संकट में प्रवासी मजदूर : कभी बेकसी ने मारा...कभी बेबसी ने मारा...आप भी जानिए इन मजलूमों का दर्द
भूख-प्यास से बेहाल प्रवासी मजदूरों की फौज अपने घरों में आकर भी खुश नहीं है। परिवार पालने की चिंता के साथ ही किसी तरह दोनों पहर खाना जुटाने की फिक्र ने इन्हें बेचैन कर रखा है।
रांची, जेएनएन। भूख-प्यास से बेहाल प्रवासी मजदूरों की फौज अपने घरों में आकर भी खुश नहीं है। परिवार पालने की बड़ी चिंता के साथ ही अपने अबोध बच्चों, मासूमों के लिए किसी तरह दोनों पहर खाना जुटाने की फिक्र ने इन्हें बेचैन कर रखा है। इनकी बदनसीबी-गरीबी का आलम यह है कि कोरोना वायरस की महामारी के चलते देशभर में लागू लॉकडाउन ने पहले इनका काम छीना, अब जिंदगी छिनने पर उतारू है। परदेस में भूख-प्यास से बेहाल हुए तो फिर गांव की गलियां याद आईं। लेकिन यहां भी घर-बार सूना है। पड़ोस-मोहल्ला भी मदद को तैयार नहीं हैं। हालांकि, इनमें से कुछ प्रवासी कामगार ऐसे भी हैं जो घर आकर सुकून महसूस कर रहे हैं। लेकिन उन भाग्यहीनों का क्या, जिनके घर में भुनी भांग तक नहीं है। ऐसे प्रवासी मजदूरों, मजलूमों की पीड़ा जानने के लिए दैनिक जागरण उनकी चौखट तक पहुंचा। यहां पढ़ें कुछ प्रवासी मजदूरों की दर्दभरी कहानियां....
धनबाद के पूर्वी टुंडी की दुम्मा पंचायत की जोबा मुर्मू, गोरा मुनि, और रीना कुमारी तमिलनाडु की कपड़ा फैक्ट्री में काम करती थी। ये प्रति माह 6000 रुपये भेज करती थी। अब घर आ चुकी हैं और इनका वापस तमिलनाडु जाने का कोई विचार नहीं है।
केरेडारी प्रखंड के जोको गांव के राजेन्द्र राणा पिछले सात माह से बेंगलुरु में राजमिस्त्री का काम करते थे। वहां प्रतिदिन के हिसाब से 800 से 900 रुपये की कमाई हो जाती थी। 5000 रुपये महीना घर भी भेज देते थे। इन्हें ले जाने वाला ठेकेदार भी कुछ पैसे घर में देता था। बताते हैं कि जमा पैसे भी खत्म हो चुके हैं। घर में राशन नहीं मिल रहा। अभी पिता के काम में मदद कर रहा हूं। यहां काम ढूंढने पर भी काम नहीं मिल पा रहा। सब कुछ ठीक-ठाक होने के इंतजार में हूं। मेरा जॉब कार्ड भी बंद हो गया है। काम नहीं मिला तो मुझे फिर वापस जाना होगा।
भुरकुंडी गांव निवासी आदिवासी प्रवासी मजदूर उपेंद्र हांसदा फरवरी में हरियाणा कमाने गया। वहां प्लाईवुड फैक्ट्री में काम करता है। रोज 12 घंटे काम के हिसाब से 14000 रुपये महीना कमाता है। जिसमें हर महीने 8000 रुपये घर भेजता था। 2000 रुपये राशन में खर्च होता, 4000 रुपये अपने पास रखता। उपेंद्र ने बताया कि उसने सातवीं कक्षा तक कि पढ़ाई की है। वह दो भाई है। बताया कि यहां मनरेगा में काम हमेशा नहीं मिलता है, काम मिलेगा तो बाहर कमाने नहीं जाएंगे। उसके पिता रुबिलाल हांसदा ने बताया कि मजबूरी में बच्चे को बाहर भेजना पड़ता है। बताया कि यहां काम की कमी है। काम यहां रेगुलर मिलेगा तो अपने बच्चे को कभी बाहर नहीं भेजेंगे।
गोड्डा जिले के ठाकुरगंगटी प्रखंड के माेरडीहा स्थित उत्क्रमित उच्च विद्यालय क्वारंटाइन सेंटर में रह रहे प्रवासी मजदूर रामरतन साह ने बताया कि वे दिल्ली में सदर बाजार में रहकर भवन निर्माण कार्य में एक ठेकेदार के अधीन काम कर रहे थे । वहां वे 12 हजार रुपये मासिक मजदूरी पाते थे। इनमें से 8 हजार रुपये घर भेजा करते थे। खेती-बाड़ी के लिए गांव में जमीन नहीं है । मनरेगा योजना में कम मजदूरी मिलने से परिवार की जरूरतें पूरी करने में परेशानी होगी। लॉकडाउन के बाद अगर ठेकेदार ने बुलाया ताे फिर से दिल्ली चले जाएंगे। मोरडीहा गांव के ही शक्ति रविदास भी दिल्ली के सदर बाजार में ही भवन निर्माण कार्य में दिहाड़ी मजदूरी करते थे। करीब 12 से 14 हजार रुपये कमा लेते थे। वहीं 7-8 हजार रुपये घर भी भेजा करते थे। गांव आने पर अब राेजगार की चिंता सता रही है। मनरेगा आदि योजनाओं में काम करके परिवार का भरण पोषण करने में कठिनाई होगी क्योंकि यहां मजदूरी कम मिलती है। फिलहाल दिल्ली के ठेकेदार से कोई बातचीत नहीं हो पा रही है लेकिन जब बुलाया जाएगा तो निश्चित तौर पर वे लॉकडाउन के बाद सरकारी आदेश निकलने पर राजधानी दिल्ली में ही जाकर मजदूरी करेंगे।
साहिबगंज के तालझारी प्रखंड के महाराजपुर बाजार निवासी उमेश कुमार चौधरी पिछले लगभग दो साल से गुजरात के सूरत में कपड़ा फैक्टरी में काम करते थे। प्रतिमाह 15000 कमाते थे। अपने घर 7000 भेज देते थे। कोरोना वायरस के कारण लाकडाउन हो जाने पर फैक्टरी बंद कर दी गई जिससे घर वापस आना पड़ा। पैसे भी खत्म हो चुके हैं। वर्तमान में क्वॉरेंटाइन सेंटर में हैं। यहां से छूटने के बाद काम की तलाश करेंगे। काम मिला तो यहीं पर रहेंगे अगर काम नहीं मिला तो परिवार की खातिर फिर से बाहर मजदूरी करने के लिए जाएंगे।
चाईबासा में लॉक डाउन की वजह से हजारों मजदूर वापस अपने घर पहुंच रहे हैं, जिससे वह अपने रोजी रोटी का इंतजाम के साथ परिवार के साथ रह सकें। ऐसे प्रवासी मजदूर जो काम के लिए दूसरे राज्यों में गये थे अब वह लौट गए हैं। मझगांव प्रखंड के खड़पोस गांव निवासी मो. नईम महाराष्ट्र के पुणे में वेल्डिंग का काम किया करते थे। लाकडाउन होने की वजह से अब वह वापस आ गये। नईम प्रत्येक माह 8 से 10 हजार रुपया अपना परिवार चलाने के लिए भेजते थे। वहां उनको 15 से 16 हजार रुपया मिलता था। अपने घर से बचाकर वह 6 परिवार को पाल रहा था। अब वह घर वापस आ गया है लेकिन भविष्य क्या होगा उन्हें भी नहीं पता । अब उनकी नजरें राज्य सरकार पर है जिससे उन्हें स्वरोजगार के कुछ काम मिल जाए और अपने परिवार के साथ यहीं रह कर दो पैसा कमा सके।
कुमारडूंगी प्रखंड के अंधारी गांव निवासी नीलांबर पान चेन्नई में मजदूरी का काम करते थे। वहां उनको 10 हजार रुपया महीना मिलता था, अपना खर्च के बाद वह प्रत्येक महीना 5 हजार रुपया 4 लोगों के परिवार को चलाने के लिए भेजता था । लॉकडाउन होने की वजह से वह पिछले महीना घर वापस आया गया ।अब उन्हें चिंता सता रही है की घर का खर्च किस प्रकार मैनेज किया जा सकेगा । क्योंकि वह 4 साल से चेन्नई में रह रहा था और प्रत्येक माह पैसा भेज रहा था।
सरायकेला के काशीडीह गांव के आदिवासी प्रवासी मजदूर मंगल हेम्ब्रम जनवरी में तेलंगना काम करने गया था। वहां पर वह पर फैक्ट्री में काम करता था। 12 घंटे काम 18 हजार महीना मिलता था। जिसमें 10 हजार घर भेजता था। 8 हजार अपने पास रखता। मंगल हेम्ब्रम ने बताया कि वह आठवी तक कि पढ़ाई की है। दो भाई एक बहन है। मनरेगा आदि योजनाओं में काम करके परिवार का भरण पोषण करने में कठिनाई होगी क्योंकि यहां मजदूरी कम मिलती है। लॉकडाउन के बाद तेलंगना काम करने फिर जाएंगे।
पलामू के पांडू प्रखंड के भटवलिया गांव निवासी राकेश विष्वकर्मा मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक कम्पनी में काम करते थे।लॉक डाउन लगने के बाद काम बंद होने पर किसी तरह अपने गांव पहुंचकर कोरेनटाइन का समय पूरा किया।उन्होंने बताया कि बाहर काम कर के घर खर्च के लिए हर माह 3000 रे भेजता था। पूरे परिवार का भरण पोषण होता था।मगर कोरोना काल मे दो माह बैठकर खाना पड़ा। इस कारण जो कमाई का पैसा था खर्च हो चुका है।गावो में अभी काम का अभाव है। इस कारण अब घर का खर्च चलना मुश्किल हो रहा है।उन्होंने कहा कि गांवों में कमाई भी बाहर के अपेक्षा कम होती है।इसके कारण विवश होकर बाहर प्रदेशों में जाना पड़ेगा।
लोहरदगा के कैरो प्रखंड मुख्यालय के रहने वाले कुशल मजदूर विनोद यादव का कहना है कि अपने गांव में काम कर परिवार चलाना काफी मुश्किल है। गुजरात के सूरत में रहकर बड़े वाहनों में ड्राइवर का काम करते थे। जिससे महीने में 15-20 हजार रुपए आराम से आ जाता था। इसके अलावे अलग से भी कमाई हो जाती थी। जिसमें से हर महीने 10 से 12 हजार रुपए अपने घर भी भेज देते थे। लेकिन गांव में रहकर महीने में इतना कमाना नामुमकिन है। अगर सरकार रोजगार मुहैया कराएगी तो शायद बेहतर ढंग से परिवार चल सकेगा। सरकार को कुशल मजदूरों के लिए बेहतर विकल्प तलाशनी चाहिए। लॉकडाउन की वजह से वहां पर काम बंद पड़ गया है। अब काफी परेशानी खड़ी हो गई है। घर में रहकर परिवार का गुजारा करना मुश्किल है। सरकार ने जल्द कोई कदम नहीं उठाया तो परिस्थितियां सामान्य होने के बाद वापस लौटना पड़ेगा।
कोडरमा जिले के जयनगर प्रखंड के खरीओडीह गांव के नीलकंठ पंडित पिता तेजेश्वर पंडित विगत 15 साल से मुंबई में नाला सोपरा के गारमेंट्स में काम करते थे। महीने के 12 हजार रुपए कमाते थे जिसमें 8 हजार रुपए अपने परिवार के लिए घर भेजते थे। जिससे उसके दो बच्चे, पत्नी तथा माता-पिता का खर्च चलता था। अब वे लॉक डाउन में घर आए हुए हैं। उनका कहना है अगर सरकार यहां रोजगार मुहैया कराएगी तो वह वापस मुंबई नहीं जाएंगे।
कोडरमा जिले के महुआगढ़ा गांव के नजरुल अंसारी पिता तफज्जुल अंसारी विगत 10 साल से चेन्नई में ट्रक ड्राइवर थे। वे 12 हजार रू महीना कमाते थे। इसमें 8 हजार अपने परिजनों के लिए भेजते थे। उनके 8 हजार रुपए से पत्नी, दो बच्चे तथा माता-पिता का भरण पोषण होता था। वे कहते हैं लॉकडाउन समाप्त होने के बाद पुनः चेन्नई जाएंगे, क्योंकि इधर उन्हें रोजगार नहीं मिल पाएगा।
कोडरमा जिले के जयनगर प्रखंड के खरीओडीह निवासी संतोष कुमार पिता मुरली पंडित विगत 5 साल से तेलंगाना में जेसीबी ऑपरेटर का काम करते थे। उन्हें 16 हजार रू प्रतिमाह मिलता था जिसमें से 12 हजार रू अपने परिवार के लिए भेजते थे। अब वे कोरोना महामारी के चलते इतने भयभीत हैं कि बाहर नहीं जाना चाहते हैं। वे चाहते हैं अगर राज्य सरकार उन्हें मदद करेगी तो वे यहीं कोई रोजगार करेंगे।
खूंटी के तोरपा प्रखंड अंतर्गत अम्मा पकना गांव निवासी कृष्णा महतो एक साल पूर्व नागपुर गया था। वह वहां एक फैक्ट्री में काम करता था, जहां उसे प्रतिमाह 13 हजार रुपये मिलते थे। इसमें से वह सात हजार रुपये अपने घर भेज देता था। कृष्णा महतो ने बताया कि वह अब दोबारा नागपुर नहीं जाएगा। यहीं रहकर कुछ काम करेगा। यदि बैंक से ऋण मिल जाए तो कोई छोटा-मोटा व्यवसाय कर लेगा।
जैकब तिग्गा फरसा बेड़ा निवासी ने कहा कि मुंबई के एक फैक्ट्री में उसे रोजाना काम करने के लिए 400 प्रतिदिन से दिया जाता था,वही महीने का 12000 होता था। 7000 अपने खर्च के लिए रखता था और हर महीना अपने परिवार के लिए 5000 घर भेजता था। पर अब उसे इस बात की चिंता सता रही कि काम के बिना अपने परिवार कैसे चलाएं
कृष्ण सेन (30) पाकुड़ के हिरणपुर प्रखंड के डांगापाड़ा गांव के रहने वाला है। वह पिछले दो साल से केरल में राजमिस्त्री का सहायक बनकर काम कर रहा था। उसे प्रतिदिन 800 रुपया मिलता था। इसमें से वह करीब 15 घर भेज देता था। 22 दिन पहले घर वापस आया। अभी अपने परिवार के साथ घर में रह रहा है। अब यहीं काम करने का इरादा है।