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पुलिस हो आरोपित तो धीमी हो जाती जांच की आंच

रांची, दिलीप कुमार। अगस्त माह में शराब की खेप के साथ फर्जी तरीके से युवकों को फंसाने का मामला हो या तोपचांची के इंस्पेक्टर उमेश कच्छप की जून 2016 में खुदकशी का, जब जांच पुलिस अधिकारियों के खिलाफ होती है तो उसकी गति और तपिश दोनों कम हो जाती है।

By JagranEdited By: Published: Tue, 25 Sep 2018 01:50 PM (IST)Updated: Tue, 25 Sep 2018 01:50 PM (IST)
पुलिस हो आरोपित तो धीमी हो जाती जांच की आंच
पुलिस हो आरोपित तो धीमी हो जाती जांच की आंच

रांची, दिलीप कुमार। अगस्त माह में शराब की खेप के साथ फर्जी तरीके से युवकों को फंसाने का मामला हो या तोपचांची के इंस्पेक्टर उमेश कच्छप की जून 2016 में खुदकशी का, जब जांच पुलिस अधिकारियों के खिलाफ होती है तो उसकी गति और तपिश दोनों कम हो जाती है। जब कोई आम आदमी छोटे-मोटे मामले में भी पकड़ा जाता है तो पुलिस का पौरुष जाग उठता है। मारपीट से लेकर जेल भेजने तक की कार्रवाई करने से वह नहीं चूकती है, भले ही केस कोर्ट में पहुंचने के बाद टांय-टांय-फिस्स हो जाए।

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वहीं, जब आरोपित पुलिस अधिकारी बन जाएं तो बचने की तरकीब खोजने में नीचे से लेकर ऊपर तक के अधिकारी की मदद मिलती है। यही कारण है कि आरोपित अधिकारियों को निलंबित करने से लेकर विभागीय कार्रवाई करने तक ही पूरी प्रक्रिया सीमित रह जाती है। अनुसंधान को लंबा खींचने की प्रक्रिया भी अपनाई जाती है ताकि दोषी को बचाया जा सके। इसका खुलासा वर्षो से अनुसंधान के अधीन चल रहे मामले कर रहे हैं।

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कुछ प्रमुख मामले, जो अब तक अनुसंधान के अधीन हैं :

केस एक

धुर्वा में 30 अगस्त को फर्जी तरीके से शराब का अवैध रूप से धंधा करने के आरोप में दो लोगों को जेल भेजे जाने के मामले में डीएसपी हटिया विनोद रवानी और धुर्वा के तत्कालीन थानेदार तालकेश्वर राम प्रारंभिक जांच में दोषी मिले हैं। उन पर झूठी वाहवाही लूटने के लिए दो लोगों को फंसाने का आरोप है। थानेदार तो लाइन हाजिर हो चुके हैं, जबकि डीएसपी के विरुद्ध कार्रवाई की अनुशंसा पुलिस मुख्यालय से की गई है। मामला अब तक लंबित है।

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केस दो

¨हदपीढ़ी के आरएमपी डॉक्टर इंतजार अली को 20 अगस्त 2015 को पुलिस ने रांची के अनगड़ा स्थित किता स्टेशन से यह कहकर गिरफ्तार किया था कि उसका आतंकियों से साठगांठ है। विस्फोटक वाले बैग सहित कई फर्जी सबूतों के आधार पर उन्हें जेल भी भेज दिया था। जब उनपर अपराध की पुष्टि नहीं हुई तो 56 दिनों के बाद वे जेल से बाहर निकले थे। इस मामले में अब तक दोषी पदाधिकारियों पर ठोस कार्रवाई नहीं हुई।

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केस तीन

15 फरवरी 2014 को चुटिया निवासी प्रीति की हत्या का केस हुआ था। इसमें प्रीति का अपहरण कर बुंडू में जलाकर मारने का आरोप लगा था। इस मामले में पुलिस ने अनुसंधान के दौरान धुर्वा निवासी अजीत कुमार, अमरजीत कुमार व अभिमन्यु उर्फ मोनू को दोषी पाते हुए जेल भेजा था और 15 मई को चार्जशीट भी दाखिल कर दिया था। इसी बीच 14 जून 2014 को प्रीति ने ग्रामीण एसपी के सामने पहुंचकर सबको अचंभित कर दिया था। इस मामले का अनुसंधान सीआइडी ने किया और तथ्य की भूल बताते हुए चार्जशीट को निरस्त कराया गया। तब जाकर तीनों निर्दोष जेल से निकले थे। इस मामले में तीन पुलिस अधिकारियों को सिर्फ निलंबित कर पुलिस ने अपना कर्तव्य पूरा किया।

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केस चार

धनबाद जिले के तोपचांची के इंस्पेक्टर उमेश कच्छप की जून 2016 में खुदकशी के बाद जब पूरे मामले की जांच हुई तो पता चला कि जिस मामले की जांच का जिम्मा उन्हें दिया गया था, वह अधिकारियों की एक साजिश थी। इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि तत्कालीन डीएसपी बाघमारा मजरूल होदा व हरिहरपुर के तत्कालीन थानेदार संतोष रजक ने एक चमड़ा लदे ट्रक के चालक को खुद गोली मारकर जख्मी किया था और उसके पास हथियार प्लांट कर उसपर ही आ‌र्म्स एक्ट का मामला दर्ज करवा दिया था, जिसकी जांच का जिम्मा उमेश कच्छप को दी गई थी। इस मामले में भी हथियार प्लांट करने वाले अधिकारियों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। मामला अनुसंधान के अधीन है।


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