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Lok Sabha Polls 2019: ...तब गुड़-सत्तू होता था कार्यकर्ताओं का चुनावी खर्च

Lok Sabha Polls 2019. आज के दौर में चुनाव का नाम लेते ही राजनीतिक दलों द्वारा वोट पाने को लेकर अंधाधुध खर्च की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Published: Wed, 03 Apr 2019 05:12 PM (IST)Updated: Wed, 03 Apr 2019 05:12 PM (IST)
Lok Sabha Polls 2019: ...तब गुड़-सत्तू होता था कार्यकर्ताओं का चुनावी खर्च
Lok Sabha Polls 2019: ...तब गुड़-सत्तू होता था कार्यकर्ताओं का चुनावी खर्च

लोहरदगा, [राकेश कुमार सिन्हा]। आज के दौर में चुनाव का नाम लेते ही राजनीतिक दलों द्वारा वोट पाने को लेकर अंधाधुध खर्च की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है। कोई हेलिकॉप्टर से चुनाव प्रचार की तैयारी में जुटा है तो कोई बड़ी जनसभा के माध्यम से चुनाव की तैयारियां कर रहा है। कार्यकर्ताओं के बीच चुनावी खर्च के नाम पर पैसे लुटाने की छूट है।

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निर्वाचन आयोग के निर्देश के अनुसार हर राजनीतिक दल निर्धारित राशि खर्च करने को तैयार हैं। राष्ट्रीय दल तो पैसे के बल पर प्रचार कर लेते हैं, पर निर्दलीय प्रत्याशियों के समक्ष बस मतदाताओं का भरोसा ही होता है। चलिए अब आज से थोड़ा या कहें कि 30-35 साल पीछे चलते हैं। आज के लोगों को यह उत्सुकता होती है कि पुराने जमाने में चुनाव प्रचार कैसा होता था।

लोहरदगा क्षेत्र पहले लोकसभा चुनाव के समय से ही अपने आप में खास रहा है। वजह यह कि यह क्षेत्र पिछड़ा हुआ था, इसके बावजूद इसके हर राजनीतिक दल की नजर इस सीट पर होती थी। 70- 80 के दशक में लोहरदगा लोकसभा सीट का चुनाव काफी रोचक रहा है। राजनीतिक दलों के बीच इस सीट को जीतने की एक होड़ नजर आती थी। इस दौरान चुनाव जीतने में कार्यकर्ताओं की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही है।

अब और तब के समय में कार्यकर्ताओं के समर्पण की तुलना नहीं की जा सकती। 70-80 के दशक में पार्टी और प्रत्याशी ही सब कुछ होता था। लोहरदगा जिले के कई प्रखंड ऐसे थे, जहां तक पहुंचना किसी चुनौती से कम न था। पेशरार, कैरो, भंडरा, सेन्हा, कुडू आदि प्रखंड में चुनाव प्रचार काफी चुनौतीपूर्ण होता था। वयोवृद्ध मतदाता और राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता बताते हैं कि तब चुनाव प्रचार के लिए कार्यकर्ताओं को पैसे नहीं दिए जाते थे।

वे अपने सामथ्र्य के अनुसार पार्टी प्रत्याशी को जीत दिलाने के लिए चुनाव प्रचार में निकल पड़ते थे। रास्ते के इंतजाम के रूप में गुड, सत्तू कार्यकर्ताओं की खर्च सीमा थी। भूख लगा तो गुड़-सत्तू खाकर काम चला लिया। चुनाव प्रचार के लिए वाहन भी उपलब्ध नहीं हो पाता था। पार्टी प्रत्याशियों को बड़ी मुश्किल से प्रचार वाहन मिल पाता था।

कार्यकर्ताओं को तो साइकिल और पैदल ही चुनाव प्रचार के लिए जाना पड़ता था। उस समय में कई नदियों पर पुल नहीं हुआ करते थे। ऐसे में नदी पार कर चुनाव प्रचार करना पड़ता था। जहां शाम ढल जाती, वहीं पर किसी ग्रामीण के यहां रात को डेरा डाल लेते। उसी के यहां दो रोटी खा लेते। फिर अगले दिन किसी और क्षेत्र की ओर चुनाव प्रचार के लिए निकल जाते।

ऐसे समर्पित कार्यकर्ता भला आज कहां मिलते हैं। उस दौर के चुनाव प्रचार को याद कर वयोवृद्ध मतदाता और कार्यकर्ता उत्साहित हो जाते हैं। वे कहते हैं कि चुनाव प्रचार सिर्फ प्रत्याशी को जीत दिलाने तक ही सीमित नहीं था। बल्कि हर कार्यकर्ता के लिए अपनी पार्टी की एक अलग पहचान बनाना भी मकसद होता था।


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