक कृषि (अमृत कृषि) पर काम कर रहे हैं।

बीएयू-बीपीडी सोसायटी की मदद से उन्होंने रांची, बोकारो, पूर्वी सिंहभूम, हजारीबाग एवं खूंटी जिले के सैकड़ों किसानों को अमृत कृषि की तकनीक बताई है। वह बताते हैं कि अमृत कृषि खेतों की उर्वरा क्षमता के लिए भी बेहतर है। इस खेती में मिट्टी को इतना स्वस्थ कर दिया जाता है कि पहले वर्ष की खेती से ही उत्पादन में सुधार होने लगता है।

अमृत मिट्टी से तैयार खेती में मौसमी सब्जी की खेती।

कस्तूरबा विद्यालयों में हो रहा प्रयोग

राज्य के विभिन्न जिलों में जिला प्रशासन के सहयोग से इस खेती का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। रांची जिले के 10 कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालयों तथा दुमका के 10 सरकारी विद्यालयों में प्राकृतिक खेती (अमृत कृषि) द्वारा जैविक पोषण वाटिका स्थापित की गई है। लोहरदगा जिला प्रशासन द्वारा भी वहां के सरकारी विद्यालयों में जैविक पोषण वाटिका की स्थापना के लिए एक परियोजना को स्वीकृति दी गई है।

अन्य जिलों में भी योजना के विस्तार पर काम हो रहा है। स्कूलों और खासकर छात्राओं के स्कूलों में इस योजना को अपनाया जाना इसलिए भी अहम है, क्योंकि झारखंड में एक ओर जहां बड़े पैमाने पर पौष्टिक भोजन के अभाव में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, वहीं लड़कियों में पोषण और स्वास्थ्य का स्तर और भी खराब है।

खूंटी में जनवरी के महीने में अमृत मिट्टी से खेती की तकनीक का प्रशिक्षण लेते ग्रामीण।

जल्दी नहीं पड़ती खाद की जरूरत

अमृत कृषि की पद्धति का झारखंड के किसानों के बीच प्रसार किया जा रहा है। इसके तहत गोबर और गौमूत्र की मदद से मिट्टी को विशेष रूप से तैयार किया जाता है। एक बार मिट्टी को तैयार कर लेने के बाद किसान को लंबे समय तक के लिए खेत में खाद और कीटनाशक के प्रयोग की जरूरत नहीं पड़ती। डॉ. सिद्धार्थ जायसवाल बताते हैं कि बीएयू के विभिन्न परियोजनाओं के तहत हर वर्ष सैकड़ों किसानों और आमलोगों को अमृत कृषि तकनीक की ट्रेनिंग की जा रही है।

इस पद्धति में केवल गोबर-गौमूत्र के न्यूनतम उपयोग पर आधारित खेती होती है। किसी प्रकार के रासायनिक उर्वरक या कीटनाशी का इस्तेमाल नहीं किया जाता। इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति में स्थायी वृद्धि होती है। साथ ही फसलों के उत्पादन, मिट्टी की उत्पादक क्षमता और पोषक तत्वों की उपलब्धता में भी बढ़ोतरी होती है। उन्होंने बताया कि अमृत कृषि पूर्णत: प्राकृतिक सिद्धांतों तथा सूर्यप्रकाश के अधिकतम अवशोषण पर आधारित है।

डॉ सिद्धार्थ जायसवाल।

दो गोवंश से दो हेक्टेयर में खेती

डॉ. सिद्धार्थ जायसवाल ने बताया कि सिर्फ दो देसी गोवंश से एक किसान दो हेक्टेयर भूमि में कम लागत में पौष्टिक अनाज व सब्जियों का उत्पादन कर सकता है। अमृत कृषि के दो घटक होते हैं। ये हैं अमृत जल और अमृत मिट्टी। अमृत जल बनाने के लिए देसी गाय का गौमूत्र, गोबर तथा देसी गुड़ की जरूरत होती है, जबकि अमृत मिट्टी बनाने के लिए सूखे पत्ते तथा जैविक अवशेष की जरूरत होती है।

ऑर्गेनिक खेती और अमृत कृषि में अंतर

ऑर्गेनिक खेती

1) बायो खाद और बायो पेस्टिसाइड की जरूरत

2) पोषक तत्व रासायनिक उत्पाद से ज्यादा

3) खुले में रखा उत्पाद कम वक्त में होगा खराब

4) खेतों में जैविक गुण आने में समय लगता है।

अमृत कृषि

1) अमृत कृषि में किसी भी प्रकार की खाद या कीटनाशक की जरूरत नहीं

2) अमृत कृषि उत्पाद में रासायनिक उत्पाद तथा जैविक उत्पाद से ज्यादा पोषक तत्व मिलते हैं

3) खुले में रखा उत्पाद भी ज्यादा वक्त तक रहेगा फ्रेश

4) अमृत कृषि में प्रथम वर्ष से ही उत्पादकता में बढ़ोतरी।


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