तीन शताब्दियों से दुर्गा पूजा कर रहा मजूमदार परिवार
खास है यहां की प्रतिमा यहां पर दुर्गा प्रतिमा भी अलग ढंग से स्थापित की जाती है। घर में ही मूर्तिकार प्रतिमा गढ़ते हैं।
संजय कृष्ण, रांची। ओसीसी कंपाउंड पहले अधिकारियों और बड़े लोगों का निवास था। अब इस गली का नाम राधेश्याम गली हो गया है। इसी गली में रहने वाला मजूमदार परिवार पिछली तीन शताब्दियों से मां दुर्गा की पूजा करता आ रहा है। बुधवार को यहां भी अष्टमी की पूजा हुई। पूरा परिवार एकत्रित था। संधि पूजा की गई। बलि दी गई। इसके बाद प्रसाद का वितरण किया गया।
1857 की क्रांति के बाद बांग्लादेश से कालीचरण मजूमदार रांची आए थे। ये सिविल कंट्रैक्टर थे। उन्होंने यहां कई भवन बनाए। सदर अस्पताल, जिला स्कूल, मेंटल अस्पताल और राजौली घाट आदि का निर्माण कालीचरण ने ही किया। कोमिल्ला, बांग्लादेश में इनकी जमींदारी थी। वहां पीढि़यों से मां दुर्गा की पूजा होती आ रही थी। जब यह परिवार रांची आया तो पूजा का क्रम बंद नहीं हुआ। 1857 की क्रांति के बाद बांग्लादेश से आना-जाना लगा रहा, लेकिन 1947 में जब देश आजाद हुआ तो परिवार पूरी तरह रांची में ही बस गया। परिवार के सदस्य आशीष मजूमदार, सुबीर मजूमदार, रूपक मजूमदार बताते हैं कि बांग्लादेश में मेहर कालीबाड़ी का प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर हमारे ही परिवार का है। यह मंदिर भी अपनी जमीन पर ही बना हुआ है।
आजादी के बाद बांग्लादेश छूट गया। रांची का यह मकान 1916 का बना हुआ है। मकान की डिजाइन देखकर इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। खास है यहां की प्रतिमा यहां पर दुर्गा प्रतिमा भी अलग ढंग से स्थापित की जाती है। घर में ही मूर्तिकार प्रतिमा गढ़ते हैं। पिछले कई सालों से रांची के प्रसिद्ध मूर्तिकार अजय पाल प्रतिमा बना रहे हैं। प्रतिमा एक चाला होती है। यहां दुर्गा के बाएं गणेश जी विराजमान होते हैं, जबकि अन्य जगहों पर दाहिने। इसके साथ ही दाहिने कार्तिक भगवान। इसलिए यहां आरती भी उल्टी होती है। यानी बाएं से। इस तरह की प्रतिमा सिर्फ इनके परिवार में ही बनाई जाती है। इसे बांग्लादेश स्टाइल कहते हैं। यहां पिछले 40 साल से चुटिया के ऋषिकेश मुखर्जी ही अनुष्ठान कराते आ रहे हैं। इसके पहले इनके पिताजी कराते थे।
सुबीर मजूमदार कहते हैं कि यहां जितने भी पुराने बंगाली परिवार हैं, वे पूजा करने यहीं पर आते हैं। षष्ठी को यहां अनुष्ठान शुरू होता है और दशमी को विसर्जन। यानी बेलवरण से दशमी तक। विसर्जन के बाद लकड़ी वापस लाई जाती है और फिर अगले साल इसी लकड़ी पर प्रतिमा बनाई जाती है। कभी बंद नहीं हुई पूजा पूजा कभी बंद नहीं हुई। साल से परिवार में पूजा हो रही है। रूपक कहते हैं कि परिवार बड़ा हो गया है। कोई कोलकाता रहता है, कोई भुवनेश्वर। फिर भी चार दिन के लिए पूरा परिवार एकत्रित होता है। पूजा में सभी परिवार एक साथ शामिल होते हैं। पूजा का खर्च भी परिवार ही उठाता है। इसके लिए बाहर से चंदा नहीं लिया जाता है। सातो भाई मिलकर पूजा करते-कराते हैं। पूजा के लिए समिति का भी गठन होता है। इस बार अध्यक्ष उत्पल मजूमदार हैं। उनकी देखरेख में पूजा हो रही है। ढाकिए पं बंगाल से आए हैं।