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सरकारी उदासीनता के कारण सिमट रहा पारंपरिक ज्ञान

आदिवासी के पास इलाज के अपने पारंपरिक तरीके और दवाएं हैं परंतु ज्ञान का उपयोग नहीं किया जा रहा है।

By JagranEdited By: Published: Tue, 19 Jun 2018 01:00 PM (IST)Updated: Tue, 19 Jun 2018 01:00 PM (IST)
सरकारी उदासीनता के कारण सिमट रहा पारंपरिक ज्ञान
सरकारी उदासीनता के कारण सिमट रहा पारंपरिक ज्ञान

जागरण संवाददाता, रांची : फादर हॉफमैन ने मुंडारिका इनसाइक्लोपीडिया में चार हजार दवाओं का उल्लेख किया है। इन दवाओं का उपयोग मुंडा जनजाति करती थी। यह उनका पारंपरिक ज्ञान था। यह ज्ञान भी सिमटता जा रहा है। राज्य बनने के बाद सरकार ने आदिवासी के पारंपरिक ज्ञान का उपयोग नहीं किया। इन पर कोई शोध नहीं हुए। जबकि राज्य में 32 प्रमुख जनजातियां हैं और सबके पास इलाज के अपने पारंपरिक तरीके और दवाएं हैं। वनौषधियों से ही ये अपना इलाज करते हैं, लेकिन इसकी जानकारी नहीं। होड़ोपैथी के माध्यम से कुछ काम हो रहा है, लेकिन यह सब निजी प्रयास से।

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होड़ोपैथी को बचाने की दिशा में काम रहीं और हेदान की सचिव वासवी किड़ो कहती हैं कि पुराने समय में हमारे पास कई वनस्पतियां थीं, जिनका उपयोग अंग्रेज तक करते थे परन्तु तमाम आधुनिक स्वास्थ्य परंपराओं में आदिवासी चिकित्सा और जैव पद्धति को कोई स्थान नहीं मिला है। यह आदिवासियों के परंपरागत ज्ञान और संपदा की उपेक्षा है।

होडोपैथी के विशेषज्ञ पीपी हेम्ब्रम टीबी, मलेरिया, एनीमिया, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, लो ब्लडपेशर, स्किन सिरोसिस व सिस्ट जैसी बीमारियों का भी इलाज किया है। देशज जड़ी बूटियों से बीमरियों का इलाज करने की परंपरा सदियों पुरानी है, जिसे आदिवासियों ने अपने पूर्वजों से विरासत में पाया है। लेकिन समय के साथ लोग अपना परंपरागत ज्ञान छोड़ते रहे और जिंदा रहने के आधुनिक तरीकों को अपनाने लगे, जिससे आहिस्ता-आहिस्ता होड़ोपैथी लुप्त होती जा रही है।

इंडीजिनस इनीशियेटिव के फाउंडर प्रभाकर तिर्की कहते हैं कि आज दुनिया के विकसित देश भी वापस पुराने ट्रेडिशन की ओर लौट रहे हैं। परंपरागत आदिवासी भोजन को कई स्थानों पर एथनिक फूड के नाम से प्रमोट किया जा रहा है। इस तरह के भोजन में पोषक तत्वों की कमी नहीं है और ये सहज उपलब्ध हैं। मड़ुआ का आटा यहा दस रुपये में बिकता है, दिल्ली जैसे शहरों में वह सौ रुपये में बिक रहा है। इसी तरह चकौड़ साग, बेंग साग आदि में औषधीय गुण मौजूद हैं।

कला को सहेजेगा खादी बोर्ड :

इस तरह दवा की तरह कला और कलाकार भी हैं। झारखंड में पारंपरिक कला हजारों साल पुरानी है। सोहराय कला हजारीबाग के एक गांव से निकल देश में फैल रही है। पर, यह कला सरकारी उदासीनता के कारण परवान नहीं चढ़ पा रही। इसी तरह मिट्टी के सामान, डोकरा आर्ट, टेराकोटा। यह सब आदिम कलाएं हैं। लेकिन अब खादी बोर्ड इसे सहेजने जा रहा है। एक जुलाई को होटवार में राज्य भर से पांच हजार कलाकार भाग ले रहे हैं।

इसमें झारखंड के पारंपरिक कलाकारों को एक मंच दिया जाएगा और उनकी कला का संरक्षण भी होगा। उनका एक डाटाबेस भी बनेगा। बोर्ड के अध्यक्ष संजय सेठ ने बताया कि यहां गांव-गांव में कलाकार हैं। लेकिन आज तक ये उपेक्षित हैं। इन्हें अब एक मंच प्रदान किया जाएगा। इनकी कला को बाजार दिया जाएगा, ताकि कला और कलाकार दोनों बच सकें। पारंपरिक ज्ञान को बचाना जरूरी है। बोर्ड इस दिशा में काम करने जा रहा है। पारंपरिक कला को बचाने के लिए कई काम भी किए जाएंगे।


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