Lok Sabha Polls 2019: ...तब राजनीतिक दल नहीं, प्रत्याशियों को जानते थे मतदाता
Lok Sabha Polls 2019. लोकसभा चुनाव के पन्ने पलटते ही कई रोचक तथ्य सामने आ जाते हैं। आज के समय में प्रत्याशी पार्टी के केंद्रीय नेता के सहारे चुनाव की वैतरणी पार करना चाहते हैं।
लोहरदगा, [राकेश कुमार सिन्हा]। लोकसभा चुनाव के पन्ने पलटते ही कई रोचक तथ्य सामने आ जाते हैं। आज के समय में प्रत्याशी पार्टी के केंद्रीय नेता के सहारे चुनाव की वैतरणी पार करना चाहते हैं। लेकिन एक समय ऐसा था, जब मतदाता प्रत्याशियों को ही पहचानते थे। उन्हें ही देख कर वोट देते थे। या कहें कि उन्हें चुनाव चिह्न और दल से कोई लेना-देना नहीं था।
इसके अलावा प्रत्याशी समर्थक और कार्यकर्ताओं के समझाने और उनके चुनावी वादे सुनकर ही फैसला लेता थे। लोहरदगा में 60-70 के दशक की बात करें तो उस समय लोकसभा चुनाव के दौरान प्रत्याशी और उनके समर्थकों के लिए मतदाताओं को समझा पाना काफी मुश्किल काम होता था। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का महत्व लोगों को समझ में आने लगा, चुनाव का गणित भी अलग होने लगा।
1962 के चुनाव की बात करें तो कांग्रेस छोड़कर बाकी सभी पार्टियों के चुनाव चिह्न बदलते रहे। तब मतदाता इसी वजह से दुविधा में रहते थे। 1971 के चुनाव में भी यही हाल था। 1977 के चुनाव में भी कई नए चुनाव चिह्न सामने आ गए। 1980 के चुनाव में कांग्रेस के अलावा अन्य दलों के नेताओं के लिए मतदाताओं को समझा पाना मुश्किल कार्य था। 1984 के चुनाव के दौरान भाजपा का चुनाव चिह्न सामने आया।
इसके बाद से आम मतदाताओं को भाजपा और कांग्रेस का चुनाव चिह्न ही याद रहने लगा। मतदाता प्रत्याशियों और उनके दल के बारे में कम ही जानते थे। गांव में जब रात को ढिबरी और लालटेन की रोशनी में चुनावी चौपाल बैठती तो लोग इन्हीं दो चुनाव चिह्न को याद रखने की बात कहते।
90 के दशक के बाद लोग चुनाव चिह्न के साथ-साथ उसके दल और प्रत्याशियों के बारे में भी जानने लगे। देखा जाए तो 60-70 के दशक से लेकर 80-90 के दशक तक प्रत्याशी और उनके दल से ज्यादा चुनाव चिह्न के प्रचार के लिए जोर दिया जाता था।