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मैं रांची हूं, राजधानी बनने के बाद 18 साल में बहुत बदली हूं, थोड़ा और बदल दो

राजधानी बनने के बाद 18 साल में करवट ले रही उम्मीदें, विकास की उम्मीदें हो रहीं जवान।

By Edited By: Published: Thu, 15 Nov 2018 07:50 AM (IST)Updated: Thu, 15 Nov 2018 01:13 PM (IST)
मैं रांची हूं, राजधानी बनने के बाद 18 साल में बहुत बदली हूं, थोड़ा और बदल दो
मैं रांची हूं, राजधानी बनने के बाद 18 साल में बहुत बदली हूं, थोड़ा और बदल दो

रांची [राजेश पाठक]। मैं रांची हूं। बीते 18 सालों में बहुत बदल गई हूं। उतनी, जितनी एचईसी के खुलने के बाद चालीस सालों में नहीं बदली। एक हिल स्टेशन के रूप में मेरी पहचान थी। छोटा से रेलवे स्टेशन, बाहर चंद रिक्शे। मेन रोड, फिरायालाल चौक, अपर बाजार और बीच से कटने वाली सड़कें। मोटे तौर पर 8-10 किलोमीटर में सिमटी हुई। पहाड़ी बाला सी छवि थी। बेहतरीन मौसम। कहीं भी निकल जाइए रास्ते में पलाश, साल, जामुन, कटहल, सागवान के झूमते हुए पेड़ स्वागत करने को तैयार। एक दूसरे से गलबहियां करते हुए।

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गर्मी के दिनों में भी पूरी छांव देने को तैयार। दोपहर की धूप जरा सी तल्ख हुई तो शाम होते-होते झमाझम बारिश। गर्मी की रात में भी ठंड का एहसास। यही मेरी पहचान थी। सेहत लाभ के लिए लोग अपना ठौर बनाते थे। जो आए तो मेरे ही हो के रह गए। यहीं बस गए। अब मैं बालिग हूं 18 साल कम नहीं होते। बिहार से अलग झारखंड बना तो मैं ही राजधानी बन गई। इन वर्षो में बहुत कुछ बदला। रांची रेलवे स्टेशन का आकार बदल गया। बाहर बड़े शहरों की तरह अब भीड़ है। भांति-भांति की गाड़ियां। एयरपोर्ट का आकार भी बदल गया। छोटी, बड़ी दुकानों के चेहरे बदल गए। बड़े-बड़े होटल, मॉल खुल गए। बड़े-बड़े अस्पताल और भी बहुत कुछ, क्या क्या गिनाऊं। हरमू रोड जहां शाम के बाद लोग शाम के बाद गुजरने से परहेज करते थे अब बाइपास-राजपथ है।

शहर के चारों ओर से ¨रग रोड ने घेर लिया है। पुराने सिनेमा हॉल की जगह मल्टीप्लेक्स ने ले लिया। अब तो वे पहचानेंगे नहीं राजधानी बनने के बाद जो नहीं आए होंगे वे तो मुझे पहचान ही नहीं सकेंगे। एक गांव पूरा का पूरा खेल गांव स्टेडियम में बदल गया है। एक कॉलोनी, राज्य संग्रहालय भी है। बिरसा मुंडा जेल भी। आरएमसीएच ने रिम्स का रूप ले लिया है। नाम के साथ आकार में भी बदलाव हो गया है। फिरायालाल के पास का सदर अस्पताल का भी बड़ा भवन बनकर तैयार है। कांके रोड जहां शाम के बाद जाने को सवारी नहीं मिलती थी वीआइपी इलाका है। बड़े-बड़े अपार्टमेंट, मार्केट, मॉल बन गए। थोड़ा आगे का सफर तय करेंगे तो पतरातू घाटी पहुंच जाएंगे। कभी नक्सलियों के इलाके के रूप में पहचान थी। अब तो घाटी इतनी खूबसूरत हो गई है कि फिल्म वाले भी फिदा हैं।

फिल्म सिटी बनाने की सोच रहे हैं। घुमावदार रास्ते के बदले हजारीबाग की सड़क इतनी अच्छी बन गई है कि अब रांची, लंच और डिनर के लिए लोग चले आते हैं। जमशेदपुर और गुमला और लोहरदगा से आने वाली सड़कों की सूरत भी बदलने को है। निर्माण पर गर्व कभी कभी अपने निर्माण पर गर्व होता है। हाई कोर्ट का नया भवन बनकर तैयार है। जेएससीए स्टेडियम धुर्वा हो, मोरहाबादी का हॉकी स्टेडियम, बिरसा मुंडा फुटबॉल स्टेडियम, चिरौंदी का साइंस सेंटर, कांके का विधि विवि, अनेक निजी विवि, सिद्धू कानू पार्क से लेकर शहर में अनेक पार्क बन गए हैं। रवींद्र भवन व हज हाउस भी आकार ले चुका है। यही हालत जयपाल सिंह स्टेडियम के पास वेंडर्स मार्केट की है। फ्लाईओवर और एलिवेटेड रोड से भी पाटने पर काम चल रहा है।

राजधानी बनी तो लोग भी आते गए। मैं बड़ी होती गई तो विस्तार होता गया। बोझ उठाती चली गई। रांची की पहाड़ी पर चढ़कर कभी निहारेंगे तो मेरे फैलाव का अंदाज लगेगा। लोगों को ठौर देना था कॉलोनियां बनती गई। रानी बगान जैसे अनेक इलाके कंक्रीट के बगान बन गए। पेड़ों के बदले बड़े-बड़े अपार्टमेंट उग आए। मेरे सीने पर गाड़ियों का बोझ भी बढ़ गया है। विकास ने पेड़ों की बली ली है, बढ़ते बोझ से अब मेरा दम घुटता है। मेरे साथ मेरे शहर का मौसम भी बदल गया है। हां लगता है मैं बहुत बदल गई हूं। मेरे सयानेपन पर लोगों की नजर लग रही है। मुझे थोड़ा और बदल दो। इतना कि बोझिल के बदले स्मार्ट हो जाऊं। जो मेरे आगोश में हैं वे भी चैन और सुकून की सांस ले सकें।


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