आदिवासियों के प्रकृति प्रेम को दर्शाता है सरहुल
सरहुल प्रकृति से जुड़ा आदिवासियों का सबसे प्रमुख पर्व है। इसे समाज के लोग हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।
खूंटी : सरहुल प्रकृति से जुड़ा आदिवासियों का सबसे प्रमुख पर्व है। इसे समाज के लोग हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। सरहुल केवल एक पर्व नहीं बल्कि झारखंड की गौरवशाली प्राकृतिक धरोहर का नाम है। यही धरोहर मानव-सभ्यता, संस्कृति व पर्यावरण की रीढ़ भी है। सरहुल चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से शुरू होकर दो माह तक चलने वाला एक धार्मिक त्योहार है।
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पूजा का है विशेष महत्व
सरना पूजा के दौरान पाहन यानि पुजारी तीन अलग-अलग रंग के मुर्गे की बलि देते हैं। पहला सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए, दूसरा गांव के देवताओं के लिए और तीसरा गांव के पूर्वजों के लिए। पूजा के दौरान ग्रामीण, सरना के जगह को घेर लेते हैं। जब पाहन देवी-देवताओं की पूजा के मंत्र जप रहे होते हैं, तब ढोल, नगाड़ा और अन्य पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाए जाते हैं। इसके पूर्व सरना स्थल में तीन नए घड़े में शुद्ध पानी रखा जाता है। शाम को घर वापसी के समय तीनों घड़ों में पानी का स्तर देखा जाता है। अगर घड़ों का जलस्तर कम होता है तो माना जाता है कि उस वर्ष बारिश कम होगी। अगर घड़ा भरा रहता है या पानी गिरने लगता है तो माना जाता है कि बारिश अच्छी होगी। किसी घड़ा में अधिक और किसी में कम पानी होता है तो इससे बारिश की दिशा का अंदाजा लगाया जाता है।
यह पर्व नए साल की शुरुआत का प्रतीक है। आमतौर पर आदिवासी इस त्योहार को मनाने के बाद ही नई फसल का उपयोग, मुख्य रूप से धान, पेड़ के पत्ते, फूल और फल का उपयोग करते हैं। बसंत ऋतु के दौरान मनाए जाने वाले सरहुल में पेड़ और प्रकृति के अन्य तत्वों की पूजा होती है। सरहुल का शाब्दिक अर्थ है साल की पूजा। सरहुल त्योहार धरती माता को समर्पित है। साल के वृक्ष में फूलों का आना इस त्योहार के आने का द्योतक है।
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ऐसी है सरहुल मनाने की मान्यता
धरती की पुत्री बिदी नामक स्त्री नहाने के क्रम में खो जाती हैं। उसे खोजने के लिए धरती ने अपने दूत को चारों तरफ भेजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली। धरती चितित होकर रोने लगी। खोजते-खोजते पता चला कि बिदी पताल में यमराज के पास है। जब धरती ने यमराज से विनती कर बिदी को छोड़ने की बात कही तो यमराज ने कहा कि जो भी एक बार पताल में आता है वह कभी वापस नहीं जाता है। दूत ने कहा कि वैसी स्थिति में बिदी नहीं जाएगी, तो धरती मर जाएगी और सृष्टि समाप्त हो जाएगी। बहुत समझाने के बाद यमराज राजी हुए और बिदी को छोड़ दिया गया। जिसके बाद से धरती में हरियाली और रंग-बिरंगे फूल की सुगंधित खुशनुमा पर्यावरण छा गया। इसी की याद में लोग खुशी मनाकर सरहुल मनाते हैं।
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सरहुल में होती है फूलखोसी
सरना पुजारी धनी पाहन कहते है कि हमारे बुजुर्ग कहा करते हैं एक समय था जब अपने साम्राज्य को लेकर दुश्मनों के साथ भीषण लड़ाई हुई थी। उस वक्त अपनों की पहचान के लिए सरई के फूल को पुरुष अपने कानों में व महिलाएं अपने जूडों में लगाकर लड़ाई के मैदान में उतरी थीं। ताकि, अपने ही लोगों की हत्या न कर दे। उस लड़ाई में दुश्मनों की हार हुई। लड़ाई में सैकड़ों लोग मारे गए थे। इतने लोगों को दफन करना आसान नहीं था, इसलिए उन्होंने शव को साल के पेड़ की डालियों से बड़े-बड़े लकड़ियों से शव को ढक दिया था। ताकि, शव जानवरों का शिकार न बन जाए। उसके एक वर्ष बाद उक्त स्थान पर साल की वृक्ष उग आए और हर डाली पर सरई फूल लगे थे। तब से यह मानना है कि जिनको दफन कर दिया गया था वे सरई फूल (सरजोम बा: सुडा) के रूप में बदल गए। तब से आपने पुरखों की याद व जीत की खुशी में हर वर्ष सरहूल पर्व के दिन फूलखोसी कर एक-दूसरे को बधाई दी जाती है।
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सरहूल पर न निकलेगा जुलूस, न बजेगा बाजा
कोरोना संक्रमण को देखते हुए इस वर्ष खूंटी जिले में सरहुल शोभायात्रा नहीं निकालने का निर्णय लिया गया है। सरहूल को लेकर आयोजन समितियों ने विचार-विमर्श कर एकमत होकर यह फैसला लिया है। इस अवसर पर मुख्य सरना स्थल पर पांच लोग ही पूजा पाठ करेंगे। सभी लोग कोविड-19 के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए पहुंचेंगे और बारी-बारी से पूजा पाठ कर लौट जाएंगे। इस दौरान ढोल नगाड़ा भी नहीं बजेंगे। उधर तोरपा में विभिन्न समितियों द्वारा एकमत होकर फैसला लिया गया कि इस बार जुलूस-शोभायात्रा नहीं निकाली जाएगी। युवा सरना समिति के अध्यक्ष मशीह गुड़िया ने कहा कि विभिन्न सरना समितियों ने इस पर अपनी सहमति दी।