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आदिवासी अज्ञानी नहीं, प्रकृति व परंपरागत ज्ञान के धनी : सिमोन

रांची आदिवासी को लोग गरीब पिछड़ा और अज्ञानी कहते हैं लेकिन वास्तव में आदिवासी गरीब नहीं धन

By JagranEdited By: Published: Sun, 24 Mar 2019 06:57 AM (IST)Updated: Sun, 24 Mar 2019 06:57 AM (IST)
आदिवासी अज्ञानी नहीं, प्रकृति व परंपरागत ज्ञान के धनी : सिमोन
आदिवासी अज्ञानी नहीं, प्रकृति व परंपरागत ज्ञान के धनी : सिमोन

रांची : आदिवासी को लोग गरीब, पिछड़ा और अज्ञानी कहते हैं लेकिन वास्तव में आदिवासी गरीब नहीं धनी हैं, क्योंकि वे जंगल, पहाड़, नदी, जमीन, जड़ी-बूटी जैसे प्राकृतिक संसाधनों के धनी हैं। आदिवासी पिछड़े एवं अज्ञानी इसलिए नहीं हैं क्योंकि वे प्रकृति एवं परंपरागत ज्ञान के धनी हैं। पद्मश्री से सम्मानित सिमोन उराव ने शनिवार को एचआरडीसी राची में 'संवाद' एवं 'नेशनल आदिवासी एलायंस' के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सामुदायिक अधिकार समागम, आदिवासी जैव सास्कृतिक संलेख पर आधारित संगम में ये बातें कहीं। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि मजबूत ग्राम सभा से ही गाव-समाज का विकास संभव है। सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरणविद् घनश्याम ने कहा कि इंसानों को प्रकृति के साथ छेड़छाड़ किए बिना तालमेल के साथ अब चलने का समय आ चुका है। प्रकृति को समृद्ध करते हुए व्यक्ति को समृद्ध करना आज के युग की माग है। इंसान सबसे पहले एक प्राकृतिक प्राणी है, उसके बाद सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है। उन्होंने कहा कि आदिवासी जंगल को मात्र संपदा नहीं बल्कि धरोहर समझते हैं और इसके संरक्षण, संवर्धन के लिए अपनी परंपरा अनुसार प्रयासरत रहते हैं। पोटका से आए हुए सिद्धेश्वर सरदार ने कहा कि आधुनिकता प्रकृति की हत्या कर रही है। आधुनिक समाज को प्रकृति से जुड़ी आदिवासियों की जीवन पद्धति को स्वीकारने में हिचक नहीं होनी चाहिए। झारखंड के वृत्तचित्र निर्माता मेघनाथ ने कहा कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की बात की जाती है, लेकिन इसका मतलब यह होता है कि आदिवासियों को उनकी संस्कृति, परंपरा और प्रकृति से दूर किया जाय। छत्तीसगढ़ की उर्मिला गौंड ने कहा कि आज आदिवासी अपनी संस्कृति एवं परंपरा बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है, जो काफी चिंतनीय है। वंदना टेटे ने कहा कि पर्यावरण पर आदिवासी चिंतन एवं गैर आदिवासी चिंतन में जमीन आसमान का फर्क है। क्योंकि आदिवासी प्रकृति को धरोहर मानते हैं वहीं गैर आदिवासी इसे संपदा के रूप में देखते हैं। प्रकृति के प्रति उपजी है व्यावसायिक सोच : गुंजल इकिर मुंडा ने कहा कि आज लोगों में प्रकृति के प्रति व्यावसायिक सोच हो गई लेकिन आदिवासियों में वैसी सोच नहीं है। छत्तीसगढ़ के मन्ना बैगा ने कहा कि पहले आदिवासी जंगलों और पहाड़ों में बिना हल चलाए बहुत सारी फसलें उगाते थे, लेकिन अब इस प्रवृत्ति में कमी आई है और सरकार भी ऐसी खेती को बढ़ावा न देकर रासायनिक खाद खेती को आगे बढ़ा रही है। सावित्री बड़ाईक ने इस मौके पर जैव विविधता के संरक्षण संवर्धन से संबंधित अपनी कविता का पाठ किया। राजस्थान की गुणी प्रतापी बाई मीणा ने कहा कि प्रकृति ने हमें मौसम आधारित फसल, फल, फूल इत्यादि दिये हैं, जिसका हम सभी प्रयोग करें तो निरोग रह सकते हैं। उन्होंने विभिन्न तरह की जड़ी-बूटियों में पाये जाने वाले औषधीय गुणों की जानकारी देते हुए कहा कि ये सारी चीजें जंगल, पहाड़ में उपलब्ध हैं, जिनको सहेजने की जरूरत है।

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कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में विभिन्न समुदायों के जैव विविधता प्रोटोकॉल पर किए गए दस्तावेजीकरण को साझा किया गया तथा इस पर लोगों ने अपने-अपने सुझाव दिए। कुल चार राज्यों के आठ जनजाति समुदायों पर निम्न संस्था-संगठनों ने अध्ययन एवं दस्तावेजीकरण का काम किया है। झारखंड में 'संवाद' द्वारा 'मुंडा' समुदाय, 'जंगल बचाओ आदोलन' द्वारा कुड़ुख, छत्तीसगढ़ में 'दिशा समाज सेवी संस्था' द्वारा 'मोरिया' गौंड, 'परिवर्तन समाज सेवी संस्था' द्वारा पारधी, 'आदिवासी समता मंच' द्वारा 'बैगा' समुदाय, ओडिशा के 'सेवा जगत/डिवोटी ट्रस्ट' द्वारा कुटिया कंध समुदाय एवं राजस्थान के 'जागरण जन विकास समिति' द्वारा कटवलिया एवं कथौड़ी जनजाति समुदाय शामिल हैं। कार्यक्रम स्थल पर विभिन्न राज्यों के आदिवासियों के बीच काम करने वाले संस्था-संगठनों द्वारा जैव विविधता से संबंधित पोस्टर, पत्रिका, परंपरागत खान-पान सामग्री, औषधीय वनोत्पाद एवं औषधी इत्यादि प्रदर्शनी में रखे गए हैं।

नगाड़ा बजाकर उद्घाटन : कार्यक्रम का उद्घाटन विभिन्न राज्यों से आए हुए प्रतिनिधियों द्वारा दीप जलाकर एवं नगाड़ा बजाकर परंपरागत तरीके से किया गया। अतिथियों का स्वागत श्रावणी, कार्यक्रम का संचालन शशि बारला, तथा धन्यवाद ज्ञापन साल्गे मार्डी ने किया। कार्यक्रम को सफल बनाने में शेखर, जमील, राकेश कुमार राउत एवं डेविज कुजूर ने सक्रिय भूमिका निभाई।


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